ज़्यादा पुरानी बात नहीं है। ‘पान सिंह तोमर’ बनकर तैयार थी अौर उसे मठाधीशों द्वारा सार्वजनिक प्रदर्शन के अयोग्य ठहराकर डिब्बे में बंद किया जा चुका था। निर्देशक तिग्मांशु धूलिया अंतिम उम्मीद हारकर अब नए काम की तलाश में थे अौर नायक इरफ़ान, फिल्म के लेखक संजय चौहान के शब्दों में रातों को फोन पर रोया करते थे अौर कहते थे कि कैसे भी करो यार, लेकिन अपनी यह फिल्म रिलीज़ करवाअो। इस फिल्म से उम्मीद खोकर अाखिर फिल्म के लेखक-निर्देशक ने कोई नई फिल्म पर काम शुरु करने की सोची। ऐसी फिल्म जिसका कैनवास ‘पान सिंह तोमर’ से छोटा हो, अौर जिसे रिलीज़ करवाने में शायद इतनी मशक्कत न करनी पड़े। अौर ऐसे ‘साहेब, बीवी अौर गैंगस्टर’ अस्तित्व में अाई। फिल्म बनती है अौर रिलीज़ होती है। याद होगा, मैंने लिखा था इस फिल्म के लिए कि क्यों यह फिल्म मुझे पसन्द अाती है, “क्योंकि यह छोटे वादे करती है अौर उन्हें पूरा करती है”।
कुछ फिल्म की खूबियाँ कहें अौर कुछ फिल्म की अच्छी किस्मत, ‘साहिब, बीवी अौर गैंगस्टर’ चल निकलती है। हिन्दी सिनेमा की भेड़चाल में एक फिल्म की सफलता के काँधे पर चढ़कर दूसरी फिल्म को ठिकाने लगाने के किस्से अाम हैं। अौर यहाँ ‘साहिब, बीवी अौर गैंगस्टर’ की सफलता तिग्मांशु की उससे पिछली डिब्बे में पड़ी फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ के लिए जीवनदान बनकर अाती है। ‘साहिब, बीवी अौर गैंगस्टर’ से पहले बनी अौर उससे कहीं बड़े कैनवास की फिल्म ‘पान सिंह तोमर’ उसकी सफलता के काँधे पर चढ़कर कभी असंभव दिखती उस रिलीज़ की तरफ बढ़ती है। अगर अाप ‘पान सिंह तोमर’ के शुरुअाती प्रदर्शन पूर्व के पोस्टर देखें तो उन पर ‘फ्रॉम द मेकर्स अॉफ साहिब, बीवी अौर गैंग्स्टर’ लिखा पायेंगे, जिसे फिल्म के लिए एकमात्र ‘सेलिंग पॉइंट’ माना गया होगा।
लेकिन ‘पान सिंह तोमर’ की हैप्पी एंडिंग अब भी दूर है। फिल्म कुछ सिनेमाघरों में रिलीज़ होती है अौर उसे अधिकतम दो हफ्ते का रनटाइम दिया जाता है। खराब शो टाइमिंग्स अौर लगभग न के बराबर पब्लिसिटी के साथ इस फिल्म को भी इसके जैसी अनेक पूर्ववर्ती फिल्मों की तरह अकाल मौत मरने के लिए छोड़ दिया गया है। लेकिन यहीं इसे वो संभालता है जिसकी भूमिका होनी तो इस सारे खेल में सबसे केन्द्रीय थी लेकिन जिसे निर्णय के सबसे अंतिम पायदान पर खुद हमारे मुख्यधारा सिनेमा ने भेज दिया है, दर्शक। इसी दौर में फिल्म को सिनेमा के परदे पर चली गई शातिर चालों के बीच हारता देख अनुराग कश्यप फिल्म के चाहनेवालों अौर निर्देशक के मध्य वहीं बम्बई के सिनेमाहाल के बाहर सीढ़ियों पर चला अनौपचारिक संवाद अायोजित करवाते हैं अौर जो मित्र उस संवाद में शामिल थे उन्हें उस दिन तिग्मांशु की अाँखों में अाए अाँसू अाज भी याद होंगे। मुझे याद है, मैं ‘पान सिंह तोमर’ पहले ही हफ्ते में दिल्ली के कनॉट प्लेस के एक मल्टिप्लेक्स सिनेमाघर में देखता हूँ अौर अाधे से ज़्यादा हाल खाली होता है। फिर वही फिल्म दूसरे हफ्ते जयपुर शहर में (जो मेरा ही नहीं, फिल्म के नायक का भी घर रहा है कभी) अपने परिवार को दिखाने ले जाता हूँ तो हाल तकरीबन पूरा भर चुका है अौर दर्शक अपने नायक से, उसकी बोलती अौर तीखे-असहज सवाल पूछती अाँखों से सीधा संवाद कायम कर रहे हैं। अाज के ‘पहले वीकेन्ड पर पैसा रिकवर’ वाले ब्लॉकबस्टर सिनेमा के दौर में यह उन गिनी चुनी फिल्मों में से है जिसे दूसरे अौर तीसरे हफ्ते में ज़्यादा लोगों ने देखा होगा।
