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ऑस्कर 2010 : क्या ’डिस्ट्रिक्ट 9′ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कहलाने की हक़दार नहीं है?

यह ऑस्कर भविष्यवाणियाँ नहीं हैं. सभी को मालूम है कि इस बार के ऑस्कर जेम्स कैमेरून द्वारा रचे जादुई सफ़रनामे ’अवतार’ और कैथेरीन बिग्लोव की युद्ध-कथा ’दि हर्ट लॉकर’ के बीच बँटने वाले हैं. मालूम है कि मेरी पसन्दीदा फ़िल्म ’डिस्ट्रिक्ट 9’ को शायद एक पुरस्कार तक न मिले. लेकिन मैं इस बहाने इन तमाम फ़िल्मों पर कुछ बातें करना चाहता हूँ. नीचे आई फ़िल्मों के बारे में आप आगे बहुत कुछ सुनने वाले हैं. कैसा हो कि आप उनसे पहले ही परिचित हो लें, मेरी नज़र से…

avatarअवतार : मेरी नज़र में इस फ़िल्म की खूबियाँ और कमियाँ दोनों एक ही विशेषता से निकली हैं. वो है इसकी युनिवर्सल अपील और लोकप्रियता. यह दरअसल जेम्स कैमेरून की ख़ासियत है. उनकी पिछली फ़िल्में ’टाइटैनिक’ और ’टर्मिनेटर 2 : जजमेंट डे’ इसकी गवाह हैं. मुझे आज भी याद है कि ’टर्मिनेटर 2’ ही वो फ़िल्म थी जिसे देखते हुए मुझे बचपन में भी ख़ूब मज़ा आया था जबकि उस वक़्त मुझे अंग्रेज़ी फ़िल्में कम ही समझ आती थीं. तो ख़ूबी ये कि इसकी कहानी सरल है, आसानी से समझ आने वाली. जिसकी वजह से इसे विश्व भर में आसानी से समझा और सराहा जा रहा है. और कमी भी यही कि इसकी कहानी सरल है, परतदार कहानियों की गहराईयों से महरूम. जिसकी वजह से इसके किरदार एकायामी और सतही जान पड़ते हैं.

इस फ़िल्म की अच्छी बात तो यही कही जा सकती है कि यह नष्ट होती प्रकृति को इंसानी लिप्सा से बचाए जाने का ’पावन संदेश’ अपने भीतर समेटे है. लेकिन यह ’पावन संदेश’ ऐसा मौलिक तो नहीं जिसे सारी दुनिया एकटक देखे. सच्चाई यही है कि ’अवतार’ का असल चमत्कार उसका तकनीकी पक्ष है. किरदारों और कहानी के उथलेपन को यह तकनीक द्वारा प्रदत्त गहराई से ढकने की कोशिश करती है. यही वजह है कि फ़िल्म की हिन्दुस्तान में प्रदर्शन तिथि को दो महीने से ऊपर बीत जाने के बावजूद कनॉट प्लेस के ’बिग सिनेमा : ओडियन’ में सप्ताहांत जाने पर हमें टिकट खिड़की से ही बाहर का मुँह देखना पड़ता है. मानना पड़ेगा, थ्री-डी अनुभव चमत्कारी तो है. पैन्डोरा के उड़ते पहाड़ और छूते ही बंद हो जाने वाले पौधे विस्मयकारी हैं. और एक भव्य क्लाईमैक्स के साथ वो मेरी उम्मीदें भी पूरी करती है. लेकिन मैं अब भी नहीं जानता हूँ कि अगर इसे एक सामान्य फ़िल्म की तरह देखा जाए तो इसमें कितना ’सत्त’ निकलेगा.

the-hurt-lockerदि हर्ट लॉकर : बहुत उम्मीदों के साथ देखी थी शायद, इसलिए निराश हुआ. बेशक बेहतर फ़िल्म है. लेकिन ’आउट ऑफ़ दि बॉक्स’ नहीं है मेरे लिए. कुछ खास पैटर्न हैं जो इस तरह की हॉलिवुडीय ’वॉर-ड्रामा’ फ़िल्में फ़ॉलो करती हैं, हर्ट लॉकर भी वो करती है. फिर भी, मेरी समस्याएं शायद इससे हैं कि वो जो दिखा रही है, आखिर बस वही क्यों दिखा रही है? लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि वो जिस पक्ष की कहानी दिखाना चाहती है उसे असरदार तरीके से दिखा रही है. एक स्तर पर ’दि हर्ट लॉकर’ की तुलना स्टीवन स्पीलबर्ग की फ़िल्म ’सेविंग प्राइवेट रेयान’ से की जा सकती है. लेकिन यहाँ मैं यह कहना चाहूँगा कि एक महिला द्वारा निर्देशित होने के बावजूद यह बहुत ही मर्दवादी फ़िल्म है. बेशक युद्ध-फ़िल्मों में एक स्तर पर ऐसा होना लाज़मी भी है. इसका नायक एक ’सम्पूर्ण पुरुष नायकीय छवि’ वाला नायक है. तुलना के लिए बताना चाहूँगा कि ’सेविंग प्राइवेट रेयान’ में जिस तरह टॉम हैंक्स अपने किरदार में एक फ़ेमिनिस्ट अप्रोच डाल देते हैं उसका यहाँ अभाव है.

