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भोलेपन के बियाबान में भटके: अजब प्रेम की गजब कहानी

Ajab-Prem-Ki-Ghazab-Kahaniस्याह व्यंग्य वाली समझदार फ़िल्मों के दौर में (पढ़ें ’डार्क कॉमेडी’ जैसे ‘संकट सिटी’, ‘ओये लक्की लक्की ओये’) ’अजब प्रेम की गजब कहानी’ एक पुराने ज़माने की भोली और भली कॉमेडी है. इतनी भली कि कई बार आपको उसका नायक मंदबुद्धि लगने लगता है. माना रणवीर कपूर में एक चार्म है और वो ’मेरा नाम जोकर’ में आये अपने पिता के भोलेपन की याद दिलाते हैं लेकिन यहाँ तो नायक के साथ समस्त समाज और वातावरण ही एक अजब/गजब के भोलेपन से ग्रस्त है. और अगर आप उसे एक कॉमेडी न मानकर प्रेम कहानी मानकर भी पढ़ें तो भी समस्या हल नहीं होती क्योंकि ’लव आजकल’ जैसी स्मार्ट प्रेम कहानियों के दौर में ’अजब प्रेम की गजब कहानी’ एक अजायबघर से आयी चीज़ ही ज़्यादा नज़र आती है. गौर करें, नायक का जब दिल भर आता है तो वो हकलाने लगता है. और नायिका का जब दिल भर आता है तो वो भी हकलाने लगती है! ’अजब प्रेम की गजब कहानी’ देख कर एक बार फिर यह समझ आता है कि राजकुमार संतोषी, सुभाष घई, एन चन्द्रा जैसे लेट एट्टीज़ और अर्ली नाइंटीज़ के धुरंधर अभी तक अपने पुराने चोले से बाहर नहीं निकल पाये हैं. शायद इसकी वजह यह है कि दुनिया इन्हें अपने फॉर्मूलों और बड़े स्टार पुत्रों के साथ पीछे छोड़कर कहाँ आगे निकल गई है इन्होंने कभी आँख खोलकर देखना ज़रूरी ही नहीं समझा.

कुल कहानी का लब्बोलुबाब यह है कि प्रेम (रणवीर कपूर) पिता की नज़रों में बेकार, आवारा लेकिन दिल का हीरा और बहुत ही अच्छा लड़का है. और अगर आपको नायक की अच्छाई में कोई शक हो तो निर्देशक संतोषी शुरुआत के आधे घंटे नायक की इस अच्छाई को स्थापित करने में पूरा ज़ोर लगाते हैं. शुद्ध हिन्दी फ़िल्मों में पाई जाने वाली टिपिकल ’धर्मनिरपेक्षता’ की स्थापना के तहत हमारा आवारा लेकिन उच्च कुल का हिन्दू नायक नायक अपने मुस्लिम दोस्त को अपने प्यार से मिलवाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाता है. इसी बीच नायक टकराता है नायिका (कैटरीना कैफ़) से और उसे पहली नज़र में ही प्यार हो जाता है. इंटरवेल के ठीक पहले ट्विस्ट आता है और इंटरवेल के ठीक बाद एक नयनाभिराम लोकेशन पर फ़िल्माया दुख भरा गीत. लेकिन हमारा नायक इतना अच्छा है कि वो अपनी प्रेमिका को भी उसके प्यार से मिलवाने के लिए जान की बाज़ी लगा देता है. और आप दुखी भी नहीं होते क्योंकि ’कहानी में ट्विस्ट’ के रूप में आये ’ऑल बॉडी, नो ब्रेन’ उपेन पटेल को देखते ही आप समझ जाते हैं कि अन्तत: इस फ़िल्म की हैप्पी एंडिंग होनी है.

पिछले दिनों अनुराग कश्यप ने ओशियंस में कहा कि मेरे लिए आधी फ़िल्म तब पूरी हो जाती है जब मैं अपनी कहानी के लिए सही लोकेशन ढ़ूँढ़ लेता हूँ. लोकेशन मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण किरदार है. ’देव डी’ और ’आमिर’ के इस दौर में आई ’अजब प्रेम की गजब कहानी’ में आरे कॉलानी के किसी कोने में बने कार्डबोर्ड के गिरजे के आस-पास बसे इस नकली कस्बे को देख कर गुस्सा नहीं आता बल्कि तरस आता है. एक अदद प्यार करने वाली माँ, एक अदद मुस्लिम दोस्त, एक अदद अनाथ क्रिश्चियन नायिका, एक अदद मिमिक्री करने वाला गरीब डॉन और अंत में सब अच्छा. तरस इसलिए क्योंकि इस तरह की फ़िल्मों को तो अब लुप्तप्राय: की प्रजाति में डाल देना चाहिए. हमारे यहाँ इस तरह की फ़िल्मों के लिए एक ख़ास शब्द प्रचलित है, ’फर्जी’. आप असहमत हो सकते हैं लेकिन मेरा मानना है कि आने वाले कुछ सालों में हम इस तरह के सिनेमा को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगे. आपका पता नहीं, लेकिन मैं गिलास को हमेशा आधा भरा देखना पसन्द करता हूँ.

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@ Varun

“कारवाँ गुज़र गया. गुबार देखने को मिल रहा है.” वाह मज़ा आ गया इस अद्भुत प्रयोग को पढ़कर! वैसे मैं एक ख़ास वजह से राकेश रौशन को इस सैट में शामिल नहीं करूँगा. एन चन्द्रा, सन्तोषी और सुभाष घई ने एक ख़ास दौर में हमारे सिनेमा को एक ख़ास प्रकार की फ़िल्में दी हैं. मुझे इनके सिनेमा में शुरुआती दौर में पाए जाने वाले ’रॉ’ इमोशन बहुत नोटिसेबल लगते हैं. वो उस दौर की पहचान हैं. ’तेज़ाब’ तो लैंडमार्क है हिन्दी सिनेमा की हिस्टरी में.

राकेश रौशन ने तो मेरी नज़र में अपने शुरुआती दौर में भी कभी कोई ख़ास फ़िल्म नहीं बनाई. उसकी सबसे ख़ास फ़िल्म तो ’कहो न प्यार है’ ही है और वो भी उसके बेटे की वजह से. वो तो कभी नोटिस करने लायक भी नहीं लगा मुझे.

Aur agar tumne Santoshi ji ka koi naya interview padha ho toh jhatka lag jaayega dekh kar ki woh na sirf iss film ki safalta ki khushiyaan mana rahe hain balki iss film ke dum par khud ko Vijay Anand jitna mahaan nirdeshak bhi kah rahe hain.

Bahut sahi kaha – Santoshi, Ghai aur N. Chandra (saath mein Rakesh Roshan ko bhi jod liya jaaye) ko ek hi khidki mein dekhna chaahiye. Sab ke sab ajab hain…aur gajjab ki hadd tak ajab! Kaaravaan guzar gaya, gubaar dekhne ko mil raha hai.

“जब तक जनता देखेगी हम ऐसी ही फिल्मे दिखायेंगे .. जनता का क्या है .. पैसा तो हमारा लगता है ना . जो हमारी मर्ज़ी हम फिल्माये , छद्मधर्मनिरपेक्षता दिखाये , ग्लीसरीन के आम्सू दिखाये .. आपसे मतलब ..? ”
भई यह बयान मेरा नही है मै तो नीरीह जनता हूँ ना .. ।