इसके अागे की कहानी फिर फिल्म के लिए सफलता के नए कीर्तिमान गढ़ने की कहानी है, अौर अाप भी मानेंगे कि ‘पान सिंह तोमर’ ने अपने लिए हिन्दी सिनेमा के इतिहास में एक ख़ास मुकाम सदा के लिए सुरक्षित करवा लिया है। लेकिन मेरे लिए तिग्मांशु धूलिया अौर ‘पान सिंह तोमर’ की कथा यहाँ ख़त्म नहीं होती। जिस तरह ‘पान सिंह तोमर’ की इस प्रदर्शन पूर्व की रोमांचकारी कथा में ‘साहिब, बीवी अौर गैंगस्टर’ की बड़ी भूमिका रही, ठीक उसी तरह ज़रूरी है कि इस कथा को ‘साहिब, बीवी अौर गैंग्स्टर रिटर्न्स’ तक लाया जाये। क्योंकि यहीं से यह भी तय होगा कि क्या भविष्य में किसी अौर तिग्मांशु धूलिया के लिए कोई अौर ‘पान सिंह तोमर’ बनाना संभव होगा या नहीं।
हैबिटेट सेंटर में हुई फिल्म की स्क्रीनिंग से पहले हमारी बातचीत में तिग्मांशु से एक वयोवृद्ध दर्शक ने चलताऊ सा सवाल पूछा था कि ये अापकी फिल्मों में इतनी अश्लीलता, गाली-गलौच अौर हिंसा क्यों होती है। अौर मुझे याद है कि तिग्मांशु यह सवाल सुन कुछ भड़क से गए थे। उन्होंने कहा था कि वे हमेशा इस बात का ख्याल रखते हैं कि फिल्म में ज़रूरत से ज़्यादा हिंसा न हो अौर अश्लीलता अौर गाली तो उनकी फिल्मों में तक़रीबन नहीं ही अाती। उनके ऐसा कहने में एक स्वतंत्र निर्देशक का वो दंभ भी था कि मैं असली हिन्दुस्तान की कथा सुनाता हूँ अौर वही मेरी ताक़त है। मैं अपनी फिल्म बेचने के लिए इन ‘चीप थ्रिल्स’ का इस्तेमाल नहीं करता। कई बार नज़र चूक जाती है, लेिकन अनुराग कश्यप की फिल्मों की परंपरा से तिग्मांशु का खुद को जानबूझकर अलगाना मेरे लिए भी उस दिन उनकी फिल्मों को देखने का एक नया नज़रिया देने वाला रहा। भले वे अनुराग की फिल्म में केन्द्रीय भूमिका करते हों, उनका सिनेमा अनुराग से भिन्न है। भले अाप उन पर अभिजनवादी होने का अारोप लगायें, सामंती होने का अारोप लगायें, लेकिन वे इन्हें गाली-गलौच अौर अश्लीलता के अारोपों से बेहतर मानेंगे। अौर चाहे वे खुद अनुराग के सिनेमा की कितनी ही पैरवी करें, वे अपने सिनेमा को उनसे अलग रेखांकित करना अौर मूल्यांकित करवाया जाना चाहेंगे। चाहे कुछ भी हो जाये, उनकी फिल्म में अाइटम साँग नहीं होगा।
अौर फिर पिछले हफ्ते मैं सिनेमाहाल में ‘साहिब, बीवी अौर गैंग्स्टर रिटर्न्स’ देखता हूँ। यह वही हफ्ता है जब देश के सबसे सम्मानित राष्ट्रीय सिनेमा पुरस्कारों की घोषणा होनी है अौर ‘पान सिंह तोमर’ इसके दावेदारों में है। ‘पान सिंह तोमर’ के नायक, तिग्मांशु के बहुत पुराने दोस्त अौर अदम्य अभिनय क्षमता के धनी नायक इरफ़ान ख़ान यहाँ ‘राजा भैया’ की मुख्य भूमिका में अपने तमाम जलवों के साथ लौट अाये हैं। सचेत फिल्म की तरह ‘साहिब, बीवी अौर गैंग्स्टर रिटर्न्स’ अपना सलीका अौर तमीज़ खोती नहीं लगती अौर साहिब की भूमिका में जिम्मी शेरगिल के संवाद, “अाप तो डेमोक्रेट की तरह बात करने लगे कुँवर जी” जैसे संवादों के साथ अपनी गंभीर राजनैतिक समझ साफ़ स्पष्ट करती चलती है। लेकिन तभी वो अाता है अौर मुख्यधारा हिन्दुस्तानी सिनेमा को लेकर मेरे विश्वास को फिर से हिला जाता है।