मेरी नज़र में हर्ट लॉकर का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है उसका ’तनाव निर्माण’ और ’तनाव निर्वाह’. और तनाव निर्माण का इससे बेहतर सांचा और क्या मिलेगा, फ़िल्म का नायक एक बम निरोधक दस्ते का सदस्य है और इराक़ में कार्यरत है. मुझे न जाने क्यों हर्ट लॉकर बार-बार दो साल पहले आई हिन्दुस्तानी फ़िल्म ’आमिर’ की याद दिला रही थी. कोई सीधा संदर्भ बिन्दु नहीं है. लेकिन दोनों ही फ़िल्मों का मुख्य आधार तनाव की सफ़ल संरचना है और दोनों ही फ़िल्मों में विपक्ष का कोई मुकम्मल चेहरा कभी सामने नहीं आता. और गौर से देखें तो हर्ट लॉकर में वही अंतिम प्रसंग सबसे प्रभावशाली बन पड़ा है जहाँ अंतत: ’फ़ेंस के उधर’ मौजूद मानवीय चेहरा भी नज़र आता है. ’दि हर्ट लॉकर’ आपको बाँधे रखती है. और कुछ दूर तक बना रहने वाला प्रभाव छोड़ती है.

inglourious-basterdsइनग्लोरियस बास्टर्ड्स : मैं मूलत: टैरेन्टीनो की कला का प्रशंसक नहीं हूँ. मेरे कुछ अज़ीज़ दोस्त उसके गहरे मुरीद हैं. इस ज़मीन पर खड़े होकर मेरी टैरेन्टीनो से बात शुरु होती है. ’इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ शुद्ध एतिहासिक संदर्भों के साथ एक शुद्ध काल्पनिक कहानी है. ख़ास टैरेन्टीनो की मोहर लगी. इस फ़िल्म को आप टैरेन्टीनो के पुराने काम के सन्दर्भ में पढ़ते हैं. ’पल्प फ़िक्शन’ के संदर्भ में पढ़ते हैं. पिछली संदर्भित फ़िल्म ’दि हर्ट लॉकर’ की तरह ही ’इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ भी अपनी कथा-संरचना में ’तनाव निर्माण’ और ’तनाव निर्वाह’ को अपना आधार बनाती है. फ़िल्म का शुरुआती प्रसंग ही देखें, उसमें ’तनाव निर्माण’ और उसके साथ बदलता इंसानी व्यवहार देखें. आप समझ जायेंगे कि टैरेन्टीनो इस पद्धति के साथ हमारा परिचय इंसानी व्यव्हार की कमज़ोरियों, उसकी कुरूपताओं से करवाने वाले हैं.

और इस शुरुआती प्रसंग के साथ ही क्रिस्टोफर वॉल्टज़ परिदृश्य में आते हैं. मैं अब भी मानता हूँ कि फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाने वाले ब्रैड पिट का काम भी नज़र अन्दाज़ नहीं किया जाना चाहिए लेकिन वॉल्टज़ यहाँ निर्विवाद रूप से बहुत आगे हैं. उनका लोकप्रियता ग्राफ़ इससे नापिए कि अपने क्षेत्र में (सहायक अभिनेता) आई.एम.डी.बी. पर उन अकेले को जितने वोट मिले हैं वो बाक़ी चार नामांकितों को मिले कुल वोट के दुगुने से भी ज़्यादा है. ’इनग्लोरियस बास्टर्ड्स’ को सम्पूर्ण फ़िल्म के बजाए अलग-अलग हिस्सों में बाँटकर पढ़ा जाना चाहिए. यह टैरेन्टीनो को पढ़ने का पुराना तरीका है, उन्हीं का दिया हुआ. हिंसा की अति होते हुए भी उनकी फ़िल्म कुरूप नहीं होती, बल्कि वह एक दर्शनीय फ़िल्म होती है. जैसा मैंने पहले भी कहा है, वे हिंसा का सौंदर्यशास्त्र गढ़ रहे हैं. यह फ़िल्म उस किताब का अगला पाठ है. कई सारे उप-पाठों में बँटा.

