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चपलताएं और ईमानदारियाँ : द व्हाइट बलून

The-White-Balloonयह एक छोटी बच्ची की नज़र से देखी गई दुनिया है. ईरानियन निर्देशक ज़फ़र पनाही की ’द व्हाइट बलून’ हमें अच्छाई में यकीन करना सिखाती है. ईरान से आयी इन फ़िल्मों में कोई ’विलेन’ नहीं होता. बस औसत जीवन की उलझनें होती हैं और उनसे निकली विडम्बनाएं. किसी मितकथा सी खुलती इस कहानी की नायिका एक सात साल की बच्ची है जिसका नाम है रज़िया. कहानी कहे जाने का दिन भी ख़ास है. ईरान में नया साल बस आने ही वाला है. रज़िया अपनी माँ के साथ बाज़ार आई है और यहीं उसका दिल दूर शीशे के पार तैरती एक सुनहरी मछली पर आ जाता है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि माँ को कैसे मनाया जाए? बाज़ार से घर तक वह रूठने-मनाने की सारी जुगत लगाती है, लेकिन माँ तो फिर माँ हैं. बड़ा भाई अली आता है और बहन की उदासी उससे देखी नहीं जाती. इस बीच वहीं-कहीं कुढ़ते-खीजते पिता भी हैं जो परदे पर कभी दिखते तो नहीं हैं लेकिन उनकी सत्ता घर के माहौल में घुली नज़र आती है.

खैर. माँ आखिर माँ हैं, मान जाती हैं. पैसा रज़िया के हाथ में थमाया जाता है और साथ हिदायतों की पोटली भी. और रज़िया फुदकती हुई दौड़ जाती है अपनी प्यारी मछली को अपना बनाने. लेकिन कमबख़्त रास्ते में एक भरा-पूरा ’बाज़ार’ पसरा है. भरमाता है, असल काम भुलाता है. बड़ों की दुनिया को रज़िया हैरत से देखती है. रुकती है, उलझ जाती है, फिर आगे बढ़ती है. समझ जाती है कि बड़ों की दुनिया में आपके पास ’पैसा होना’ सबसे ख़ास है. रज़िया अपनी प्यारी मछली तक पहुँचने की इस नाटकीय और कई दिलचस्प किरदारों से मिलकर बनती यात्रा में पैसा खोती भी है, पाती भी है. अंत तक आते हुए वह आप और हमें भी उसकी भोली उलझनों का साथी बना लेती है.

अब्बास किरोस्तामी के सहायक रहे ज़फ़र पनाही के कैमरा फ्रेम उनसे ज़्यादा चपल हैं. यह उनकी पहली ही फ़ीचर फ़िल्म है. यह ईरान की गलियाँ और चौक-चौबारे साथ कुछ यूँ दिखाते हैं जैसे उन्हें भी किरदारों सा महत्व देते हों. ’द व्हाइट बलून’ असल समय की रफ़्तार से चलती है. दो घंटे से भी कम के इस पूरे घटनाचक्र में लगातार आप नए साल के आने की आहट सुन सकते हैं. इस कारीगरी को और पुख़्ता करते हुए पनाही पहले ही दृश्य में फ़िल्म के तमाम मुख्य किरदारों की एक झलक दिखाते हैं. यहाँ सभी उन काम-धंधों की शुरुआत कर रहे हैं जिन्हें साथ लेकर वे आगे रज़िया की उलझनों से टकराएगें और अपनी बनते उसकी मदद भी करेंगे. फ़िल्म के माध्यम से हम ईरानी जीवन का एक औसत दिन बहुत नज़दीक से देख पाते हैं. रोज़ाना चलते कार्य-व्यापार, लेन-देन, बाज़ार की बहसबाज़ियाँ. एक पूरा दिन अपनी तमाम साधारणताओं के साथ, अपनी तमाम विलक्षणताओं के साथ.

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फ़िल्म का यह छोटा सा परिचय हाल ही में संपन्न हुए ’गोरखपुर फ़िल्म उत्सव’ की स्मारिका के लिए लिखा गया था.

