व्यंग्य हिन्दी सिनेमा का मूल स्वर नहीं रहा है. इसीलिए हजारों फ़िल्मों लम्बे इस सिनेमाई सफ़र में बेहतरीन कहे जा सकने लायक सटायर कम ही बने हैं. फिर भी हिन्दी सिनेमा ने समय-समय पर कई अच्छी कॉमेडी फ़िल्में दी हैं जिन्हें आज भी देखा पसंद किया जाता है. अच्छी कॉमेडी फ़िल्म की सफ़लता आज भी यही है कि उसे हम अपनी ज़िन्दगी और उसकी उलझनों के कितना करीब पाते हैं. और जो फ़िल्म ऐसा कर पाती है वो आज भी हमारा दिल जीत लेती है और क्लासिक का दर्जा पाती है.
कोई भी चयन अपने आप में पूर्ण नहीं होता और ठीक इसी तरह यहाँ भी यह दावा नहीं है. जैसे आलोचक पवन झा मानते हैं कि किशोर और मधुबाला की ’हाफ़ टिकट’ में दोनों की कैमिस्ट्री और हास्य ’चलती का नाम गाड़ी’ से भी आला दर्जे का है. इसी तरह नम्रता जोशी का कहना है कि पंकज पाराशर की ’पीछा करो’ एक बेहतरीन हास्य फ़िल्म थी जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए. कई सिनेमा के चाहनेवाले पंकज आडवानी की अब तक अनरिलीज़्ड फ़िल्म ’उर्फ़ प्रोफ़ेसर’ को कल्ट क्लासिक मानते हैं तो बहुत का सोचना है कि कमल हासन की ’पुष्पक’, ’मुम्बई एक्सप्रेस’ और ’चाची 420’ के ज़िक्र के बिना कॉमेडी फ़िल्मों का कोई भी चयन अधूरा है. फिर भी, तमाम संभावनाओं और सही प्रतिनिधित्व पर विचार के बाद मेरी ’टॉप टेन’ कॉमेडी फ़िल्में हैं…
पांच रुपैया बारह आना…
‘चलती का नाम गाड़ी’ हिन्दी सिनेमा की सबसे मशहूर तीन भाइयों की जोड़ी अशोक कुमार, किशोर कुमार और अनूप कुमार का धमाल है. गोल्डन फ़िफ़्टीज़ की यह फ़िल्म अपनी और समकालीनों की तरह एक संगीतमय कॉमेडी है. फ़िल्म में संगीत दिया है एस.डी. बर्मन ने और बोल हैं हज़रूह सुल्तानपुरी के. शायद पहली बार गाने के बोलों में इस तरह के प्रयोग किए गए हैं जिनसे बड़ा खूबसूरत हास्य सृजित होता है. दादामुनि अशोक कुमार ने अपनी गंभीर अभिनेता की छवि को इस फ़िल्म के साथ बख़ूबी तोड़ा. मधुबाला और किशोर की बेजोड़ कैमेस्ट्री और कॉमिक टाइमिंग से रची यह फ़िल्म हिन्दी सिनेमा का सच्चा हीरा है.
पड़ोसन (1968) –
ये क्या रे घोड़ा चतुरा घोड़ा चतुरा…
दो हरफ़नमौला आमने सामने. पड़ोसन का असली मज़ा किशोर कुमार और महमूद की जुगलबन्दी में है. धुरंधर गलेबाज़ों के रोल में किशोर और महमूद की खींचा-तानी ’एक चतुर नार’ और किशोर के गाए ’मेरे सामने वाली खिड़की में’ की मिठास भुलाना मुश्किल है. दरअसल गाने इस गोल्डन क्लासिक की यूएसपी हैं. यह मैलोडी में पिरोया हास्य था जिसे आर. डी. बर्मन का बदमाश संगीत आगे बढ़ाता है. हिन्दी सिनेमा इतिहास में हुए सबसे ऊँचे कद के कॉमेडियन महमूद न सिर्फ़ इस फ़िल्म में अदाकारी कर रहे थे, बल्कि वे इस फ़िल्म के निर्माता भी थे. और गवैये किशोर की साइड किक बने तीन तिलंगों – बनारसी, लाहोरी और कलकतिये की भूमिका में रंग भरते मुकरी, राज किशोर और केश्टो मुखर्जी की अदाकारी को आप कैसे भूल सकते हैं.
