पिछले दिनों रिलीज़ हुई ‘आई एम 24’ पुरानी फ़िल्म है। लेकिन इसके बहाने मैं पुन: दोहराता हूँ उस व्यक्ति के काम को जिसने कभी अनुराग कश्यप के साथ मिलकर ’सत्या’ लिखी थी और हमारे सिनेमा को सिरे से बदल दिया था। न जाने क्या हुआ कि हमने उसके बाद सौरभ शुक्ला की लेखकीय काबिलियत को सिरे से भुला दिया और उनपर से, उनके कामपर से अपनी निगाह हटा ली।
सौरभ शुक्ला ने अपनी निर्देशकीय पारी की शुरुआत जिस फ़िल्म से की थी, वो मुझे अभी तक याद है। दो घंटे की वो टेलिफ़िल्म उन्होंने नाइन गोल्ड के ’डाइरेक्टर्स कट’ के लिए बनाई थी और नाम था ’मिस्टर मेहमान’। छोटे कस्बे के जड़ सामाजिक संस्कारों के बीच बहुत ही खूबसूरती से पुराने रिश्तों में नएपन की, आज़ादी की बात करती ’मिस्टर मेहमान’ में नायक रजत कपूर थे और वहाँ से चला आता रजत कपूर और सौरभ शुक्ला का यह साथ ’आई एम 24’ तक जारी है। लेकिन सच यह भी है कि इसके आगे सौरभ शुक्ला ने जो फ़िल्में निर्देशित कीं, उनमें किसी को भी उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता। शायद वह समय ही ऐसा था। ’सत्या’ का एक लेखक अपनी रचनात्मक प्रखरता से समझौता न करने का प्रण लिए बार-बार प्रतिबंधित होता रहा और शराब के नशे में डूब गया, और दूसरे लेखक को उसकी प्रतिभा के साथ न्याय कर पाए, ऐसा कोई मौका दे ही नहीं पाया हमारा सिनेमा।
लेकिन इन समझौतावादी सिनेमाओं की श्रृंखला के बीच सौरभ लिख रहे थे, जिसे हमने नाकाबिलेगौर समझा। इसी बीच मैंने उन्हें पहली बार देखा था नज़दीक से, इतना नज़दीक कि हाथ बढ़ाकर छू सकता था। एक शाम ‘पृथ्वी’ पर भीम की भूमिका में। प्रीमियर शो था। समय था 2002 की गर्मियों का अौर नाटक था “संगीता का नीले चैक्स वाला स्वेटर”, जिसकी सबसे साफ़ याद अब मेरे पास यही है कि निर्देशक मकरंद देशपांडे उसकी शुरुअात में एक बड़ी सी टार्च लेकर स्टेज पर अाए थे। यह वो समय था जब हम स्कूल ख़त्म होने के बाद पहली बार भाभी के घर घूमने गए थे। तीन लोगों से मिलकर बने स्टेज प्ले में वे पूरे समय स्टेज पर थे अौर स्मृति के किसी कोने में अाज भी गुदा है ‘अर्जुन’ बने अब्बास टायरवाला का वो ज़ोर से चिल्लाकर कहना, “क्यूँकि भीम बहरा है”। बेशक उस वक़्त स्कूल ख़त्म होने के बाद की अाज़ादी भरी छुट्टियाँ मनाने अाए लड़के के लिए बम्बई उजला शहर था, लेकिन हमारे पास तब भी अंधेरे थे। मैं लौटते हुए अहमदाबाद जाने से डर रहा था अौर मेरे भाई ने जो नई-नई दाढ़ी बढ़ाई थी, तमाम घरवाले चाहते थे कि वो गुजरात जाने से पहले उसे साफ़ करवा ले। हमारे बाहर हमारे शहर तेज़ी से अपनी सूरत बदल रहे थे अौर कुछ हमारे भीतर भी बदल रहा था, शायद हमेशा के लिए।