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statement of jafar panahi on his prosecution by iranian govt

फिल्मकार की दुनिया वास्तविकता और स्वप्नों के बीच के अंतर संबंधों से निर्मित होती है.यह आस पास बिखरी सच्चाइयों को फिल्म निर्माण के लिए प्रेरणा के तौर पर ग्रहण करता है, फिर अपनी कल्पना शक्ति से इनमें रंग भरता है और उम्मीदों और स्वप्नों को अच्छी तरह से मिला कर फिल्म को जन्म देता है.
सच्चाई ये है कि मुझे पिछले पाँच सालों से फिल्म निर्माण से वंचित रखा गया है और अब तो आधिकारिक तौर पर आने वाले अगले बीस सालों तक मुझे फिल्मों को भूल जाने का फ़रमान जारी किया गया है.पर मुझे मालूम है कि अपनी कल्पना में मैं अपने स्वप्नों को फिल्म की शक्ल देता रहूँगा.सामाजिक रूप में चैतन्य फिल्मकार होने के नाते मैं अपने आस पास के लोगों के दैनिक जीवन और उनकी चिंताओं को फिल्म की विधा में चित्रित नहीं कर पाऊंगा पर मैं ऐसे स्वप्नों को अपने से परे क्यों धकेलूं कि आने वाले बीस सालों में आज के दौर की तमाम समस्याएं सुलझ जायेंगी और इसके बाद मुझे फिर से फिल्म बनाने का अवसर मिला तो अपने देश में व्याप्त अमन और तरक्की के बारे में फिल्म बनाऊंगा.
सच्चाई ये है कि उन्होंने मुझे बीस सालों के लिए सोचने और लिखने से मना कर दिया पर इन बीस सालों में वे मुझे स्वप्न देखने से कैसे रोक सकते हैं— इन बीस सालों में ऐसी पाबंदियाँ और धमकियाँ काल के गर्त में समा जायेंगी और इनकी जगह आज़ादी और मुक्त चिंतन की बयार बहने लगेगी.
उन्होंने मुझे अगले बीस सालों तक दुनिया की ओर नजर उठा कर देखने की मनाही कर दी.मुझे पूरी उम्मीद है कि जब मैं इसके बाद खुली हवा में साँस लूँगा तो ऐसी दुनिया में विचरण कर सकूँगा जहाँ भौगोलिक,जातीय और वैचारिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा और लोगबाग अपने विश्वासों और मान्यताओं को संरक्षित रखते हुए मिलजुल कर अमन और आज़ादी से जीवन बसर कर रहे होंगे.
उन्होंने मुझे बीस सालों तक चुप रहने की सजा सुनाई है.फिर भी अपने स्वप्नों में मैं उस समय तक शोर मचाता ही रहूँगा जब तक कि निजी तौर पर एक दूसरे को और उनके नजरियों को धीरज और सम्मान से सुना नहीं जाता.
अंततः मेरे फैसले की सच्चाई यही है कि मुझे छह साल जेल में बिताने पड़ेंगे.अगले छह साल तो मैं इस उम्मीद में जियूँगा ही कि मेरे सपने वास्तविकता के धरातल पर खरे उतरेंगे.मेरे अरमान हैं कि दुनिया के हर कोने में बसने वाले फिल्कार ऐसी महान फिल्म रचना करेंगे कि जब मैं सजा पूरी होने के बाद बाहर निकलूं तो मैं उस दुनिया में साँस और प्रेरणा लूँ जिसके बनाने के स्वप्न उन्होंने अपनी फिल्मों में देखे थे.
अब से लेकर आगामी बीस सालों तक मुझे जुबान न खोलने का फ़रमान सुनाया गया है…मुझे न देखने का फ़रमान सुनाया गया है…मुझे न सोचने का फ़रमान सुनाया गया है…फ़िल्में न बनाने का फ़रमान तो सुनाया ही गया है.
बंदिश और मुझे बंदी करने वाले हुक्मरानों की सच्चाई से मेरा सामना हो रहा है.अपने स्वप्नों को जीवित रखने के संकल्प के साथ मैं आपकी फिल्मों में इनके फलीभूत होने की कामना करता हूँ— इनमें वो सब मंजर दिखाई दे जिसको देखने से मुझे वंचित कर दिया गया है.

Hello,
Mihir,
i came first time on your blog and went through. i like the idea to analytical spirit of yours but i think ti me is changing so fast and there are very few people in India who’s writing on film medium, Spl. in Hindi.
So i would like to share that we should do much and more sharpen write-up in this area. other-wise its became very general blog of writing.
thanks
Keshav Kumar

फिल्म नहीं देखी मिहिर लेकिन तुम्हारा लिखा पढने में अच्छा लगता है .

जब औसत जीवन ही इतना कठिन हो तो खलनायक की क्या आवश्यकता?