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कितने आदमी थे! उर्फ़ हिन्दी सिनेमा का अजब-गजब संवाद लेखन

यह लेख ’चकमक’ के बच्चों से मुख़ातिब है. काश वे भी इसे पूरा पढ़ पाते…

deewaar1sholay-poster1जब हमारे दोस्त सुशील ने मुझे हिन्दी फ़िल्मों में आए मेरे पसंदीदा संवादों के बारे में लिखने के लिए कहा तो पहले तो मैं खुश हो गया. मैंने उनसे भिड़ते ही कहा.. अरे इसमें कौनसी बड़ी बात है! मैं तो एक पूरा लेख सिर्फ़ ’दीवार’ के संवादों पर लिख सकता हूँ. “जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ..” और “खुश तो बहुत होगे तुम..” जैसे संवादों को कौन भूल सकता है. आज भी अमिताभ को चाहनेवाले बार-बार इन्हीं संवादों को उनके मुंह से सुनने की फ़रमाइश करते हैं. और ’शोले’! वो तो क्लासिक संवादों की खान है. जो भी निकाल कर लाओ.. हीरा ही हाथ आएगा! अमजद खान को आज भी पूरे देश में अपने असल नाम से कम और ’गब्बर सिंह’ के नाम से ज़्यादा जाना जाता है. मैकमोहन ’सांबा’ के रोल में और विजू खोटे ’कालिया’ के रोल में हिन्दी सिनेमा इतिहास में हमेशा-हमेशा के लिए अमर हो गए. पिछले दिनों हमारे घरों में मौजूद बुद्धू बक्से पर राजू श्रीवास्तव ने जिस तरह से शोले के संवादों की पैरोडी बनाकर नाम कमाया है उसे भी शोले के अमर संवादों की तारीफ़ में पिरोई जाती माला में एक मोती ही माना जाएगा. वैसे यह भी कहा जाता है कि जिस फ़िल्म के संवादों की सबसे ज़्यादा पैरोडी हो वही सबसे बड़ा सबूत है उन संवादों की लोकप्रियता का. शोले के संवाद तो आम जनमानस में मुहावरे की तरह प्रचलित हो गए हैं. किसी भी दोस्त पर अचानक कोई बिन बुलाई मुसीबत आ जाए तो उसे मज़ाक में “तेरा क्या होगा कालिया?” कह ही दिया जाता है. इन संवादों के पीछे सलीम-जावेद की चमत्कारिक जोड़ी थी जिसने वक़्त की नब्ज़ को पहचाना और ’एंग्री यंग मैन’ किरदार की रचना कर हिन्दी सिनेमा को बदलकर रख दिया.

लेकिन कुछ देर बाद ही मुझे समझ आया कि सुशील तो मुझसे मेरे पसंदीदा फ़िल्म संवाद पूछ रहा है. तो उसमें मेरा भी तो कुछ व्यक्तिगत होना चाहिए न. दीवार और शोले तो हम सबकी पसंदीदा फ़िल्में हैं ही लेकिन मैं आज तुम्हें तीन ख़ास फ़िल्मों के संवादों से रू-ब-रू करवाउँगा. इन तीन फ़िल्मों के महत्वपूर्ण संवादों में एक बात इकसार है और वही बात मुझे सबसे ज़्यादा आकर्षित करती है. और यह बात सिनेमा में संवादों का असल अर्थ समझने में भी कारगर है. इत्तेफ़ाक से ये तीनों ही फ़िल्में मेरे दिल के बहुत करीब हैं. आगे वही ख़ासियत तुम और फ़िल्मों में भी तलाश सकते हो. क्या पता ऐसी खूबियाँ और फ़िल्मों में भी मिल जाएँ. तो बात शुरु करते हैं…

