पंजाब से अाया बुलावा अजय की फिल्मों को देखने अौर उन पर बात करने का था। अजय भारद्वाज की पंजाब की पृष्ठभूमि पर बनी दो वृत्तचित्र फिल्में ‘रब्बा हुणं की करिये’ अौर ‘मिलांगे बाबे रतन ते मेले ते’ साथ देखना अौर साथी कॉमरेडों से बातचीत मेरे लिए एक नए अनुभव का हिस्सा थी। इससे पहले अजय पंजाब की ही पृष्ठभूमि पर वृत्तचित्र ‘कित्थे मिल वे माही’ भी बना चुके हैं अौर इन तीन फिल्मों को साथ उनकी पंजाब-पार्टीशन ट्रिलॉजी के रूप में देखा जा सकता है। जहाँ ‘रब्बा हुणं की करिये’ रौशन बयानों से मिलकर बनती फिल्म है वहीं ‘मिलांगे बाबे रतन ते मेले ते’ जैसे अपना कैनवास बड़ा कर लेती है अौर उसमें पंजाब का तमाम खालीपन अौर उस खालीपन में गहरे पैठा सूफ़ी संगीत शामिल होकर हमारे सामने अाज के पंजाब की प्रचलित तस्वीरों के मुकाबले एक निहायत ही भिन्न तस्वीर पेश करता है।
यह अवसाद की फिल्में भी हैं अौर उम्मीद की फिल्में भी। जैसा हमारे दोस्त यादवेन्द्र ने कहा कि अजय की यह फिल्में वक्ती ज़ज्बात पैदा करने वाली फिल्में नहीं। कहीं गहरे यह अजय की अपनी कहानी भी है अौर उनके माध्यम से पंजाब की कथा भी। अाज के पंजाब की कथा। जिस तरह पिछले साल के चर्चित वृत्तचित्र ‘सर्चिंग फॉर शुगरमैन’ में एक अनजान अमेरिकी संगीतकार को सालों बाद उनका संगीत दक्षिण अफ्रीका के लोगों के दिलों के भीतरी कोनों तक ले जाता है, पंजाब का सूफ़ी संगीत जैसे एक सियासी रेखा के अार-पार अपनी ज़मीन फिर तलाशते हुए इस इकसार दोअाबे को अापस में मिलाता है।
लगातार बंटवारे के किस्सों में यह तथ्य लौटकर अाता है कि हत्यारे भी हमारे ही बीच थे अौर उन संहारों में होम होने वाले भी। लेकिन इन कथाअों को सुनाते हुए हमारी बोलियों में हत्यारे सदा तृतीय पुरुष बने रहते हैं। लेकिन एक बात अजय की फिल्म में ख़ास है। जिन भी लोगों ने यहाँ बंटवारे अौर कत्लेअाम की कथाएं सुनाईं अौर सारा कुछ अपनी अाँखों से देखा, वे हत्यारों की कथा बताते हुए सदा यह जोड़ते रहे कि जिन लोगों ने भी हत्याएं कीं वे बाद में सुख से नहीं रह पाये। पूरी फिल्म में अनेक जगह यह कहा जाता रहा कि हत्याअों को अंजाम देने वालों ने बाद में बहुत बुरा समय देखा अौर चंद पैसों के लिए खून बहाने वाले बड़ी सस्ती मौत मरे। सदा ही यह हत्यारे तृतीय पुरुष रहे अौर सदा कथा सुनाने वाले यह विश्वास दिलाते रहे कि उनकी ज़िन्दगियाँ फिर शान्ति से नहीं बीतीं। हर बार मैं उनके बोलों में विश्वास देखता रहा। सच क्या है यह कोई नहीं जानता (या सब जानते हैं) लेकिन जिस विश्वास के साथ एक के बाद एक किरदार इसे दोहराते रहे, मेरे लिए वही विश्वास को समझना महत्वपूर्ण है। जैसे कोई खुद हो ही पलटकर विश्वास दिला रहा हो। बंटवारे के इन जनसंहारों का प्राश्चयित किन्हीं भी सज़ाअों में नहीं हुअा। लेकिन अाप जानते हैं, हिंसा अंतत: अपना दाय मांगती है। मरने वाले से भी अौर हत्यारे से भी। इन हत्याकांडों में जो हत्यारे हुए उनकी ज़िन्दगियाँ इन्हीं विश्वासों पर टिकी हैं। यही विश्वास उनका जीने के लिए ज़रूरी बन चुका प्राश्चयित है कि अगर इस दुनिया में वाहिद इंसाफ होने से रह जाये तो भी अंतत: ऊपर कहीं इंसाफ ज़रूर होता है।