दिक्कत सिर्फ यह नहीं है कि फिल्म में अाया अाइटम साँग फिल्म में पूरी तरह मिसफिट है अौर फिल्म की गति में अवरोधक का काम करता है, दिक्कत उसके होने से निकलने वाले उन तमाम अर्थों से भी है जो इस माध्यम में निर्देशक के सर्वोच्च होने के अधिकार को चुनौती देते हैं। अगर यहाँ निर्देशक के शब्द अंतिम शब्द होते तो बेशक वो अाइटम साँग फिल्म में नहीं होता। लेकिन यहाँ समझने वाला खेल सिक्वेल बनाने का वो मुनाफेभरा धंधा है जिसमें फिल्म निर्माण कम्पनियों ने अपनी सदा से चली अायी भेड़चाल की अादत को छुपाने का एक सुंदर बहाना ढूंढ लिया है। अौर इस अादत के झांसे में अाकर अाप जब एक बार सरेंडर करते हैं तो फिर पैसा कमाने की अल्पदृष्टि सोच के अागे कुछ अौर सोच पाना मुश्किल होता है। इसके सबूत के तौर पर अाप भट्ट कैम्प की भिन्न नामों से अाती उन तमाम फिल्मों को देख सकते हैं जिनमें ‘ज़्यादा अच्छे’ होने का रिस्क जानबूझकर नहीं लिया जाता, क्योंकि ऐसी अफवाह गरम है कि अच्छी फिल्में ज़्यादा पैसा नहीं कमातीं।
मुझे वो गीत देखते हुए लगातार हैबिटैट में मेरे सामने की कुरसी पर बैठे तिग्मांशु का वो तमतमाया हुअा चेहरा याद अाता रहा, जो कथा से समझौता कर अश्लीलता परोसने का अारोप लगाने भर से उभर अाया था। हालाँकि वो गीत भी अाज के सिनेमाई पैमाने पर बड़ा ‘सभ्य’ गिना जायेगा, लेकिन मेरे लिए बड़ा सवाल यही है कि इसे स्टोरी में फिट करते हुए खुद तिग्मांशु के चेहरे पर क्या भाव होंगे? शायद वही जो गीत में इधर से उधर अपनी जान बचाकर भागते राज बब्बर के किरदार के चेहरे पर थे? क्या यह निर्देशक नाम की सर्वोच्च ऐजेंसी की सत्ता को चुनौती नहीं? अौर क्या इसके लिए हमें वैसे ही चिंतित नहीं होना चाहिए जैसे हम समाचार जगत में संपादक की सर्वोच्च सत्ता के अंत के विचार से चिंतित होते रहे हैं?
क्योंकि निर्देशक की सर्वोच्च सत्ता का होना उत्तरदायित्व का होना भी है। अौर सिनेमाई कथाअों में ‘मैं’ का बचा रहना भी है। अौर नायक के अाभामण्डल के इर्द-गिर्द घूमते इस उद्योग जगत में यह निर्देशक रूपी ‘मैं’ का बचा रहना बहुत ज़रूरी है।
‘पान सिंह तोमर’ को राष्ट्रीय पुरस्कार की घोषणा होती है। मैं समझ नहीं पाता कि जिस हफ्ते तिग्मांशु जैसे निर्देशक की सिनेमा के परदे पर खुद उनकी ही फिल्म पर पैसा लगानेवालों के हाथों हार हुई हो, वहाँ इस पुरस्कार का जश्न कैसे मनाया जाये? एक अौर हम निर्देशक को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित कर रहे हैं, वहीं दूसरी अोर उसी हफ्ते प्रदर्शित हुई उसकी फिल्म को अाइटम नंबर के बिना पूरा होकर सिनेमा के परदे पर अाने का मौका भी नहीं दे रहे। याद रखिए, अगर कोई ‘साहिब, बीवी अौर गैंग्स्टर’ किसी ‘पान सिंह तोमर’ के लिए प्रदर्शन पूर्व का काँधा बन सकती है तो कोई ‘साहिब, बीवी अौर गैंगस्टर रिटर्न्स’ किसी अौर अनदेखी ‘पान सिंह तोमर’ के निर्माण से पूर्व ही क़त्ल कर दिए जाने की सूचना भी हो सकती है। चाहे वादे छोटे हों लेकिन उन्हें पूरा होना चाहिए। क्योंकि वही पूरे हुए वादे महत्वाकांक्षाअों को उड़ने का खुला क्षितिज उपलब्ध करवाते हैं।
*****
साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश’ के अप्रैल अंक में प्रकाशित
I absolutely endorse your point Mihir. Watching Dravid go over the top in a T-20 is painful to say the least.