up in the airअप इन दि एयर : जार्ज क्लूनी. जार्ज क्लूनी. जार्ज क्लूनी. और ढेर सारा स्टाइल. इस फ़िल्म का सबसे बड़ा बिन्दु मेरी नज़र में यही है. यह एक बेहतर तरीके से बनाई, सेंसिबल कहानी है जिसकी जान इसके ट्रीटमेंट में छिपी है. तुलना के लिए फ़रहान अख़्तर की फ़िल्में देखी जा सकती हैं. शहर दर शहर उड़ती इस फ़िल्म के किरदार कॉर्पोरेट में काम करने वाले मेरे दोस्तों को बहुत रिलेटेबल लग सकते हैं. फ़िल्म में बहुत से तीखे प्रसंग हैं जिन्हें कसी स्क्रिप्ट में पेश किया गया है. और वो बहन-साढू की तसवीर के साथ एयरपोर्ट-एयरपोर्ट घूमना तो बहुत ही मज़ेदार है. क्या पुरस्कार मिलेगा ये तो पता नहीं लेकिन सुना है कि यह कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों की दौड़ में दूसरे नम्बर पर भाग रही है. अगर आप इस रविवार एक ’अच्छी’ फ़िल्म देखकर अपनी शाम सुकून से बिताना चाहते हैं तो यह फ़िल्म आपके लिए ही बनी है.

district 9डिस्ट्रिक्ट 9 : नामांकनों की लम्बी सूची में यह सबसे चमत्कारी फ़िल्म है. जी हाँ, यह मैं बहुचर्चित ’अवतार’ थ्री-डी में देखने के बाद कह रहा हूँ. दरअसल मैं इसी फ़िल्म पर बात करना चाहता हूँ. ‘डिस्ट्रिक्ट 9’ आपको हिला कर रख देती है. ध्वस्त कर देती है. यह दूर तक पीछा करती है और अकेलेपन में ले जाकर मारती है. इस विज्ञान-फंतासी को इसका तकनीकी पक्ष नहीं, इसका विचार अद्भुत फ़िल्म बनाता है. ऐसा विचार जो आपको डराता भी है और आपकी आँखे भी खोलता है.

जिस तरह पिछले साल आयी फ़िल्म ’दि डार्क नाइट’ सुपरहीरो फ़िल्मों की श्रंखला में एक पीढ़ी की शुरुआत थी उसी तरह से ’डिस्ट्रिक्ट 9’ विज्ञान-फंतासी के क्षेत्र में एक नई पीढ़ी के कदमों की आहट है. ’डार्क नाइट’ एक सामान्य सुपरहीरो फ़िल्म न होकर एक दार्शनिक बहस थी. यह उस शहर के बारे में खुला विचार मंथन थी जिसकी किस्मत एक अनपहचाने, सिर्फ़ रातों को प्रगट होने वाले, मुखौटा लगाए इंसान के हाथों में कैद है. क्या उस शहर को किसी भी अन्य सामान्य शहर की तुलना में ज़्यादा सुरक्षित महसूस करना चाहिए? ठीक उसी तरह, ’डिस्ट्रिक्ट 9’ भी एक सामान्य ’एलियन फ़िल्म’ न होकर एक प्रतीक सत्ता है. हमारी धरती पर घटती एक ’एलियन कथा’ के माध्यम से यह आधुनिक इंसानी सभ्यता की कलई खोल कर रख देती है. विकास की तमाम बहसें, उसके भोक्ता, उसके असल दुष्परिणाम, हमारे शहरी संरचना के विकास की अनवरत लम्बी होती रेखा और हाशिए पर खड़ी पहचानों से उसकी टकराहट, भेदभाव, इंसानी स्वभाव के कुरूप पक्ष, सभी कुछ इसमें समाहित है. और इस बात की पूरी संभावना जताई जा रही है कि अपनी उस पूर्ववर्ती की तरह ’डिस्ट्रिक्ट 9’ को भी ऑस्कर में नज़रअन्दाज़ कर दिया जाएगा. ’सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म’ की दौड़ में उसका शामिल होना भी सिर्फ़ इसलिए सम्भव हो पाया है कि अकादमी ने इस बार नामांकित फ़िल्मों की संख्या 5 से बढ़ाकर 10 कर दी है.

अपनी शुरुआत से ही ’डिस्ट्रिक्ट 9’ एक प्रामाणिक डॉक्युड्रामा का चेहरा पहन लेती है. मेरे ख़्याल से यह अद्भुत कथा तकनीक फ़िल्म के लिए आगे चलकर अपने मूल विचार को संप्रेषित करने में बहुत कारगर साबित होती है. शुरुआत से ही यह अपना मुख्य घटनास्थल (जहाँ स्पेसशिप आ रुका है) अमरीका के किसी शहर को न बनाकर जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ़्रीका) को बनाती है और केन्द्रीकृत विश्व-व्यवस्था के ध्रुव को हिला देती है. एलियन्स का घेट्टोआइज़ेशन और उनका शहर से उजाड़ा जाना हमारे लिए ऐसा आईना है जिसमें हमारे शहरों को अपना विकृत होता चेहरा देखना चाहिए. और इस ’रियलिटी चैक’ के बाद कहानी जो मोड़ लेती है वो आपने सोचा भी नहीं होगा. फ़िल्म का अंतिम दृश्य एक कभी न भूलने वाला, हॉन्टिंग असर मेरे ऊपर छोड़ गया है. नए, बेहतरीन कलाकारों के साथ इस फ़िल्म का चेहरा और प्रामाणिक बनता है लेकिन तकनीक में यह कोई ओछा समझौता नहीं करती.

