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एक फ़िल्म, एक उपन्यास और गांधीगिरी का अंत.

3-idiotsfivepoint1यूँ देखें तो मेरा राजकुमार हीरानी के सिनेमा से सीधा जुड़ाव रहा है. मेरा पहला रिसर्च थिसिस उनकी ही पिछली फ़िल्म पर था. तीन महीने दिए हैं उनकी ’गांधीगिरी’ को. ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के गांधीगिरी सिखाते गांधी ’सबाल्टर्न’ के गांधी हैं. किसी रिटायर्ड आदमी को उसकी पेंशन दिलवाने का नुस्खा बताते हैं तो किसी युवा लड़की को उसका जीवन साथी चुनने में मदद करते हैं. ये ’आम आदमी’ के गांधी हैं. यहाँ ज़ोर उनके एतिहासिक व्यक्तित्व पर नहीं उनके जीवन जीने के तरीके पर है. ’गांधीगिरी’ यहीं से निकली. राजू की फ़िल्म उन्हें इतिहास के ’महावृतांतों’ की कैद से आज़ाद करवाती है. कई मायनों में मुन्नाभाई श्रृंखला की फ़िल्में जेनर डिफ़ाइनिंग फ़िल्में हैं क्योंकि वे हिन्दी सिनेमा से ते़ज़ी से गायब होते जा रहे तत्व ’स्वस्थ्य हास्य’ को सिनेमा में सफलता के साथ वापस लेकर आती हैं.

लेकिन कहना होगा कि यहाँ वे गलती पर हैं. और अगर मैं अब तक के उनके सिनेमा को थोड़ा भी समझ पाया हूँ तो उसी तर्क पद्धति का सहारा लेकर कहूँगा कि यहाँ मेरे लिए सिर्फ़ दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं. एक यह कि उनकी फ़िल्म एक लेखक की किताब पर आधारित है और दूसरा यह कि उन्होंने उसी लेखक का नाम ले जाकर सबसे कोने में कहीं पटक दिया है. काग़ज़, पैसा, कितने प्रतिशत कहानी किसकी, किसने कब क्या बोला, ये सारे सवाल बाद में आते हैं. सबसे बड़ा सवाल है अच्छाई, बड़प्पन और ईमानदारी जो हमने उनकी ही रची ’गांधीगिरी’ से सीखी हैं. यह तो वे भी नहीं कह रहे कि उनकी फ़िल्म का चेतन भगत के उपन्यास से कोई लेना-देना नहीं. बाकायदा उपन्यास के अधिकार खरीदे गए हैं और कुल-मिलाकर ग्यारह लाख रु. का भुगतान भी हुआ है. तकनीकी रूप से उनपर इतनी बाध्यता थी कि वे फ़िल्म के क्रेडिट रोल में चेतन भगत का नाम दें और फ़िल्म के आखिर में उनकी किताब का नाम देकर उन्होंने उसे पूरा भी कर दिया है. लेकिन सहायकों, तकनीशियनों और स्पॉट बॉयज़ की भीड़ में कहीं (मैं तो तलाश भी नहीं पाया) चेतन का नाम छिपाकर उन्होंने अपनी ईमानदारी खो दी है.

