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पहुँचना ’127 आर्स’ तक बारास्ते ’आमिर’ के

127 hoursयह तुलना जैसे चांद और सूरज की जोड़ी बनाने जैसी है. एक दूसरे का विलोम होते हुए भी जहाँ से हम उन्हें देखते हैं, वे एक-दूसरे के पूरक नज़र आते हैं. दूसरा पहले से जितना दूर है उतना ही बड़ा भी है. पहला जब दूसरे के सामने आ जाता है तो हम दूसरे को आँखें खोल-खोल देखते हैं. जैसे चंदा मामा सूरज का ताला खोलने वाली चाबी हों. मेरे लिए डैनी बॉयल की ’127 आर्स’ की चाबी हमारे ही घर के चंदा ’आमिर’ में छिपी है. जैसे हंसल मेहता की ’दिल पे मत के यार’ रजत कपूर की ’मिथ्या’ के लिए नेगेटिव थी, ठीक वैसे ही ’127 हार्स’ की नेगेटिव राजकुमार वर्मा की ’आमिर’ है. यह एक ही कथा संरचना को दो भिन्न वातावरण में परखने जैसा है.

इन कहानियों का मूल विचार एक है. एक आम आदमी जिसकी साधारण सी ज़िन्दगी का एक सादा दिन अचानक ख़ास में बदल जाता है. परिस्थितियाँ उन्हें नीचा दिखाती हैं, जैसे कोई और अदृश्य शक्ति उनकी किस्मत लिख रही हो. लेकिन वहीं किसी निर्णायक क्षण में वे अपने भीतर के ’असाधारण’ को पहचानते हैं, बाज़ी पलट देते हैं. दूर से वीभत्स दिखती यह कहानियाँ दरअसल प्रेरक कथाएं है. इनके बीच अंतर बस इतना है कि जहाँ आमिर भीड़ में होते भी सदा अकेला है वहीं एरॉन अकेला होकर भी हमेशा अपनों के बीच है. आमिर को आप भीड़ भरे शहर के बीचोंबीच बदहवास भागता देखते हैं. अनगिनत अनजान घूरते चेहरों का सामना करता हुआ. शहर की इस भीड़ के बीच वो नितांत अकेला है. इसके विपरीत एरॉन ऐसे बीहड़ में जा फंसा है जहाँ रोज़ सुबह आती एक झपट्टामार चील के अलावा जीवन के चिह्न विरल हैं. लेकिन एरॉन को अपनों का साथ और उसकी कीमत पहचानने के लिए शायद ऐसे ही किसी बीहड़ की ज़रूरत थी. एक चट्टान का टुकड़ा जो सदियों से उसका इंतज़ार करता था आज उसकी ज़िन्दगी की कहानी लिखना चाहता है. लेकिन एरॉन वहाँ भी अकेला नहीं है, उसके साथ उसकी सारी दुनिया है. वो तय करता है कि अपनी कहानी वो खुद ही लिखेगा. यह संयोग नहीं है कि तकरीबन सारी फ़िल्म एक किरदार और एक लोकेशन से बंधी होने के बावजूद फ़िल्म की शुरुआत बड़े जनसमूहों से बनते कोलाज से होती है. एरॉन उस बीहड़ खाई में अकेला नहीं है. उसके साथ उसकी पूरी दुनिया है.