मैं आश्चर्यचकित हूँ इस बात से कि क्यों इस फ़िल्म के निर्देशक को हम इस साल के सर्वश्रेष्ठ निर्देशकों की सूची में नहीं गिन रहे? और शार्लटो कोप्ले (Sharlto Copley) जिन्होंने इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाई है को क्यों नहीं इस साल का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता गिना जा रहा? क्या, हिंसा की अति? इस फ़िल्म के मुख्य किरदार की समूची यात्रा (फ़िल्म की शुरुआत से आखिर तक का कैरेक्टर ग्राफ़) इतनी बदलावों से भरी, अविश्वसनीय और हृदय विदारक है कि उसका सर्वश्रेष्ठ की गिनती में न होना उस सूची के साथ मज़ाक है.

पोस्ट ’क्योटो’ और ’कोपनहेगन’ काल में यह कोरा संयोग नहीं है कि दो ऐसी विज्ञान फंतासियाँ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म की दौड़ में हैं जिनमें मनुष्य प्रजाति खलनायक की भूमिका निभा रही है. यह और भी रेखांकित करने लायक बात इसलिए भी बन जाती है जब पता चले कि बीते सालों में अकादमी विज्ञान-फंतासियों को लेकर आमतौर से ज़्यादा नरमदिल नहीं रही है. असल दुनिया का तो पता नहीं, लेकिन लगता है कि अब ’साइंस-फ़िक्शन’ सिनेमा अपनी सही राह पहचान गया है.

upअप : वाह, क्या फ़िल्म है. एक खडूस डोकरा (बूढ़ा) अपने घर के आस-पास फैलते जाते शहर से परेशान है. और वो अपने घर में ढेर सारे गुब्बारे लगाकर घर सहित उड़ जाता है, अपने सपनों की दुनिया की ओर! क्या कमाल की बात है कि यह एनिमेशन फ़िल्म भी हमारे यांत्रिक होते जा रहे शहरी जीवन और शहरी विकास के मॉडल पर एक तीखी टिप्पणी है. ’अप’ एनीमेशन फ़िल्म होते हुए भी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए नामांकित हुई है. इससे ही आप उसके चमत्कार का अंदाज़ा लगा सकते हैं. ख़ास बात देखने की है कि पिछले साल की विजेता ’वॉल-ई’ की तरह ही यह भी इंसानी सभ्यता के अंधेरे मोड़ की तरफ़ जाने की एक कार्टूनीकृत भविष्यवाणी है.

क्या आपको मालूम है :

– इस साल पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के दो सबसे बज़बूत दावेदार जेम्स कैमेरून (अवतार) और कैथेरीन बिग्लोव (दि हर्ट लॉकर) पूर्व पति-पत्नी हैं.

– तमाम अन्य पूर्ववर्ती पुरस्कार तथा सिनेमा आलोचक इस बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का मुकाबला इन्हीं दोनों पूर्व पति-पत्नी जोड़े के बीच गिन रहे हैं. लेकिन आम दर्शक के बीच आप क्वेन्टीन टैरेन्टीनो (इनग्लोरियस बास्टर्ड्स) की लोकप्रियता और प्रभाव का अन्दाज़ा इस तथ्य से लगा सकते हैं कि आई.एम.डी.बी. वेबसाइट पर पब्लिक पोल में ऑस्कर की पिछली रात तक भी वे दूसरे स्थान पर चल रहे थे.

– ऑस्कर के पहले मिलने वाला इंडिपेंडेंट सिनेमा का ’स्पिरिट पुरस्कार’ बड़ी मात्रा में ’प्रेशियस’ ने जीता है. कई सिनेमा आलोचक इस फ़िल्म में माँ की भूमिका निभाने वाली अदाकारा मोनिक्यू (Mo’nique) की भूमिका को इस साल का सर्वश्रेष्ठ अदाकारी प्रदर्शन गिन रहे हैं.

– अगर कैथरीन बिग्लोव ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार जीता (और जिसकी काफ़ी संभावना है.) तो वे यह पुरस्कार जीतने वाली पहली महिला होंगी. इससे पहले केवल तीन महिलाएं सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए नामांकित हुई हैं. लीना वार्टमुलर (Lina Wertmuller) ’सेवन ब्यूटीज़’ के लिए (1976), जेन कैम्पियन (Jane Campion) ’दि पियानो’ (1993) के लिए और बहुचर्चित ‘लॉस्ट इन ट्रांसलेशन’ (2003) के लिए सोफ़िया कोपोला (Sofia Coppola).