जैसा अाशिस नंदी लिखते हैं कि बहुत से पीड़ित सैंतालीस के जनसंहार को ‘वहशत भरे दौर’ के रूप में ही याद रखना चाहते हैं। यह उन्हें हिंसा को ‘सामान्य’ के बाहर रखने का अवसर देता है अौर अपनी स्मृतियों से बाहर अाने का भी। अन्य उस समय को ही बुरा बताते हुए कहते हैं कि उस वक्त मानवता अौर नैतिकता जैसे साथ छोड़ गई थीं। अजय की फिल्म देखते हुए भी यह सवाल बार-बार पूछा जाता है कि क्या यह कोशिश इतिहास के ‘गड़े मुर्दे उखाड़ने’ जैसी नहीं? लेकिन ध्यान दीजिए जिस अोर अजय इशारा करते हैं, कि यह अाज के पंजाब की फिल्म है जो अाज के पंजाब के बारे में बातें करती है। अाज के पंजाब से बातें करती है। पंजाब की अस्मिता अौर उसकी सांस्कृतिक विरासत, जो बंटवारे से पहले इस्लाम अौर खालसा के दो पायों पर टिकी थी, बंटवारे की वजह से हमेशा के लिए अपाहिज हो गई। लेकिन इससे उपजे खालीपन का असर गहरे तक पंजाब को हिला गया अौर इसके परिणाम दोनों ही अोर के पंजाब को भावी इतिहास में देखने पड़े। अोर यहीं उस खालीपन से बाहर निकलकर उन पहचानों को सहेजने की ज़रूरत सामने अाती है जिसे सियासी बंटवारे ने पंजाब से छीनने की कोशिश की थी। यह सत्ता के सामने अाम इंसान का पलटवार भी है अौर कहीं अपने भीतर के अपराधी से द्वंद्व भी।
जिन पीर फ़कीरों की कथाएं अजय सुना रहे हैं, जिम मज़ारों की अौर उन पर साल दर साल लगते मेलों की कथाएं अजय सुना रहे हैं, यह सिर्फ मृत इतिहास की कथाएँ नहीं। यह कथाएं उस क्षेत्रफल के साझे सांस्कृतिक इतिहास की कथाएं हैं। अौर उससे भी अागे बढ़कर देखें तो यह अाम लोगों की कथाएं हैं, यह उनकी ज़िन्दगियाँ हैं जो इन पीर-फ़कीरों की जगप्रसिद्ध कथाअों के माध्यम से दर्ज होती जाती हैं अौर ध्यान से देखने पर परदे के उस पार से बोलती हैं। अजय भारद्वाज की फिल्म ‘रब्बा हुणं की करिये’ में जो एक कहानी बार-बार लौटकर अाती है वो हनीफ़ मोहम्मद की कहानी है। पांच साल का मुसलमान लड़का जिसकी स्मृतियों में सरहद के पार भागकर जाने की अपनी अौर परिवार की कथाएं गहरे अंकित हैं अौर इधर बाबा नबी शाह के मज़ार के सामने बैठा अाज हमें वह उनकी कथा सुना रहा है। लड़का जिसकी अाँखों के सामने उसके भाइयों के क़त्ल हुए अौर जिसने लाशों से पटी हुई सड़कें देखीं। वही हनीफ़ मोहम्मद हिन्दुस्तान का हुअा अौर नबी शाह की कथा सुनाते अन्त में वह बोल उठता है कि यह पीर साहब की नहीं, यह तो मेरी कहानी है। दरअसल पीर फकीरों की यह कथाएं उनके साथ समूचे समुदायों के बिगड़ने अौर फिर बनने की इतिहास कथाएं हैं जो खुद को उन पीरों से जोड़कर अपनी पहचान पाते हैं।