गोलमाल (1979) –
आपका भट्टी किदर है?
हिन्दी सिनेमा में सबसे ज़्यादा रिपीट वैल्यू ॠषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों की है और ’गोलमाल’ उनमें सबसे ऊपर है. ’गोलमाल’ भी ऋषिदा की फ़िल्मों की उसी परंपरा की संवाहक है जहाँ ज़हीन हास्य में पिरोकर कहानी जिन्दगी से जुड़े किसी प्रगतिशील मूल्य को स्थापित करती है. व्यंग्य उस पुरानी पीढ़ी पर है जो रूढ़ियों और बासी परंपराओं का सांप निकल जाने के बाद भी लकीर पीट रही है. कथा नायक अमोल पालेकर हैं जिन्होंने इस भूमिका के लिए उस साल का ’बेस्ट एक्टर’ फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीता था. यहाँ एक ऐसा डबल रोल है जिसे स्वीकार करने के लिए आपको तर्क का सहारा नहीं छोड़ना पड़ेगा.
फ़िल्म की जान हैं उत्पल दत्त, ’सेठ भवानी शंकर’ की भूमिका में जो उर्मिला ट्रेडर्स के मालिक हैं और मूँछों के जुनूनी शौकीन हैं. बुआ जी के रोल में शुभा खोटे ने भी उत्पल दत्त का ख़ूब साथ निभाया है. और सबसे ख़ास है सिर्फ़ दो मिनट के एक स्पेशल अपीयरेंस में केश्टो मुखर्जी का आना और सेठ भवानी शंकर से पूछना, “आपका भट्टी किदर है?” ’गोलमाल’ हिन्दी सिनेमा की ’वी.वी.एस. लक्ष्मण’ है, कभी धोख़ा नहीं देती.
मिस चमको…
सई परांजपे द्वारा निर्देशित फ़िल्म ’चश्मे बद्दूर’ के एक दृश्य में नायक-नायिका तालकटोरा गार्डन में बने एक ओपन एयर रेस्टोरेंट में बैठे हैं और वे वेटर से पूछते हैं, “यहाँ अच्छा क्या है?” तो वेटर उन्हें जवाब में कहता है, “जी यहाँ का माहौल बहुत अच्छा है!” अस्सी के दशक की फ़िल्म ’चश्मे बद्दूर’ की यही ख़ासियत है, अपने समय और परिवेश में रचा-बसा हास्य. इसके कई संवादों में उस दौर की दिल्ली और उसकी कॉलेज लाइफ़ का कोई न कोई संदर्भ है. कहानी है तीन बेरोज़गार लड़कों की जो दिल्ली की सड़कों पर घूमते नौकरी और छोकरी दोनों की तलाश में हैं. फ़िल्म में राकेश बेदी और रवि वासवानी ने नायक के दोस्तों की भूमिका निभाई है और अपने दोस्त को कुंए में ढकेलने में इनका बड़ा हाथ है. नायक-नायिका की भूमिका में फ़ारुख शेख़ और दीप्ति नवल की जोड़ी भी खूब जमी है. ’चश्मे बद्दूर’ के साथ ही सई परांजपे की ’कथा’ भी देखी जानी चाहिए जिसमें मुम्बई की चाल के जनजीवन का मज़ेदार स्कैच मिलता है.
अंगूर (1982) –
प्रीतम आन मिलो…
यह हिन्दी सिनेमा में शेक्सपियर साहब का आगमन है. और क्या खूब आगमन है! गुलज़ार ने शेक्सपियर के नाटक ’कॉमेडी ऑफ़ एरर्स’ को उठाकर बख़ूबी हिन्दुस्तानी लिबास पहना दिया है. जुड़वाँ भाईयों के दो जोड़ों की कहानी ’अंगूर’ में नौकर और मालिक अशोक और बहादुर के दो जोड़े हैं, दोनों के दोनों संजीव कुमार और देवेन वर्मा. एक दिन दोनों (अरे दोनों नहीं चारों!) एक ही शहर में आ जाते हैं और उससे उस शहर की पूरी व्यवस्था उलट-पुलट हो जाती है. इस फ़िल्म का हास्य कादर ख़ान मार्का कॉमेडी की तरह लाउड नहीं है, यहाँ सूक्ष्म हास्य है. संजीव कुमार और देवेन वर्मा जैसे मंझे हुए अभिनेता अद्भुत तालमेल के साथ जैसे एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं.