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@ Ashutosh.
कुछ तो दिल्ली में रहने का फ़ायदा है जो यहाँ कई महत्वपूर्ण (लेकिन रेयर) फ़िल्में सिनेमाघरों में प्रदर्शित होती हैं. और कुछ दोस्ताना लेन-देन (पब्लिक शेयरिंग) की मेहरबानी है जिसे दुनिया टॉरेन्ट के नाम से जानती है. अगर फ़िल्म थोड़ी भी चर्चित हुई है विदेशों में तो इस ज़रिए आसानी से मिल जाती है.

@Apoorva.
तुमने तो पूरा लेख ही लिख डाला भाई जवाब में! अच्छा है. तुम्हारी कही ज़्यादातर बातों से तो मैं भी सहमत ही हूँ. और जहाँ असहमतियाँ हैं भी वो शायद अलग नज़रिए की निशानी हैं. सो बनी रहनी चाहिये. हाँ ’पब्लिक एनिमी’ की तारीफ़ मैंने सुनी है, देखी नहीं. अब कोशिश करूँगा कि देखना संभव हो पाए.

सागर के ब्लॉग-रोल के बहाने पहली बार आपके ब्लॉग पर आने का सुअवसर मिला..और इतना गहन और रोचक विश्लेषण पढ़ कर आनंद आया…कि खुद को कुछ कहने से रोक नही पाया..
अब जबकि अकैडमी अवार्ड्स की घोषणा हो चुकी है और कतिपय परिणामों को छोड़ कर (जैसे मेरे ख्याल से बेस्ट फ़ारेन फ़िल्म) सभी पूर्वप्रत्याशित विजेता ही रहे हैं..पिछले कुछ सालों मे से सबसे ’प्रेडिक्टेबल’ विनर्स-लिस्ट..मगर आपकी इस पोस्ट की सामयिकता कायम है और सार्थकता भी….कुछ बातों पर मैं भी अपनी राय रखूँगा.
अवतार व डिस्ट्रिक्ट 9: डिस्ट्रिक्ट 9 के बारे मे आपकी राय से पूर्णतः सहमत हूँ…साइंस-फ़िक्शन होने के बावजूद जिस अविश्वसनीय ईमानदारी से यह फ़िल्म हमारे सामाजिक यथार्थ की नब्ज पक़ड़ लेती है वह अद्भुत है..कुछ-कुछ वृत्तचित्रात्मक ’नोट’ पर शुरू हो कर फिर अपने ’पेस’ व ’टेंशन’ द्वारा कथ्य पर मजबूत पकड़ से जहाँ यह फ़िल्म आगे बढ़ते हुए एक ’एजी थ्रिलर’ मे तब्दील हो जाती है..वहीं एक जबर्दस्त क्लाइमेक्स के द्वारा एक ’शॉक’ के साथ खत्म होती फ़िल्म ढेर सारे सवाल दे कर जाती है जो फिर दर्शक के जेहन मे देर तक घंटियों से बजते रहते हैं…जोहांस्बर्ग को केंद्र बनाने के बहाने ’फ़र्स्ट-वर्ल्ड कंट्रीज्‌’ की सत्ता पर प्रहार करने की आपकी निष्पत्ति पसंद आयी..वहीं यह भी ध्यान देने की बात है कि जोहानेसबर्ग मे ही अपना बचपन व्यतीत करने वाले इस फ़िल्म के डायरेक्टर नील ब्लॉकैम्प ने इस फ़िल्म मे अपनी ही एक पूर्ववर्ती शॉर्ट-फ़िल्म ’अलाइव इन जोबर्ग’ को ही विस्तार दिया है…जिसकी पृष्ठभूमि भी यही शहर है…इस फ़िल्म के नायक के रूप मे शार्लटो ने इस साल की सबसे बेहतरीन प्रफ़ार्मेंसेज्‌ मे से एक भूमिका दी है कि यह स्वीकार करना मुश्किल होता है कि यह उनका प्रथम अंतर्राष्ट्रीय असाइनमेंट है..उनका नोमिनेट न होना आश्चर्यजनक रहा….यहाँ एक बात अवतार और ’ड्स्ट्रिक्ट 9 ’ दोनो फ़िल्मों के बीच की कुछ ’स्ट्राइकिंग सिमिलैरिटीज’ का भी जिक्र करना चाहूँगा..दोनो ही सांइस-फ़िक्शन्स हैं जो मानवों के एलियन्स से संघर्ष की कहानी कहते हैं..मगर पूर्ववर्ती एलियन फ़िल्मों की लीक से हटते हुए दोनों फ़िल्में मनुष्य जाति को शोषक और हानिरहित एलियन्स को ’विक्टिम्स’ के रूप मे चित्रित करती हैं..दोनो फ़िल्मे मानवों के कमर्शियल हितों के लिये एलियन्स को उनके स्थान से विस्थापित करने की साजिशों को कथा की आधारभूमि बनाती हैं..दोनो के नायक श्वेत मनुष्य हैं जो अपने निजी हितों के चलते एलियन्स से मध्यस्थता (या विश्वासघात?) का काम स्वीकार करते हैं..और इसके लिये झूठ को अपना आधार बनाते हैं..मगर अंततः दोनो ही फ़िल्मों मे नायक अपनी ही जाति के विरुद्ध हो जाते हैं..दोनो ही फ़िल्मों की एलियन प्रजाति सरल, शांतिप्रिय, बेवकूफ़ और आपसी-संबंधों को तरजीह देने वाली हैं..और दोनों ही फ़िल्मों के अंत मे नायक स्वयं एलियन प्रजाति के सदस्य हो जाते हैं..इतने संयोग एक साथ चकित करते हैं..यह जानते हुए कि अवतार की कहानी जेम्स कमेरॉन ने १५ साल पहले ही लिख ली थी और डिस्ट्रिक्ट ९ के निर्देशक इसी कन्सेप्ट को अपनी पिछली शार्ट फ़िल्म मे कुछ वर्ष पहले दोहरा चुके थे..बहरहाल दोनो फ़िल्में पूँजीवाद के स्वार्थी व निजी फ़ायदे के लिये ’स्टॉप एट नथिंग’ एट्टीट्यूड को उघाड़ती हैं..यहाँ डिस्ट्रिक्ट 9 का स्लम व एलियन्स के साथ सामाजिक भेदभाव अफ़्रीका के ’अपार्थेड’ के लंबे व कुरूप इतिहास का नतीजा भी लगता है….अवतार के बारे मे आपने सही कहा है कि फ़िल्म का अस्ल चमत्कार उसका तकनीकी पक्ष है..दरअस्ल यह फ़िल्म अपने महाभव्य सेट्स, जादुई साज-सज्जा और इतर-लोकीय ट्रीटमेंट के द्वारा दर्शक पर जादुई प्रभाव डालती है और अपनी ’विजुअल भव्यता’ के द्वारा आपके संसेज्‌ को कैप्चर कर के रखती है..कि कथ्य स्तर की कमियाँ या नाटकीयता उपेक्षणीय हो जाती हैं..मगर उस जादू से बाहर आ कर फ़िल्म के कथ्य का डिटेल्ड निरीक्षण करने पर फ़िल्म उतनी प्रभावित करती नही लगती..मगर जो भी हो यह फ़िल्म कम से कम तकनीक के क्षेत्र मे एक नयी क्रांति जरूर करती है..और इसे पसंद करने के लिये किसी को इंटेलेक्टुअल होने की जरूरत भी नही होती..जो कैमेरॉन की फ़िल्मों की एक बड़ी सफ़लता है..