“हमारी फ़िल्म एक उपन्यास पर आधारित है.” यह कहने से आपकी फ़िल्म छोटी नहीं होती है. मेरी नज़र में तो उसकी इज़्ज़त कुछ और बढ़ जाती है. विधु विनोद चोपड़ा ने चेतन भगत के सामने अभिजात जोशी को खड़ा करने की कोशिश की है और कहा है कि वे फ़िल्म के असल लेखकों का हक़ मारना चाहते हैं. यह छद्म प्रतिद्वंद्वी खड़ा करना है. चेतन भगत ने कभी भी फ़िल्म की पटकथा पर अपना हक़ नहीं जताया जिसे अभिजात जोशी और राजू हीरानी ने मिलकर काफ़ी मेहनत से तैयार किया है. ’थ्री इडियट्स’ की पटकथा इस साल आए सिनेमा की सबसे बेहतरीन और कसी हुई पटकथाओं में से एक है जिसमें हर कथा सूत्र अपने मुकम्मल अंजाम तक पहुँचता है चाहे वो एक छोटा सा फ़ाउंटन पेन ही क्यों न हो. इस कसी हुई पटकथा के लिए उन्हें भी उतना ही सम्मान मिलना चाहिए जितना ’स्लमडॉग मिलेनियर’ के पटकथा लेखक साइमन बुफॉय को ऑस्कर से नवाज़ कर दिया गया था. सवाल तो विधु विनोद चोपड़ा से पूछा जाना चाहिए जो कहानी लेखन में दो लेखकों का नाम पहले से होते ’को-राइटर’ के तौर पर अलग से फ़िल्म के टाइटल्स में नज़र आते हैं. और सवाल उन सभी निर्देशकों से पूछा जाना चाहिए जो अपनी फ़िल्म में लेखक का नाम पहले से मौजूद होते शान से अपने नाम के आगे ’लेखक और निर्देशक’ की पदवी लगाते हैं. सलीम-जावेद के हाथ में पेंट का डब्बा लेकर अपनी फ़िल्मों के पोस्टरों पर अपना ही नाम लिखते घूमने के किस्से इसी सिनेमा जगत के हैं. चेतन सिर्फ़ फ़िल्म की शुरुआत में अपनी किताब का नाम चाहते हैं. इसके अलावा वो अपनी ज़िन्दगी में कुछ भी करते हों, मुझे उससे मतलब नहीं. इस मुद्दे पर मैं उनके साथ हूँ. यहाँ सवाल व्यक्ति का नहीं, सही और गलत का है.

एक और बात है. एक व्यापक संदर्भ में हमारे लिए यह खतरे की घंटी है. इस प्रसंग में ’सबका फ़ायदा हुआ’ कहने वाले यह नहीं देख पा रहे हैं कि इस सारे ’मीडिया हाइप्ड’ प्रसंग के गर्भ में एक अदृश्य लेखक छिपा है. डरा, सहमा सा. वो लेखक न तो चेतन की तरह मीडिया का चहेता लेखक है और न ही उसकी भाषा इतनी ताक़तवर है कि सत्ता के बड़े प्रतिष्ठान उसकी किसी भी असहमति पर ध्यान दें. उसके पास बस उसके शब्द हैं, उसकी कहानियाँ. उसकी क़लम, उसकी रचनात्मकता जिससे वह इस बहरूपिए वर्तमान के मुखौटे की सही पहचान करता है. अपने जीवन की तमाम ऊर्जा को बाती में तेल की तरह जलाकर इस समय और समाज की उलझी जटिलताओं को अपने पाठकों के लिए थोड़ा और गम्य बनाता है. हिन्दुस्तान की क्षेत्रीय भाषाओं का यही ईमानदार लेकिन गुमनाम लेखक है जिसका इस सारे तमाशे में सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ है.

यहाँ सबसे मुख्य बिन्दु यह है कि आज भी हिन्दी सिनेमा किसी किताब से, रचना से अपना नाम जोड़कर कोई खुशी, कोई गर्व नहीं महसूस करता. यहाँ तो जिस किताब का ज़िक्र है वो अंग्रेज़ी भाषा की एक बेस्टसेलर पुस्तक है. यहाँ यह हाल है तो हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लेखकों का क्या हाल होगा जिनके नाम के साथ चेतन भगत के नाम जैसा कोई ग्लैमर भी नहीं जुड़ा है. अगर हमारे सिनेमा का अपने देश के साहित्य और कला से ऐसा और इतना ही जुड़ाव रहा तो हिन्दी सिनेमा विदेशी सिनेमा (पढ़ें हॉलीवुड) की घटिया नकल बनकर रह जाएगा जिसके पास अपना मौलिक कुछ नहीं बचेगा. अपनी ज़मीन के कला-साहित्य से जुड़ाव से सिनेमा माध्यम हमेशा समृद्ध होता है. मल्टीपलैक्स का दौर आने के बाद से मुख्यधारा का हिन्दी सिनेमा वैसे भी अपने देश के गांव-देहात से, उसके आम जनमानस से कटता जा रहा है. ऐस में उसका अपने देश के लेखन और ललित कलाओं से भी असहज संबंध खुद सिनेमा के लिए भी अच्छा नहीं है.