जाने भी दो यारों (1983) –
हिन्दी सिनेमा में व्यंग्य के क्षेत्र में आई सबसे बड़ी कल्ट क्लासिक. सुधीर मिश्रा और विधु विनोद चोपड़ा जैसे आज के फ़िल्म जगत के सम्मानित नाम इस फ़िल्म में सहायक थे और फ़िल्म में दोनों नायकों नसीरुद्दीन शाह और रवि वासवानी के नाम ’सुधीर’ और ’विनोद’ इन्हीं पर रखे गए. एनएफ़डीसी की फ़िल्म थी और किस्सा मशहूर है कि पैसा इतना कम था कि कलाकारों ने अपनी व्यक्तिगत चीज़ों और कपड़ों तक को शूटिंग के दौरान इस्तेमाल किया. नसीर जो फ़िल्म के नायक थे निर्माण के दौरान कहते थे कि कुंदन पागल हो गया है, न जाने क्या बना रहा है! शायद यह अपने दौर से बहुत आगे की फ़िल्म थी. इसका ’महाभारत’ वाला क्लाईमैक्स तो ’न भूतो न भविष्यति’ हास्य का पिटारा है. लेकिन ’जाने भी दो यारों’ सिर्फ़ कोरी कॉमेडी नहीं थी, इसका हास्य स्याह रंग लिए था. आज भी यह फ़िल्म विकास की अंधी दौड़ में भागते ’उदारीकृत हिन्दुस्तान’ के लिए एक रियलिटी चैक सरीख़ी है. आज इसकी प्रासंगिकता सबसे ज़्यादा है.
चमेली की शादी (1986) –
हैं जी…
बासु चटर्जी को हम ऋषिदा की परम्परा में ही रख सकते हैं जिन्होंने सत्तर और अस्सी के दशक में हिन्दी सिनेमा को कई बेहतरीन और मौलिक हास्य फ़िल्में दीं. और पंकज कपूर.. ’चमेली की शादी’ में उन्होंने जैसे ’कल्लूमल कोयलेवाले’ को साक्षात जीवित कर दिया है. बासु चटर्जी ने पहले भी ’छोटी सी बात’, ’हमारी बहु अलका’ और ’खट्टा-मीठा’ जैसी कई याद रखे जाने लायक फ़िल्में बनाई हैं. कहानी है लंगोट के पक्के अख़ाड़ेबाज़ पहलवान चरणदास (अनिल कपूर) के कल्लूमल कोयलेवाले की लड़की चमेली (अमृता सिंह) से इश्कबाज़ी की. इनके इस धुंआधार इश्क के अकेले सिपहसालार हैं एडवोकेट भैया (अमजद ख़ान) और उसका दुश्मन सारा ज़माना हुआ है. लेकिन इस बीच चमेली और चरणदास हैं जिनका प्यार रेडियो और उस पर बजते प्यार भरे हिन्दी फ़िल्मी गीतों के साथ परवान चढ़ता है. फ़िल्म के गाने और उनका फ़िल्मांकन भी बहुत ही हास्य से भरा है और फ़िल्म के सबसे यादगार प्रसंगों में दारूबाज़ मामा छद्दमी (अन्नु कपूर) की चमेली के हाथों झाड़ू से हुई ठुकाई याद रखी जा सकती है.
तेजा मैं हूँ. मार्क यहाँ है…
राजकुमार संतोषी की ’अंदाज़ अपना अपना’ एक क्रेज़ी राइड है. ’अमर’ और ’प्रेम’ की भूमिकाओं में आमिर और सलमान दो जेब से कड़के ऐसे नौजवान हैं जिनका एक ही सपना है कि किसी करोड़पति लड़की से शादी कर वे भी करोड़पति बन जाएं. विदेश से आई रवीना और करिश्मा ऐसी ही दो लड़कियाँ हैं जिनके ये दोनों पीछे हैं. लेकिन इस बीच डबल रोल में परेश रावल हैं – एक करोड़पति आसामी राम गोपाल बजाज और दूसरा खतरनाक उचक्का तेजा. और अमर किरदार ’क्राइम मास्टर गोगो’ की भूमिका में शक्ति कपूर हैं जो हर बनता काम बिगाड़ देते हैं. फ़िल्म में महमूद, देवेन वर्मा और जगदीप जैसे लिजेन्डरी हास्य कलाकारों ने भी मेहमान भूमिकाएं निभाई हैं.