द हर्ट-लॉकर: मुझे लगता है कि स्रर्वश्रेष्ट फ़िल्मों मे नामांकित फ़िल्मों मे से इसे पुरस्कार मिलना एक सही निर्णय है (कम से कम जितनी मैने देखी हैं उनमे)..मैं इसकी तुलना ’सेविंग प्राइवेट रायन’ से नही करूंगा….इस फ़िल्म की सार्थकता और ’यूनीकनेस’ का अंदाजा ऐसे भी कर सकते हैं कि मेरा एक मित्र जो ’वार-फ़िल्म्स’ का बेहद शौकीन है, इस फ़िल्म को ऊँची उम्मीदों के साथ देखने के बाद निराश हुआ, कि इसमे युद्ध संबंधी फ़िल्मों के टिपिकल मसाले नही मिले..वैसे भी मैं ’वार-मूवीज्‌’ उनको मानता हूँ जो युद्ध का और युद्धवीरता का गुणगान करें व उसे ग्लैमरस रूप मे प्रस्तुत करें (’इंग्लॉरियस बास्टर्ड्स’ और काफ़ी हद तक ’सेविंग प्रायवेट रायन’ को इस कैटेगरी मे रख सकते हैं!..इन्ग्लॉरियस बास्टर्ड्स फ़िल्म के अंदर की फ़िल्म जिसकी स्क्रीनिंग हिटलर के लिये की जाती है शूरवीरता के इस ग्लैमर को अच्छे से सामने रखती है) ज्यादा संवेदनशील ’एंटी-वार मूवीज्‌’ होती हैं जो युद्ध के प्रति वितृष्णा पैदा करें और युध्दों की प्रासंगिकता जैसे मूलभूत सवाल का जवाब खोजने की कोशिश करें..इस सिलसिले मे मुझे ’अपोकैलिप्स नाउ’, ’कम ऐंड सी’ (रशियन) और ’ताइगुक्गी’ (कोरियन) जैसी फ़िल्मे याद आती हैं..’हर्ट-लॉकर’ मुझे इन कैटेगरीज्‌ से इतर अपना एक ’सब-जेनर’ स्थापित करती लगती है..जो मेरे ख्याल से युद्ध-भूमि को अपनी पृष्ठभूमि बनाती हुई सबसे विषम, ’अन्प्रेसेडेंटेड’ और ’एक्स्ट्रीम’ परिस्थितियों मे मानवों की ’रिएक्शन्स’ की जाँच-पड़ताल करती है, और यह वे रिएक्शन्स हैं जो देश-काल-समाज से अर्जित ज्ञान/अनुभव आधारित नही वरन्‌ मानवीय स्वभाव का मूलभूत और ’नेचुरल’ हिस्सा हैं..और इस बहाने सभ्यता के आवरण के बीच छिपे हमारे आदिम संस्कार और जिजीविषा उघड़ कर सामने आती है..यह एक रोचक सवाल हो सकता है कि फ़िल्म का ’प्रोटैगनिस्ट’ जो खतरे के मुँह मे हँसते हुए घुस जाता है तो अपने सीनियर्स की अवज्ञा करके बेवजह जान का जोखिम लेने की उसकी यह आदत उसके देश-प्रेम, मरीन-ट्रेंनिंग अथवा साथियों के प्रति अतिशय अनुराग की उपज है या खतरों से खेलने की उसकी ’नेचुरल इंस्टिक्ट’?..अगर यही नायक इराकी उपद्रवकर्ताओँ की तरफ़ से होता तो भी क्या उसमे अमेरिकन्स के खिलाफ़ भी यही दुर्दम्य साहस नही होता?…इसे देख कर सवाल आता है कि मानव-स्वभाव मे मूलभूत क्या है..जातीय/धार्मिक/राष्ट्रीय भावनाएं या खालिस ’थ्रिल’ और ’इगो’ की आकांक्षा वाली यह ’बेसिक-इंस्टिक्ट’? और समझ भी आता है कि वर्ल्ड-ट्रेड-सेंटर से प्लेन को टकराने वाले ’सुइसाइड-बॉंम्बर्स’ को क्या चीज प्रेरित करती रही होगी….फ़िल्म पाइरेटेड फ़िल्में बेचने वाले इराकी बच्चे के बहाने युद्ध के सार्वत्रिक प्रभाव और उसके बीच पनपती, सब कुछ पुनः सामान्य होने की कामना करती जिजीविषा तथा अंततः उसकी ’कैजुअलिटी’ भी बहुत संप्रेषणीय बनी है..यह फ़िल्म कोई विजुअल संतुष्टि नही देती वरन्‌ बेचैन करती है और हमारी समझ के लिये सवाल खड़े करती है..