आपको ऐसी कितनी हिन्दी फ़िल्में याद हैं जिनकी शुरुआत में किसी किताब का नाम शान से लिखा आता हो? मैं ऐसी फ़िल्मों का इंतज़ार करता हूँ. राजकुमार हीरानी से मुझे इसकी उम्मीद थी. ’थ्री इडियट्स’ हमारे लिए वो फ़िल्म होनी थी.

तो क्या यह भविष्य के लिए सभी उम्मीदों का अंत है? क्या यह साहित्य सर्जक के लिए सिनेमा माध्यम में बंद होते दरवाजों में आखिरी दरवाजा था?

नहीं, कुछ छोटे-छोटे टिमटिमाते तारे हैं. कुछ मुख्यधारा में और कुछ हाशिए पर कहीं. एक परेश कामदार हैं जो अपनी फ़िल्म (खरगोश) के पीछे मौजूद मूल कहानी के लेखक को फ़िल्म के पहले सार्वजनिक शो पर मुख्य अतिथि की तरह ट्रीट करते हैं और उनके साथ आए तमाम दोस्तों को अपनी जेब से कॉफ़ी पिलवाते हैं. एक विशाल भारद्वाज हैं जो अपनी नई फ़िल्म (कमीने) में टाइटल्स की शुरुआत होते ही पहले किन्हीं केजतान बोए साहब का शुक्रिया अदा करते हैं जिन्होंने युगांडा की एक फ़िल्म वर्कशॉप में उन्हें पहली बार यह स्टोरी आइडिया सुनाया था.

जैसा राजू हीरानी ने ’लगे रहो मुन्नाभाई’ में बताया था, एक-एक गांधी हम सबके भीतर हैं. बस हमारे आँखें बंद करने की देर है.

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मूलत: ’डेली न्यूज़’ के ’हम लोग’ में प्रकाशित. 10 जनवरी 2010.

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@ Varun
बिलकुल. वैसे ही जैसे चेतन भगत मुझे पसंद है या नापसंद उससे इस मुद्दे पर मेरी राय पर कोई असर नहीं पड़ता.

@Tarun
सही बात है. गीतकार के साथ भी यही बात लागू होती है. वो एक लेखक होने की वजह से बच नहीं सकता. इस सवाल पर प्रसून जोशी भी उतने ही सवालों के घेरे में हैं. हमें पसंद हैं इसलिए और ज़्यादा मन खट्टा होता है. उनकी ईमानदारी भी कहीं न कहीं खोई है इस प्रसंग में.
लेकिन एक बात से मैं अभी भी असहमत हूँ. अपने लेखन को व्यवसाय बनाने वाले आदमी को भी अपने काम का क्रेडिट पाने का उतना ही हक़ है जितना किसी ’धर्मार्थ सेवा’ करने वाले को. अगर यह कहा जाने लग जाए कि लेखन को व्यवसाय बनाने वाले आदमी को फिर कोई ईमानदारी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए तो फिर तो इस समाज में लेखकों का जीना मुश्किल हो जाएगा.