हेराफ़ेरी (2000) –
मी बाबूराव गणपतराव आप्टे बोलतोए…
’हेराफ़ेरी’ प्रियदर्शन का ऐसा मास्टरस्ट्रोक थी जिससे कमाई नाम और इज़्ज़त वो आज तक भुना रहे हैं. इस एक मराठी किरदार ’बाबूराव आप्टे’ की भूमिका से सिनेमा के क्षेत्र में परेश रावल का कद इतना ऊँचा उठा कि कॉमेडी में वो एक ब्रैंड बन गए और आगे चलकर फ़िल्में उनके नाम से बिकने लगीं. इसी फ़िल्म ने हमें नायक अक्षय कुमार की अद्भुत कॉमिक टाइमिंग से परिचित करवाया. एक राँग नंबर से शुरु हुई ’हेराफेरी’ की कहानी में नौकरी के लिए घनश्याम (सुनील शेट्टी) से झगड़ती अनुराधा (तब्बू) और बहन की शादी करवाने गाँव से आए खड़ग सिंह (ओम पुरी) के मज़ेदार ट्रैक भी थे. प्रियदर्शन की ’एक दूसरे के पीछे भागते किरदारों’ और बहुत सारे कन्फ़्यूज़न से भरे क्लाइमैक्स से मिलकर बनती फ़िल्मों की शुरुआत यहीं से होती है. और एक क्लासिक ’हेराफेरी’ के बाद यहाँ भी ’हंगामा’, ’हलचल’, ’गरम मसाला’, ’भागम भाग’, ’ढोल’ और ’दे दना दन’ जैसी औसत और खराब फ़िल्मों की लम्बी कतार है.
ओ खोसला साब, खुराना साब लव्स यू…
दिल्ली का मिडिल-क्लास नौकरीपेशा अपनी पूरी प्रामाणिकता के साथ. यह असल दिल्ली है – ’हाउ टू बी ए मिलेनियर’ पढ़ता निठल्ला लड़का, खाने में बनते संजीव कपूर की रेसिपी वाले राजमा-चावल, खाने की मेज़ पर रखी ईनो और रूह-अफ़ज़ा की बोतल और सबसे ऊपर ’साउथ दिल्ली’ वाला बनने की चाह. निर्देशक दिबाकर बनर्जी की पहली फ़िल्म और हिन्दी सिनेमा की मॉडर्न कल्ट क्लासिक कही जाती ’खोसला का घोंसला’ जैसे हमारी ही ज़िन्दगी से एक कतरन उधार लेकर बनाई गई है. चाहे वो ट्रेवल एजेन्ट कम ऑटो सर्विस वाले आसिफ़ इक़बाल (विनय पाठक) हों और चाहे बात-बात पर गाली मुँह से निकालने वाले साहनी साहब (विनोद नागपाल) हों, ये सभी अपनी दिल्ली के खरे प्रतिनिधि किरदार हैं. और ’बंटी’ के किरदार में रणवीर शौरी की अदाकारी इस फ़िल्म की जान है. उसके ऊपर जयदीप साहनी की पठकथा में ईमानदारी और नैतिकता को बचाए जाने की एक भोली मांग भी है जो पूरी फ़िल्म में आपको असहज करती है. दिबाकर की यह फ़िल्म हिन्दी सिनेमा में ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और सई परांजपे की परंपरा को आगे बढ़ाती है.