अप इन द एयर: सच कहा आपने कि यह फ़िल्म पूरी तरह से जार्ज क्लूनी के ’चार्म’ और उनके दमदार अभिनय को भुनाती है..साथ ही ’रिसेशन’ के समय मे फ़िल्म का ’कार्पोरेटीय-हाइपोक्रिसी’ का व्यंगात्मक चित्रण भी फ़िल्म का सबल पक्ष है..हालांकि मुझे लगता है फ़िल्म शुरुआत मे जितनी मजबूती और ’सैटायरिकल’ तरीके से मंदी के दौर मे एक ओर नायक के व्यावसायिक दायित्वों के बहाने कारपोरेट वर्ल्ड की निष्ठुरता और दूसरी ओर ’फ़्लाइंग-माइल्स’ के बहाने नायक की अपनी अशमनीय लालसाओं को पेश करती है…मध्यांतर आते आते फ़िल्म रिलेशनशिप की गुत्थियों मे उलझ कर अपने प्रमख पक्ष को नजरंदाज कर देती..मगर जैसे वीडियोकॉन्फ़्रेंस के जरिये कर्मचारियों को ’फ़ायर’ करने का मितव्यतितापूर्ण तरीका देने वाली सहनायिका का एस एम एस के द्वारा ’ब्रेक-अप’ होने के बहाने कमर्शियल-रिलेशनशिप्स के साथ मे व्यक्तिगत रिलेशन्शिप्स की समानता का संदेश इस समय के लिये बहुत जरूरी भी है..और शायद फ़िल्म का निहितार्थ भी…