anand_filmआनंद
निर्देशक- ऋषिकेश मुखर्जी
संवाद- गुलज़ार

रिषिकेश मुखर्जी की ’आनंद’ का वो अमर संवाद तो तुम्हें याद होगा. अरे इस संवाद की लोकप्रियता का आलम यह था कि लम्बे समय तक अमिताभ को उनके दोस्त और चाहनेवाले ’बाबू मोशाय’ कह कर ही बुलाते रहे थे! फ़िल्म के क्लाईमैक्स में आया यह संवाद सबको हिलाकर रख देता है, “बाबू मोशाय! ज़िन्दगी और मौत तो ऊपरवाले के हाथ में है जहाँपनाह, उसे ना तो आप बदल सकते हैं न मैं. हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं जिनकी डोर ऊपरवाले के हाथों में बंधी है. कब, कौन, कैसे उठेगा यह कोई नहीं बता सकता है. हा हा हा हा हा हा . . . . .” अगर तुमने फ़िल्म देखी हो तो तुम याद कर पाओगे कि फ़िल्म में यह संवाद तीन बार आता है. क्यों नहीं याद आया? चलो मैं याद दिलाता हूँ. दरअसल आनंद (राजेश खन्ना) के नए बने दोस्त ईसा भाई (जॉनी वाकर) एक थियेटर कंपनी चलाते हैं. आनंद वहाँ एक नाटक की रिहर्सल में यह संवाद पहली बार सुनता है. नाटक मशहूर फ़िल्म ’मुगल-ए-आज़म’ की कहानी पर आधारित है और असल में यह संवाद शहज़ादा सलीम अपने अब्बा हुज़ूर अकबर को बोल रहे हैं. आनंद को यह संवाद इतना पसंद आता है कि वो घर आकर ’बाबू मोशाय’ (अमिताभ बच्चन) के टेप रिकार्डर पर भी यही संवाद रिकॉर्ड करवाता है. इसे रिकॉर्ड करने के बाद दोनों दोस्त खूब हँसते हैं. लेकिन इस संवाद की कहानी अभी बाकी है.

कहानी के क्लाईमैक्स पर, आनंद की मौत के ठीक बाद यह संवाद लौटकर आता है और एक बिलकुल नया और मार्मिक रूप ग्रहण करता है. जैसे ही आनंद की साँसें रुकती हैं पीछे से आनंद की आवाज़ गूंजती है, “बाबू मोशाय!”. रिकार्डेड टेप चल पड़ा है.. “ज़िन्दगी और मौत तो ऊपरवाले के हाथ में है जहाँपनाह, उसे ना तो आप बदल सकते हैं न मैं. हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं जिनकी डोर ऊपरवाले के हाथों में बंधी है. कब, कौन, कैसे उठेगा यह कोई नहीं बता सकता है. हा हा हा हा हा हा . . . . .” ऐसा लगता है कि खुद आनंद अपनी मौत पर आँसू बहाते दोस्तों को जीवन का असल दर्शन समझा रहा है. एक ऐसा जीवन दर्शन जिसमें शामिल है कि ज़िन्दगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नहीं. और पीछे रह जाती है उसकी हँसी. ढेर सारी हँसी… खिलखिलाती, निश्चल हँसी. इस संवाद की असल गहराई इस वक़्त समझ आती है. देखो एक ही संवाद अलग-अलग परिस्थितियों में कैसे अपना अर्थ और गंभीरता बदल लेता है. गुलज़ार के लिखे संवाद इस फ़िल्म की असल जान है. आंनद के किरदार की तरह ही यह अपने भीतर दर्द समेटे दुनिया को खुशी बाँटने की बातें करते हैं. यह फ़िल्म मुझे सिखाती है कि बड़ी बात कहने के लिए हमेशा गंभीरता का दामन थामना ज़रूरी नहीं. इस संवाद की ताकत ही यह है कि यह ज़िन्दगी की बड़ी सच्चाई को एकदम आसानी और सहजता से आपके सामने रख देता है. एकदम आनंद की तरह.

dil_chahta_hai1दिल चाहता है

निर्देशक- फ़रहान अख़्तर
संवाद- फ़रहान अख़्तर

’दिल चाहता है’ मेरे लिए एक खास फ़िल्म है. मैनें जब यह फ़िल्म पहली बार देखी उस वक़्त मैं सोलह बरस का था. उसके बाद मैंने इसे पचासों बार और देखा. (एक बार हमारे स्वयं प्रकाश अंकल ने मुझे चिट्ठी में लिखा था, “अब बताओ तो इसे आखिर कित्ती बार ’दिल चाहता है’ देखनी चाहिए!”) इतनी सहजता मुझे बहुत कम फ़िल्मों में देखने को मिली है. यह मेरे लिए बहुत ही व्यक्तिगत कहानी है लेकिन साथ ही इस फ़िल्म में एक अजीब सी सार्वजनिकता है, दोस्ती की सार्वजनिकता. इसे मैं अकेला भी देखूँ न तो अगले दिन यही कहता हूँ कि “हमने ’दिल चाहता है’ देखी”. इसके संवाद हम दोस्तों की साझा धरोहर हैं और बिना संदर्भ हम इसके संवादों को मुहावरों की तरह काम में लेते हैं. आज भी हम हमारे दोस्त रोहित का अभिवादन ’हे रोहित’ कहकर ही करते हैं और इस अभिवादन में ’दिल चाहता है’ का एक बहुत ही मज़ेदार संदर्भ छुपा है. ’दिल चाहता है’ के कुछ संवादों में भी ’आनंद’ जैसी दोहरी अर्थगर्भिता छिपी है. एक बार आकर वे सिर्फ़ मज़ाक हैं तो वही संवाद फ़िल्म में दुबारा बहुत ही गंभीर अर्थ के साथ लौटते हैं.