चाची चार सौ बीस (1997) –
मैं विन्डो से भी शादी करने को तैयार हूँ…
’चाची चार सौ बीस’ के नायक-निर्देशक कमल हासन थे. कमल हासन हमारे दौर के सबसे प्रयोगधर्मी निर्देशक हैं, और सबसे ऊँचे कद के अभिनेता भी. उन्होंने अभिनय और रोल की मांग के अनुसार अपने शरीर के साथ क्या-क्या नहीं किया है. फ़िल्म भले ही अमेरिकन फ़िल्म ’मिसेस डाउटफ़ायर’ से प्रेरित हो, ’लक्ष्मी चाची’ की भूमिका में कमल हासन एकदम ओरिजिनल हैं. वे केवल मेक-अप कर स्त्री नहीं बने हैं, उन्होंने स्त्रियों की तमाम शारिरिक भंगिमाओं (बॉडी लैंग्वेज) को जैसे आत्मसात कर लिया है. गुलज़ार की पुरानी फ़िल्म ’अंगूर’ की तरह ही ’चाची 420’ में भी सूक्ष्म हास्य मिलता है जो फ़िल्म की रिपीट वैल्यू बहुत बढ़ा देता है. गुलज़ार ’चाची 420’ के साथ भी जुड़े हैं, उनके लिखे संवाद बस गदर हैं और विशाल भारद्वाज के संगीत से सजे गीत ऐसे जैसे बच्चों की भोली कविताएं. “चाची के पास मुश्किलों की सारी चाबियाँ हैं, सोसायटी में जानती हैं क्या खराबियाँ हैं. चाची के पास हल है, चाची तो बीरबल है.” फ़िल्म में ओम पुरी भी हैं और परेश रावल भी, हर बार की तरह आपकी हर मांग पर खरे उतरते. और संभवत: अपने जीवन की अंतिम फ़िल्मी भूमिका में लिजेन्डरी कॉमेडियन जॉनी वॉकर हैं.. कहते हुए, “मुझे ये जूता खाने दो, खाने दो ये जूता!”
‘घास-फूस’ का डॉक्टर! अरे कम से कम ‘फूल-पत्ती’ तो बोलो…
साल था 1975. धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन की साथ-साथ ’जिगरी दोस्त’ वाली भूमिका की दो फ़िल्में रिलीज़ हुईं. मिजाज में दो बिल्कुल अलग फ़िल्में और दोनों ही कल्ट क्लासिक बनीं. एक थी ’शोले’ और दूसरी थी ’चुपके चुपके’. ऋषिकेश मुखर्जी की इस फ़िल्म में धर्मेन्द्र ’डॉ. परिमल त्रिपाठी’ बने हैं जो अपनी पत्नी सुलेखा (शर्मीला टैगोर) के जीजाजी बने ’राघव भैया’ (ओम प्रकाश) को चकमा देने के लिए उनके घर ’ड्राइवर प्यारे मोहन’ बन कर आ जाते हैं. फ़िल्म में अपनी ’शुद्ध हिन्दी’ के साथ प्यारे मोहन राघव भैया को खूब खिजाते हैं और दर्शकों को खूब हंसाते हैं. बड़े फलक पर देखें तो यह दरअसल उस शुचितावादी सोच पर व्यंग्य है जो बहती नीर सी भाषा को भी शुद्धता के तराज़ू पर तोलती है. फ़िल्म की शूटिंग के दौरान जया बच्चन माँ बनने वाली थीं और कैमरे पर यह पता न चले इसका फ़िल्मांकन के दौरान खास ख्याल रखा गया था. किशोर कुमार और मोहम्मद रफ़ी का गाया डुएट ’सा रे गा मा’ जिसे अमिताभ और धर्मेन्द्र याने ’जय-वीरू’ पर फ़िल्माया गया बड़ा पक्का जोड़ीदारों वाला गाना है. ’चुपके-चुपके’ ऋषिदा के सुनहरे दौर की पैदाइश है और आज भी अपनी आभा बिखेर रही है.