इन्ग्लॉरियस बास्टर्ड्स: टैरेंटीनों अब फ़िल्म मेकिंग का स्व्वयं मे एक स्कूल बन चुके हैं..और ’रिजर्वायर डॉग्स’ एवं ’पल्प-फ़िक्शन’ आदि के द्वारा ’स्टाइल’ के सामने कथ्य को गैरजरूरी बना देना फ़िल्म-निर्माण मे एक क्रांति की तरह रहा…मगर यह फ़िल्म उनकी पिछली कुछ फ़िल्मो से कोसों पीछे रह जाती है..कम-स-कम मेरी नजरों मे…फ़िल्म जितने प्रभावकारी और रूह ठंडा कर देने वाले दृश्य के साथ शुरू होती है..आगे बढ्ने के साथ शनै-शनैः अपने उस प्रभाव को खोने लगती है और चिर-प्रचिलित फ़ार्मूलों की शरण मे जाने लगती है..अवास्तविक क्लाइमेक्स अंत मे फ़िल्म की इंटेंसिटी को पूरी तरह ठंडा कर देता है…उनकी ही ’रिजर्वायर डाग्स’ के सामने यह फ़िल्म मुझे वैसी ही लगी जैसी कि विशाल की ’मकबूल के सामने ’कमीने’..दोनो ही फ़िल्में प्रभावी नोट पर शुरू होती हैं..और घटनाओं की द्रुत-गति को अपना आधार बनाती हैं…दोनों ही फ़िल्में दो अलग-अलग कहानियों को ले कर चलती हैं और कथ्य-प्रवाह के द्वारा ’टेंशन-बिल्डअप’ पर आश्रित रहती हैं..अंत मे दोनो कहानियों को एक साथ जोड़ कर एक अतिशय नाटकीय और पूर्णतः अविश्वसनीय ’क्लाइमेक्स’ के अंत मे ’दुष्टों’ का सर्वनाश होता है और नायक (ब्रड पिट व शाहिद कपूर) की परिणिति ’हैपी एवर आफ़्टर’ की ओर अग्रसर होती है..दोनो ही ’क्राउड-प्लीजिंग फ़ार्मूलों ’ व अतिरेकी मगर ग्लैमरस हिंसा से भरपूर हैं..और दोनों के अंत मे दर्शक किसी नैतिक दुविधा को दिमाग मे लिये बिना ’पैसा-वसूलने’ के संतोष के साथ घर जाता है..हालाँकि इस फ़िल्म के इंटर्टेन्मेंट-वल्यू’ के बारे मे कोई शक नही है… मगर सबसे उल्लेखनीय पक्ष रहा ऑस्ट्रियन कलाकार क्रिस्टॉफ़ वाल्ट्‍ज का दमदार अभिनय..एक निर्मम मगर बेहद इंटेलीजेंट नाजी अफ़सर की ’स्पाइन-चिलिंग’ भूमिका निभाकर वो ’साइलेंस ऑव द लैंब्स’ के अंथनी हॉपकिंस, ’नो कंट्री फ़ॉर ओल्ड मैन’ के जेवियर बार्डीन और ’द डार्क नाइट’ के हेथ लेजर से बस कुछ कदम पीछे ही खड़े हैं..
अप: कोई शक नही कि फ़िल्म प्रभावित करती है और इस साल की सर्वश्रेष्ठ एनिमेशन की हकदार भी….मगर पिक्सर का एनिमेशन फ़िल्म के कथ्य व उसके ट्रीटमेंट का एक फ़ार्मेट सा बनता जा रहा है जो कुछ रिपिटेशन का अहसास देता है..वैसे भी ’रतातुई’ और पिछ्ले साल की ’वाल-ई’ के द्वारा पिक्सर/डिस्ने ने खुद के लिये इतनी बड़ी लकीर खींच दी है कि उसे पार करना सहज नहीं..हाँ ’नाइन’ को नामांकन भी न मिलना आश्चर्यचकित करने वाला रहा…
इसके अतिरिक्त भी कुछ फ़िल्में रही जिनका नामांकन सूची मे जिक्र न होना बड़ा अजीब लगा…एक तो जैक श्नाइडर की ’वाचमेन’ का जिक्र करूंगा..जो मेरे लिये तो पिछले वर्ष की सबसे पसंदीदा हालीवुड फ़िल्म रही… ’द डार्क नाइट’ के बहाने जिस दार्शनिक बहस की शुरुआत का आपने जिक्र किया है..यह बेहद ’इंटेंस’ फ़िल्म उस बहस को अगले लेवल तक ले जाती है..और सुपरहीरोज्‌ के बहाने स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्तियों पर तीखा दृष्टिपात करती है..इसकी पूर्ण उपेक्षा चकित करने वाली रही..दूसरी जिस जरूरी फ़िल्म को नजरंदाज किया गया वह थी ’पब्लिक एनिमीज’..बेहद शक्तिशाली और कसावट भरे निर्देशन मे बनी यह फ़िल्म भी दिमाग मे अपना प्रभाव छोड़ती है..और खासकर जॉनी डेप को एक बार फिर नजरंदाज करना ऐकेडमी की एक कमी ही रही है..

माफ़ करना दोस्त आपकी पोस्ट पढ़ कर काफ़ी कुछ फ़ालतू बकवास कर गया..और फिर भी कितना कुछ छूट गया…एक अच्छे और रोचक लेख के लिये शुक्रिया!!!

i can`t comment on these comments cause i haven`t any of these films.
but your critic is becoming valuable for me due to it`s reachness,seriousness,deepness and cause you includes technical aspects of films also.
I want to know now that where do you see these films .
please tell me the source. I am also very keen of films.

ओह क्या शानदार ढंग है आपका…और शत-प्रतिशत सहमत हूँ, आपसे….आपका फीड संजो रहा हूँ…!