फ़िल्म का नायक आकाश (आमिर खान) नायिका शालिनी (प्रीति ज़िन्टा) से पहली मुलाकात में यूँ उससे अपने प्यार का इज़हार करता है, “शालिनी, मैं तुमसे और सिर्फ़ तुमसे प्यार करता हूँ. मेरी हर साँस, मेरी हर धड़कन, मेरे हर पल में तुम हो और सिर्फ़ तुम शालिनी. मुझे यकीन है कि मैं सिर्फ़ इसलिए जन्मा हूँ कि तुमसे प्यार कर सकूँ और तुम सिर्फ़ इसलिए कि एक दिन मेरी बन जाओ. तुम मेरी हो शालिनी, और अगर तुम अपने दिल से पूछोगी तो जान लोगी कि मैं सच कह रहा हूँ.” लेकिन यह भावुकतापूर्ण संवाद यहाँ सिर्फ़ शुद्ध मज़ाक है और इस मज़ाक के लिए वो मार भी खाता है. बात आई-गई हो जाती है.

लेकिन बात यहाँ खत्म नहीं हुई है. नायिका नायक की कहानी में लौटकर आती है और उसके साथ लौटकर आता है वही संवाद. फ़िल्म के क्लाईमैक्स में नायक अपनी तमाम उलझनों पर पार पाता है और ’विरोधियों के गढ़’ में ठीक इन्हीं शब्दों में नायिका से अपने प्यार का इज़हार करता है. इसबार प्यार सच्चा है, इज़हार सच्चा है. हम देखते हैं कि संवाद के मायने ही बदल जाते हैं. यहाँ संवाद पहली बार एक पैरोडी के रूप में आता है और दूसरी बार अपने असल रूप में.

rdb_poster1रंग दे बसंती
निर्देशक- राकेश ओमप्रकाश मेहरा
संवाद- प्रसून जोशी, रेंसिल डिसिल्वा

’रंग दे बसंती’ तो फ़िल्म से आगे बढ़कर एक फ़िनोमिना बन चुकी है. अगर तुम याद कर पाओ तो बताओ कि फ़िल्म के नायक करण का फ़िल्म में पहला संवाद क्या था? मैंने एक बहुत खास बात नोटिस की है, फ़िल्म में करण का पहला संवाद था “नौटंकी साला!” और गौर से देखने पर साफ़ होता है कि मौत से ठीक पहले करण का आखिरी संवाद भी यही था.. “नौटंकी साला!” दोनों बार यह संवाद डी.जे. (आमिर खान) को संबोधित था. बस अंतर यह था कि मौत से ठीक पहले डी.जे. का मज़ाक सबकी आँखों में आँसू भर देता है. लेकिन उसके दोस्त के लिए वो आज भी ’नौटंकी’ है. इतना विश्वास बहुत गहरे जुड़े होने पर ही आता है न. एक ही संवाद आपको पहले हँसाता है और अंत में रुलाता है.

दरअसल यह तीनों उदाहरण इस बात को समझने के लिए हैं कि संवादों का अर्थ हमेशा शब्दों के भीतर नहीं होता. फ़िल्म जैसे माध्यम में परिस्थितियाँ और उसे ज़ाहिर करने की अनेक तकनीकें संवादों का असल अर्थ रचती हैं. बहुत बार तो एक ही बात कई अर्थ अपने भीतर समेटे होती है. संवाद का अर्थ परिस्थितियों के साथ बदल जाता है. और यहीं साफ़ होता है कि ऐसे में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निर्देशक की होती है. जो संवाद अपनी भावुकता से आपको रुला देता है वही संवाद खराब संपादन और निर्देशन होने पर मैलोड्रामा भी लग सकता है. और एक अच्छा निर्देशक इन दोनों ही रूपों को अपनी इच्छानुसार फ़िल्म में प्रयोग करता है.

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हिन्दी में सिनेमा पर इतना सधा ब्लॉग मैंने अभी तक नहीं देखा है, मिहिर जी के फिल्मों के बारे में लिखने में एक चुम्बकत्व है जो कही और नहीं दिखाई देता है..
बेहतरीन प्रस्तुति और उससे भी ज्यादा बेहतरीन सोच…

धन्यवाद
सिद्धान्त मोहन तिवारी
वाराणसी

@ दीप्ति
अरे उस संवाद में तो सिनेमा की कहानी को पार कर असल व्यक्ति पर टिप्पणी बन जाने की कुव्वत है. उसे सुनकर तो ऐसा लगता है कि जैसे वो सीधा-सीधा आमिर खान के व्यक्तित्व पर टिप्पणी है!