कुली नंबर वन (1995) –
अरे नम्बर वन, दिखा दे अपना जलवा…
गोविन्दा नब्बे के बाद के ’एनआरआई छाप’ हिन्दी सिनेमा में देसी भांग की तरह हैं. यह कादर खान के लिखे द्विअर्थी संवादों से बनी फूहड़ लेकिन लोकप्रिय हास्य फ़िल्मों की परम्परा है जिसने नब्बे के दशक में खूब लोकप्रियता पाई. यही धारा है जो गोविन्दा से होती हुई भोजपुरी सिनेमा तक आई है. निर्देशक डेविड धवन की ’कुली नं. वन’ इस कादर खान मार्का कॉमेडी की प्रतिनिधि फ़िल्म है जिसे मिलाकर ही हिन्दी की कॉमेडी फ़िल्मों का वृहत फलक पूरा होता है. नायक राजू जो पेशे से कुली है खुद को करोड़पति बताकर गांव के एक अमीर चौधरी होशियारचंद की लड़की से शादी कर लेता है. आगे तमाम परिस्थितियाँ जितनी गड़बड़ हो सकती हैं, होती हैं. और उसके ऊपर शक्ति कपूर हैं. यहीं से गोविन्दा की ’नम्बर वन’ सीरीज़ की भी शुरुआत होती है जिसमें आगे ’हीरो नम्बर वन’, ’आंटी नम्बर वन’, ’बेटी नम्बर वन’ और ’अनाड़ी नम्बर वन’ जैसी फ़िल्में आती हैं.
चिकन आलाफूज…
बासु चटर्जी की ’छोटी सी बात’ बड़ी मासूम सी कॉमेडी फिल्म है. किसी इतवार की शाम घर में रहकर बेहतर सनडे मनाने का बेस्ट जरिया. कहानी है अरुण (अमोल पालेकर) की जो प्यार तो प्रभा (विद्या सिन्हा) से करता है लेकिन कभी उसे बता नहीं पाता. फिर उसकी ज़िन्दगी में ’कर्नल जुलियस नगेन्द्रनाथ विल्फ्रेड सिंह’ (अशोक कुमार) आते हैं. कर्नल साहब प्रोफेशनल आदमी हैं. वे उसे अपने प्यार को पाने के तमाम नुस्खे सिखाते हैं. फ़िल्म में ’कबाब में हड्डी’ के रोल में असरानी साहब हैं. फ़िल्म के संवाद हिन्दी के जाने-माने व्यंग्यकार शरद जोशी की कलम से निकले हैं. कई प्रसंग जैसे मोटरसाइकिल का किस्सा या जहांगीर आर्ट गैलरी के पास लंच वाला किस्सा लाजवाब हैं.
लगे रहो मुन्नाभाई (2006) –
केमिकल लोचा…
मुन्नाभाई सीरीज़ की फ़िल्में हमारे दशक की सबसे सफल और सबसे खूबसूरत फ़िल्में हैं. ’लगे रहो मुन्नाभाई’ कॉमेडी और इमोशन का ऐसा मेल है जो हिन्दुस्तानी पब्लिक को हमेशा से भाता है. राजू हिरानी को बिल्कुल एक डॉक्टर की तरह हमारी नब्ज की सही पकड़ है. ’लगे रहो मुन्नाभाई’ में एक इमोशनल भाई मुन्ना (संजय दत्त) है और उसके कई गुर्गे हैं जो गुंडे कम और सरकारी स्कूल के चौकीदार ज़्यादा लगते हैं. नायिका को पाने की चाह में वो गांधीजी की शरण में जाता है और फिर होता है ’केमिकल लोचा’! एक मौलिक कहानी और अच्छी पटकथा के साथ ’लगे रहो मुन्नाभाई’ में कई प्रासंगिक संदेश भी हैं जो आपको जीवन के कदम-कदम पर काम आयेंगे.
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पिछले रविवार नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ.
बिल्कुल सही सूची तैयार की है, मिहिर. सब एक से बढ़कर एक फ़िल्में हैं, जिन के जिक्र अक्सर दोस्तों की अलग-अलग महफ़िलों में होते रहते हैं.
@Vimal. गांधी से कुछ पर्सनल सा रिश्ता है, फ़िल्म से भी. इसलिए शायद ज़्यादा अर्थ पढ़ लेता हूँ इसमें.
Bahut badhoiya aur authentic soochi magar mujhe lagta hai Munna Bhai MBBS honi chahiye thi lage raho ki jagah…
agar kuli no one,chameli ki shadi aur andaz apna apna ko shamil karoge to sarvshresth visheshan hatana padega,
गोलमाल..चुपके चुपके…अंगूर…चलती का नाम गाडी…सभी तो अच्छी फ़िल्में हैं.
आप ने इन १५ फिल्मों की सही लिस्ट दी है .
आभार.
Dialogues yaad karke bhi hansi aa jaati hai….
यह सारी देख चुके हैं, उन्नत सूची।