“मुझे यह उपन्यास लिखकर कोई खुशी नहीं हुई. क्योंकि आत्महत्या सभ्यता की हार है. परन्तु टोपी के सामने कोई और रास्ता नहीं था. यह टोपी मैं भी हूँ और मेरे ही जैसे और बहुत-से लोग भी हैं. हम लोगों में और टोपी में केवल एक अन्तर है. हम लोग कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी अवसर पर ’कम्प्रोमाइज’ कर लेते हैं. और इसलिए हम लोग जी भी रहे हैं. टोपी कोई देवता या पैग़म्बर नहीं था. किन्तु उसने ’कम्प्रोमाइज’ नहीं किया. और इसलिए उसने आत्महत्या कर ली. परन्तु ’आधा गाँव’ ही की तरह यह किसी आदमी या कई आदमियों की कहानी नहीं है. यह कहानी भी समय की है. इस कहानी का हीरो भी समय है. समय के सिवा कोई इस लायक़ नहीं होता कि उसे किसी कहानी का हीरो बनाया जाए.
’आधा गाँव’ में बेशुमार गालियाँ थीं. मौलाना ’टोपी शुक्ला’ में एक भी गाली नहीं है. –परन्तु शायद यह पूरा उपन्यास एक गन्दी गाली है. और मैं यह गाली डंके की चोट पर बक रहा हूँ. यह उपन्यास अश्लील है — जीवन की तरह.” –राही मासूम रज़ा.
‘टोपी शुक्ला’, राजकमल प्रकाशन,
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज,
नई दिल्ली, 110002.
Kya tagdi line hai. Dhoondhte hain jaldi hi. (Ab Bambayi mein toh ‘dhoondhna’ hi padta hai Hindi kitaab ko.)
बिल्कुल सही बात..