और क्या फ़िल्म में आते किरदारों के अजीब-अजीब संबोधन संवाद लेखन का हिस्सा नहीं. अगर आप जावेद अख़्तर की किताब ’टाकिंग फ़िल्म्स’ देखें तो उसमें उन्होंने दीवार में आये एक किरदार (डावर सेठ) के नाम पर लम्बी चर्चा की है. उन्होंने बताया है कि कैसे उनके द्वारा रचे इस किरदार डावर का नाम ही हिन्दी सिनेमा के नकारात्मक किरदारों की श्रंखला में एक पैराडाइम शिफ़्ट लेकर आया. उस किरदार से पहले तक हम डाकुओं,मुनीमों,साहूकारों को विलेन के रूप में देखने के अभ्यस्त थे. लेकिन डावर के साथ अभिजात्य,नफ़ीस नकारात्मक किरदारों की शुरुआत होती है.

आखिर हमारे नायक ’विजय’ के शहर आने के साथ विलेन को भी तो शहर आना था.

@ तरुण

हम सबसे पहले सिनेमा के प्रेमी हैं, उसके बाद कुछ और. और बहुत बार यही शुद्ध प्रेम ऐसी चीज़ें दिखला देता है जिसे थ्योरी से समझना मुश्किल है. यहाँ यही प्रेम काम आया है सबसे ज़्यादा.

@ रंगनाथ

शुक्रिया बारास्ते विनीत यहाँ आने का (और इसके साथ ही विनीत बाबू को भी शुक्रिया पहुँचे.) आपको मोहल्ला पर पढ़ता रहा हूँ. आपकी तर्क क्षमता का कायल हूँ. पीयुष मिश्रा के उस एतिहासिक साक्षात्कार का ज़्यादा श्रेय मुझसे ज़्यादा वरुण को जाता है. तो ’बारास्ते मुझ’ आपका यह आभार उस तक भी पहुँच जायेगा. आप जैसे गंभीर पाठक मुझ जैसे अनियमित ब्लॉगर के लिए नेमत समान हैं. उम्मीद है यहाँ और सार्थक बात हो पाएगी.

कसम उड़ान झल्ले की…..
हिन्दी फिल्मों पर इतना शानदार ब्लाग होगा…सोचा न था…..मैं विनीत भाई के ब्लाग से तुम्हारे ब्लाग तक…. राज कपूर से मुहब्ब्त खींच लाई…

पियुष मिश्रा के उस शानदार इंटरव्यु के लिए आभार तब मैंने ध्यान नहीं दिया था कि उसे किसने लिया है !!

तुम्हारा ब्लाग अपने ब्लाग लिस्ट में जोड़ दिया है…और इस तरह सूचित करने की रस्मअदायगी भी पूरी हुई समझो….अब तो मुझे अपना नियमित पाठक समझो….वो कहा बड़े उस्ताद ने कहा है ना…रोमांटिक बातें मुझे बोर करती हैं….सच मानो इंटलैक्चुअलइज्म और स्यूडो इंटलैक्चुअलइज्म के दो पाटों के बीच पीस रहे आदमी के लिए तुम्हारे ब्लाग से बेहतर रिलैक्सेशन रिडिंग कुछ और नहीं हो सकती।….

एक बार फिर बधाईl वाकई बहुत अच्छा लगा की तुमने इन बेहतरीन फिल्मो के संवादों की कन्डीशन में उस अंतर को खोज निकला जो बहुतो को दिखाई नहीं देताl बधाई दोस्त .
जो बात तुमने फिल्म के संवादों के बारे में कही वस्तुत वही बात तो हम अब तक जिंदगी के फलसफे के बारे में अपने बुजुर्गों से सुनते आये है ये और बात है की फिल्मे भी तो जिंदगी की वास्तविकता को खोलने का., उसके संवादों को बोलने का एक और जरिया हमें मुहैया कराती है. गुलज़ार के बारे में तो मै जानता हूँ की वो संवादों की कंडिशनिंग के कारीगर हैl प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो. जैसी बात का मै आज भी कायल हूँ . राकेश ओमप्रकाश मेहरा, फरहान अख्तर और ऋषिकेश मुखर्जी की बात तुमने की बहुत अच्छा लगा. एक बार फिर……अबकी बधाई नहीं शुक्रिया कहूँगा . शुक्रिया मेरे दोस्त l

आपके पसंदीदा संवादों का अच्छा विश्लेषण किया हैं आपने। मैं अपनी भी बात इसमें जोड़ना चाहूंगी। दिल चाहता है का संवाद कि पर्फ़ेक्शन को इम्प्रूव करना मुश्किल है। मेरा पसंदीदा है और मुझे लगता है नौटंकी साला संवाद नहीं नाम है…

वाह भाई बहुत गहरी बात कह गये मियाँ !!
फिल्म देखना एक कला है , साबित कर दिया आपने !