अजय की फिल्म सिर्फ उस बारे में नहीं है जो सन उन्नीस सौ सैंतालीस में हिन्दुस्तान के दोअाबे में हुअा। न वो किताबी अर्थों में इतिहास की बात करती है अौर न वो उन अर्थों में ऐतिहासिक कथा है जिन अर्थों में मैंने अौर अापने अपनी स्कूली किताबों से इतिहास को समझा है। अजय की फिल्म उतनी ही समकालीन फिल्म है जितना हमारा या अापका वर्तमान। हम सबके वर्तमान, उस वर्तमान के तमाम फैसले अौर तमाम अफसोस भी, सायास या अनायास हमारी स्मृतियों द्वारा गढ़े होते हैं। वह सैंतालीस की उन स्मृतियों के अपने स्वायत्त जीवनकाल के बारे में है। उन लोगों के बारे में है जिन्होंने उन स्मृतियों को जिया। वे लोग जो अब बिल्कुल वैसे नहीं रह गए थे जैसे वे सैंतालीस के पहले थे। अौर लोगों से अागे बढ़कर उस पंजाब के बारे में जो अपनी रूह का एक अभिन्न हिस्सा इस सियासी जंग में खो चुका था। उस सांस्कृतिक खालीपन के बारे में जिसका शिकार पंजाब को समरूपीकृत राष्ट्रवाद के विजयरथ तले होना पड़ा। अौर इससे अागे उस साझी विरासत के विरसे के बारे में भी जो समरूपीकरण की इन तमाम कोशिशों के बाद भी अाज के पंजाब में अपना रास्ता तलाश ही लेता है। इस्लाम ने पंजाब में दलित मत को अागे बढ़ने का, अपनी पहचान तलाशने का अौर मज़बूती के साथ खड़े होने का रास्ता दिया है अौर यह ऐतिहासिक तथ्य इन कथाअों में बार-बार लौटकर अाता है। इसीलिए इन पीरों की कथाअों के बिना इतिहास मृत इतिहास है अौर उसमें इंसानी अावाज़ की खनक नहीं सुनाई देगी। अजय की फिल्में इतिहास में उस इंसानी अावाज़ की खनक को भरने का काम करती हैं।
इसीलिए यह देखना महत्वपूर्ण है कि अगर अाप अजय की नई फिल्म ‘मिलांगे बाबे रतन ते मेले ते’ को पंजाब पर बनाई उनकी पिछली फिल्मों की रौशनी में पढ़ते हैं तो यह फिल्म तारीख़ द्वारा पैदा किये गये खालीपन को अाम इंसान द्वारा अपने छोटे हाथों से भरने की अनगिनत कोशिशों के समन्दर के रूप में सामने अाती है। यह कोशिश एक प्राश्चयित भी है, क्योंकि व्यक्ति के रूप में अौर स्वयं एक समुदाय के रूप में जितना बंटवारे के समय को लेकर समुदायों के मध्य पीड़ित भाव है, उतना ही गहरे कहीं अपराधबोध भी है। यह अपराधबोध उस सूबे का अपराधबोध भी है जिसने अपने ही भीतर से कुछ अभिन्न खोया, अौर उस सूबे के लिए अागे का सारा इतिहास इस खालीपन का सामना करने के भिन्न तरीके हैं भर हैं। पीर की मज़ार पर उनका चाहनेवाला कहता है कि चाहे नमाज़ पढ़ लो, चाहे ग्रंथ साहब के श्लोक, बात एक ही है। बस उसके दरबार में सुनवाई होनी चाहिए। वो सारी बोलियाँ जानता है। मैं तो सिर्फ मेरे गुरु की सिखाई बोली जानता हूँ।
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साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश’ के मई अंक में प्रकाशित हुअा.
bahut sunder.