तुमने बहुत मार्के की बात कही. क्या बात कही है यार, बहुत दम है तुम्हारी बात में, वाकई सवाल सिर्फ सही गलत का …………इस तरह की बातें में भी कह सकता हूँ पर दोस्त सवाल तो ये है सवाल सिर्फ सही और गलत का नहीं है इस प्रोफेशनलीटी के दौर में इसकी उम्मीद बेमानी जान पड़ती है. 3idiots और मुन्नाभाई ने एक नई तरह की नैतिकता(गांधीगिरी) को हमारे सामने रखा लेकिन ये नैतिकता गाँधी बाबा की नैतिकता नहीं थी ये प्रोफेश्नेलीटी की पैदाइश थी हमें ये बात समझनी होगी; तुम्हे याद है एक एक गाँधी हम सब के भीतर छिपा है लेकिन हमारे ही भीतर इसका विलोम है तुम्हे ये भी पता होगा;
delhi ६ के गीतकार प्रसून जोशी जिसे हम सब समकालीन गीतकारों में एक आइकोन की हैसियत देते है वे इससे पहले छत्तीसगढ़ की जोशी बहनों के साथ इस तरह की प्रोफेशनलीटी अपना चुके है वहाँ सवाल सिर्फ ये बताने का था कि बेसिकली यह गीत(सास गारी देवे…) जोशी बहनों का है न की प्रसून का. वह नाम ऊपर दिया जाये या नीचे सवाल ये नहीं था; जिसके एवेज में उनका सवाली-जवाब ये था की नाम दिया ही क्यों जाए? रही बात चेतन भगत की तो अगर सही और गलत के एंगल से देखें तो जिस तरह से प्रसून(राकेश ओमप्रकाश महरा) गलत थे राजकुमार हिरानी भी गलत ही ठहराएं जाएँगे. शायद दिल्ली-६ पर तुम्हारा कोई लेख नहीं आया लेकिन तुमने इस पर लिखा अच्छा लगा..
चेतन भगत को क्या ११ लाख लेते वक़्त वाकई पता नहीं था की उनका नाम फिल्म के अंत में न दिखाई देने वाले अक्षरों के तेहत आएगा( जहां तक मेरी जानकारी है इस सब का एग्रीमेंट तो पहले ही हो गया होगा)? इस प्रोफेशनल समय में प्रसून जोशी राजकुमार हिरानी,के साथ चेतन वाकई ईमानदार बने हुए है? शंका होती है जब आप अपने लेखन को व्यवसाय बनाते है तो क्या वाकई सही और गलत या ईमानदारी जैसे शब्दों की गुंजाईश बाकी रह जाती है?

खरी बात! मुद्दा % का नही, काग़ज़-पत्तर का नहीं – मुद्दा सिर्फ़ ये है कि फिल्म किताब पर बनी थी और उसका नाम आना चाहिए था. अब बस यही एक सूरत है कि चेतन को पहले से मालूम था कि नाम अंत में ही आएगा और उसने इसकी इजाज़त जान समझ कर दी. उसके बावजूद किसी तमीज़ वाले इंसान ने ऐसे काम के लिए इजाज़त माँगी या चाल चली, यही बताता है कि हालात क्या हैं और छोटा-मोटा लेखक तो इन ‘बापू के बंदरों’ के सामूहिक ‘चमत्कार’ का शिकार हो के रह जाए.

बस एक ही बात मैं कहूँगा मेरे हिसाब से मायने नहीं रखती – वो ये कि हीरानी ने इससे पहले मुन्नाभाई बनाई थी इससे ये अपराध घट या बढ़ नहीं जाता. वो बड़े निर्देशक हैं और उनके साथ इस काम में चोपड़ा और आमिर जैसे ‘इज़्ज़तदार’ लोग खड़े थे – यही सबसे दुख की बात है.

मार्केट के आदमी से नैतिकता कि उम्मीद क्यों। जो बिकता वही तो दीखता है। चेतन भगत के साथ हुए विवाद ने फिल्म को फायदा ही पहुँचाया। जो आमिर कहाँ प्रमोशन के लिए बनारस और कोलकाता जा सकते हैं, उन्हें भला यह विवाद बुडा क्यों लगेगा।http://raviranjankumar1983.blogspot.com/