लेकिन उन समझौतावादी सिनेमाओं की ऋंखला के बीच सौरभ लिख रहे थे, जिसे हमने नाकाबिलेगौर समझा। आज जब मैं पलटकर देखता हूँ तो उनकी लिखी ’दिल पे मत ले यार’, ’मिथ्या’ और ’आई एम 24’ उसी ’सत्या’ की छूटी कड़ियाँ दिखाई देती हैं जिसने हमारा शहर मुम्बई को देखने का नज़रिया ही बदल दिया था। सौरभ शुक्ला की लिखी फ़िल्में ’मुम्बई’ के भीतर मुम्बई का ’अन्य’ रचती हैं। वो आउटसाइडर जिसको शहर कभी अपनाता नहीं, गले से नहीं लगाता। उसके भीतर सत्तर के दशक का, समूचे शहर से अपनी माँ के अपमान का बदला लेता ’एंग्री यंग मैन’ विजय है तो राजकपूर के समय का ईमानदार, भोला राजू भी। लेकिन वक़्त बदल चुका है और उनके आक्रोश और ईमानदारी अब मायानगरी में दर्शक की भावनाओं को नहीं जगाते, सिर्फ़ हंसी पैदा करते हैं।
सौरभ शुक्ला द्वारा लिखी और हमारे द्वारा ’हास्य फ़िल्मों’ की श्रेणी में डाली गई यह फ़िल्में दरअसल हमारे दौर की त्रासदियाँ हैं। या शायद उनका ‘हास्य फ़िल्मों’ की श्रेणी में डाल दिया जाना ही हमारे समय की त्रासदी का सबसे बेहतर प्रतिबिम्ब है। ’आई एम 24’ के एक दृश्य में फ़िल्म का मुख्य किरदार, जो पेशे से एक संघर्षरत लेखक है और अभी लड़की के सामने झूठा दावा कर रहा है कि ’देवदास’ उसने लिखी है, कहता है, “मैंने तो कहा संजय को यार अच्छा-खासा क्लासिकल नॉवल है, क्यूं उसकी ऐसी की तैसी फेर रहे हो…” और यह सुनकर सामने बैठी लड़की जवाब में कहती है, “मुझे तो अच्छी लगी थी”। किरदार फिर बोलता है, “अच्छी लगी ना! यही तो संजय की ख़ासियत है। वो ऐसी की तैसी फेर रहा होता है तो भी अच्छी फ़िल्म बना लेता है।“ यहाँ यह लेखक किरदार, जो मायानगरी में झूठ और सच के चक्रव्यूह में उलझा अपनी ईमानदारी को बचाने की असफ़ल कोशिश कर रहा है, फ़िल्म से बाहर निकल अपने समय के ऊपर और उसके तमाम छलावों के ऊपर कमेंट करता लगता है। लेकिन अन्तत: यह उस लेखक के ही अपने समय और समाज में निरंतर अप्रासंगिक होते चले जाने की कथा है।
लेकिन हास्य फ़िल्मों से भरे इस ’भेजा फ़्राई’ समय में हम सौरभ शुक्ला की फ़िल्मों को कैसे अलग पहचानें? उनकी फ़िल्में अधूरी हैं, उनमें एक सख़्त सा अनगढ़पन है जो शायद उनकी ख़ूबी भी है और ख़ामी भी। लेकिन उन्हें पहचानने की सूत्र उनके भीतर तलाश करने से मिल ही जाते हैं। ’आई एम 24’ में जहाँ दुनियादारी सीखा दोस्त अपने ईमानदार दोस्त को ’सत्यवादी हरिशचन्द्र’ होने का ताना देता है तो संवाद वहीं नहीं रुकता। उसे अपने ’सत्यवादी हरिश्चन्द्र’ दोस्त को आगे अभी यह और बताना है कि अन्त में राजा हरिशचन्द्र को भी अपनी ईमानदारी के चलते चाण्डाल बनना पड़ा था, और वो भी ऐसा ही ’चाण्डाल’ बन अपने चारों ओर मौजूद सबको अग्नि की चिता में जला रहा है। अपने संदर्भों की यही दुर्लभ पहचान इसे सौरभ शुक्ला का लेखन बनाती है। उनकी फ़िल्मों का हास्य स्याह हास्य है और उनकी लिखी कहानियाँ सदा किसी दोज़ख़ की ओर बढ़ती दिखाई देती हैं। यह किसी ऐसी सुरंग की यात्रा सरीखी हैं जिसका कोई उजला सिरा नहीं।
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इस टिप्पणी का संशोधित रूप साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित हुअा है। उनकी लिखी ‘मिथ्या’ देखते हुए कभी मेरे पसंदीदा कहानीकार उदय प्रकाश की कथा ‘तिरिछ’ याद में कौंधी थी। ‘मिथ्या’ पर एक पुरानी टिप्पणी यहाँ देखें।