But the problem with people like you and me receeding from the imaginary list is that nobody cares and would give a damn about it. And all that we would be left would be Item songs and nothing else. As long as people don’t realize that it is a travesty, they would continue with it.
I believe, maybe too optimistically, that the solution lies in swelling our ranks and creating a viable alternative for people like Tigmanshu to make movies that are undiluted. The media has done a great job in promoting Anurag Kashyap and Dibakar Banerjee (of course only after their movies made money), and that has led to a growing realisation that there is space for alternatives too.
That movement has to be exaggerated by people who care, even if in small ways. Someone like you, who writes so beautifully, needs to therefore read by more people, to make them realize things that are not obvious.
On a slightly pessimistic note, as we lap up the American model of ultra-consumerism, such things are only bound to happen more often :-(.
That’s the common theory Arun what you talked. That “make a movie for the money and the next for themselves”. Just a week before I was watching a documentary made by a friend on Sudhir Mishra and that’s what he said in his own way, that if the option is between ‘making a film with some compromise’ and ‘not making a film’ then I rather want to make whatever in possible to make in this scenario. And that dream thought that a somewhat commercial film will ultimately make the way for ‘that’ pure film which is in director’s thoughts right now. But what I’m arguing here is that many times that won’t happen. Many times this ‘little compromised’ film losses both side of audience because it’s like Dravid trying to play over-the-infield shots according to the need of T20 cricket. This attempt is doomed in the very beginning because it’s actually asking wrong person the wrong question.
But leave this talk, my bigger concern here is that what is this system we are creating in which a player like Dravid asked to play this tamasha cricket, a director like Tigmanshu asked to accomodate item number in his film. And this all in the name of this so called viewer – us. If nothing else, I want to withdraw my name from this imaginary viewer list.
Very nice article Mihir. I have been following your blog for sometime and i think the insights are always fresh and unique.
I am a big fan of Tigmanshu and believe him to be unique in his choice of milieu and characters. His characters are some of the most well etched and quirkiest in recent past. I watched ‘Haasil’ way back and was thoroughly shaken by Irfan Khan’s performance. I regard it to be one of the best movies of the last decade.
Similarly Nana Patekar’s music obsessed character in Shagird and Jimmy Shergill’s roles were multi-dimensional and not stereotypical as they tend to be in Hindi Cinema. As such i was also kind of disappointed by the use of a cliched Item song that we would not usually associate with him.
However in his defence, i guess its a tight rope that artists and creators walk and an endeavour as costly as a movie will require some compromises along the way. Like some legendary directors would do, make a movie for the money and the next for themselves.
People like him have brought the rustic hinterland on the screen with much more authenticity then ever before. The freshness of this landscape and the variety possible in a land as diverse as India provides him with a huge landscape to paint in. After listening to the wonderful dialect of Bundelkhand in Paan Singh Tomar, i would love to see some more versions of Hindi on the screen. I believe it just liberates the language from the tyranny of standardised narratives.
I hope as a fan, that Tigmanshu continues to make movies that continue to enthrall and excite us and hopefully steer clear of cliches like these. I believe the market for movies like his is just about opening up and the trend despite the recent spate of 100 Cr movies, is going to be more towards engaging movies rather than bland soulless ones. Amen!
When I saw this film in the first week of its release here in USA (2012) I said to myself and my wife and children that this would be a successful film.I do not know why you as makers had the doubts.Good films are still accepted very well by our discerning audience.
bahut hi achhi samalochna ki hai Aapney Tigmanshu Ji ki teeno films ki .
dilli se ek saaf suthri magazine SARITA nikalti hai. lekin kabhi 2 woh bhi Title page par kisi model ki photo chhap deta hai yeh sochkar ke shaayad ussi ko dekhkar koi naya pathak pehli baar khareed le. asha karta hoon ki ab tigmanshu
ji koi samjhauta na karna pade. all the best for tigmanshu G