डैनी ’स्लमडॉग मिलेनियर’ के साथ हिन्दुस्तान आए थे. और अब नई फ़िल्म के साथ सबकुछ नहीं बदला है. सबसे ख़ास चीज़ जो इन दोनों फ़िल्मों को जोड़ती है वो दो हिन्दुस्तानी लड़के हैं जिन्हें साज़ों की सच्ची सोहबत की नेमत हासिल है. अमित त्रिवेदी का संगीत ’आमिर’ को एक बिलकुल नया स्वर प्रदान करता है वहीं रहमान ’127 हार्स’ को उसका सही रूप-रंग देते हैं. इन दोनों जादूगरों की एक इकसार खासियत है. यह दोनों यहाँ पूरी तरह निर्देशक के संगीतकार हो जाते हैं और कथा के उन खाली छूटे हिस्सों को अपने संगीत से भरते हैं जिन्हें शब्दों या दृश्यों में कह पाना मुमकिन नहीं. अमित त्रिवेदी अपने संगीत से इस स्याह फ़िल्म में थोड़ा फक्कड़पना मिलाते हैं, जैसे कबीर की कबिराई के रंग भरते हैं. और रहमान का संगीत कथा का ’अन्य’ रचता है. अकेला पात्र बातें कम करता है, गुनगुनाता ज़्यादा है. जैसा निर्देशक की चाह रही होगी, उनके संगीत में घटनाएं होती हैं, निराशाएं आती हैं, दिल टूटता है, इरादा फिर से जुड़कर खड़ा होता है. जैसा रॉजर इबर्ट लिखते हैं, “जो दर्शकों के लिए सबसे दहलाने वाला क्षण है वो दरअसल उन्हें दिखाई नहीं देता, सुनाई देता है.”

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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के मार्च अंक में प्रकाशित. पोस्टर साभार : Simran Singh की रचना.

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Mihir sir,
pad ker accha lga, kafi rochak lekh hai. 127h or aamir ko ek sath jodne se samaj or prakarti mai vyakti ka anokha sangarsh dikhai deta hai. dono ne hi nayak k haat baandh rakhe the. rochak yeh hai ki dono ko nirnay ki shakti b wahi dete hai jisse wo lad rahe the…………. or aunt mai ye ladai dono khud se ladte hai. ek khud ko khatam kerta hai or dusara ny suruat k lia apne haat ko caat deta hai…….

शुभम,

बिलकुल. ’आमिर’ का परिवेश और ट्रीटमेंट बहुत अलग है और यही बात मैंने कही है. दो एकदम विपरीत परिवेश की कहानियाँ होते हुए भी दोनों का मूल कथातत्व एक है, यही तो पूरा argument है. और अंत में तुमने कुछ मुश्किल अवधारणाओं के साथ जो सवाल पूछा है, उसका जवाब बड़ा आसान सा है. नहीं :) सीमित नहीं है. अर्थ से बाहर भी बहुत संभावनाएं हैं!

मिहिर, ये चाबी तो गज़ब की है.
आमिर ने आपने असाधारण को पहचाना है. वो एक कौंध का क्षण है पर एरोन ? उसने तो खुद के होने और न होने के बीच से होना चुना है. कई बार जब हम अंतर्पाठीयता कि बात करते हैं तो दो अलग रचनाओं की इंटेंसिटी आपस में टकराती है. मुझे लगता है कि “127 आवर्स” और “आमिर” निश्चय करने की परिस्थिति में एक से हैं. उनके सन्दर्भ की आपने बेहतरीन व्याख्या की है लेकिन आमिर का परिवेश, उसका ट्रीटमेंट बहुत अलग है. वहां कैमरा भावुक होता है जबकि 127 आवर्स में ट्रेजिक. मुझे ये भी पूछना था कि डीकंस्ट्रक्ट करते हुए इंटरटेक्स्चुअलिटी का आधार क्या होता है ? क्या यह सिर्फ नयी व्याख्या और नयी अर्थ संभावनाओं तक ही सीमित है ?

एकान्त में रह लेने की मानसिक शक्ति अन्तरतम के न जाने कितने अध्याय खोल देती है।

रोचक पोस्ट के लिए धन्यवाद. बहुत लम्बे समय से मैंने कोई फिल्म नहीं देखी है. रोजर ईबर्ट की महानतम फिल्मों की लिस्ट से चुनकर पचास से भी ज्यादा फ़िल्में खरीद या डाउनलोड कर चुका हूँ पर देखने की फुर्सत नहीं निकाल पा रहा हूँ. यह पोस्ट पढ़कर इस फिल्म में रूचि हो रही है और कोशिश करूंगा इसे जल्द से देखने की.
आमिर अच्छी फिल्म थी.