in films

हिन्दी सिनेमा आधुनिक भारत का सबसे प्यारा बच्चा है. उसमें आपको खिलखिलाकर हंसाने की क्षमता है तो गहरे प्यार से निकली एक पल में रुला देने वाली कुव्वत भी. और आनेवाली मई में हम इसके जन्म के सौवें साल में प्रवेश कर जायेंगे. दादासाहेब फ़ालके से दिबाकर बनर्जी तक, कैसा रहा यह सफ़र. आईये देखें एक नज़र…

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1913 – 22

धुंडीराज गोविन्द फ़ालके. उनके पैर में चकरी थी. जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट का पढ़ा, राजा रवि वर्मा का शिष्य. पहली बार सिनेमा देखा तो हक्का-बक्का. फ़िल्म थी ’द लाइफ़ ऑफ़ क्राइस्ट’. तय कर लिया कि ऐसी फ़िल्म हमें भी बनानी है. और उसके अथक संघर्ष का नतीजा था ’राजा हरिश्चंद्र’ जिसका पहली बार तीन मई उन्नीस सौ तेरह में बम्बई के कोरोनेशन थियेटर में प्रदर्शन हुआ. पूरा तेईस दिन चली राजा हरिश्चन्द्र जो उन दिनों का रिकॉर्ड था. सिनेमा ने हिन्दुस्तानियों का मन मोह लिया था.

शुरुआती सिनेमा धार्मिक पृष्ठभूमि का था और उस पर पारसी थियेटर का गहरा प्रभाव था. जमशेद जी मदन, धीरेन गांगुली तथा नितिन बोस इस दौर के अन्य फ़िल्मकार थे. यह वो दौर था जब सिनेमा को सभ्य लोगों का काम नहीं समझा जाता था और स्त्रियों को फ़िल्मों में काम करने की इजाज़त नहीं होती थी.

उल्लेखनीय फ़िल्में:- राजा हरिश्चन्द्र, लंका दहन, बिलेत फ़ेरात


1923 – 32

Alam_Ara_poster,_1931सामाजिक मुद्दे सिनेमा में आने लगे थे. और बड़े व्यापारियों को इसमें व्यावसायिक सफ़लता की गुंजाइश दिखने लगी थी. सिनेमा का शास्त्र पलट रहा था. चित्रकार परिवार से आए बाबूराव पेंटर, धीरेन गांगुली और चंदूलाल शाह इस दौर के बड़े फ़िल्मकार हुए. दशक खत्म होते न होते सिनेमा में आवाज़ आई और अर्देशिर ईरानी के निर्देशन में नायक राजकुमार और बंजारन नायिका की प्रेम कहानी ’आलम आरा’ आई. पारसी थियेटर की मैलोड्रामा शैली से प्रभावित ’आलम आरा’ में सात गीत थे और यहीं से हिन्दी सिनेमा और गीतों का अटूट नाता शुरु हुआ जो आज तक बेरोकटोक जारी है. इसी दौर में व्ही. शांताराम ने ’माया मच्छिंद्रा’, ’अयोध्या का राजा’ और ’चन्द्रसेना’ जैसी फ़िल्में बनाईं.

उल्लेखनीय फ़िल्में:- महारथी कर्ण, नल दमयन्ती, आलम आरा


1933 – 42

यह हिन्दी सिनेमा का स्टूडियो एरा है. मुख्य रूप से तीन बड़े स्टूडियो इस दौर में सक्रिय रहे, वीरेन्द्रनाथ सरकार द्वारा स्थापित ’न्यू थियेटर्स’, चार भागीदारों (शांताराम, दामले, फ़त्तेलाल, धायबर) द्वारा स्थापित ’प्रभात’ स्टूडियो तथा हिमांशु राय का ’बॉम्बे टाकीज़’. यहीं न्यू थियेटर्स की उर्वर ज़मीन से निकले प्रथमेश चन्द्र बरुआ का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने 1935 में शरतचन्द्र के उपन्यास पर ’देवदास’ फ़िल्म बनाकर सिनेमा को उसकी सबसे चहेती प्रेम और बिछोह की कथा दी. कुंदनलाल सहगल उस दौर का सितारा थे और उनकी गायकी भविष्य की पीढ़ियों के लिए सदा उजला रास्ता बनी रही. देविका रानी सितारा नायिका थीं और उनका दामन थामे अशोक कुमार सिनेमा में आए.

सोहराब मोदी की ’सिकन्दर’ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की फ़िल्मों में मील का पत्थर थी तो महबूब ख़ान ने 1940 में वो ’औरत’ बनाई जिसे आगे चलकर हिन्दी सिनेमा की सबसे महान फ़िल्म (मदर इंडिया) की माँ बनना था. यह दौर गुलामी का था लेकिन सिनेमा धार्मिक कथाओं का दामन छोड़ अब सामाजिक मुद्दों का रुख़ करने लगा था.

उल्लेखनीय फ़िल्में:- चंडीदास, देवदास, अछूत कन्या



1943 – 52

अशोक कुमार इस दौर के बड़े नायक थे और उन्होंने इस दौर में ’हुमायूँ’, ’किस्मत’ और ’महल’ जैसी भव्य फ़िल्में दीं. यही समय था जब हिन्दोस्तान के इतिहास की आज़ादी और बंटवारे जैसी बड़ी घटनाएं हुईं, लेकिन उस दौर के सिनेमा में इनकी प्रत्यक्ष गूंज कम ही सुनाई देती है. 1947 में ’जुगनू’ की सफ़लता के साथ दिलीप कुमार सिनेमा में आए और 1948 में ’आग’ के साथ शोमैन राज कपूर ने अपनी निर्देशकीय पारी की शुरुआत की. 1949 में महबूब ख़ान ने इन दोनों सितारों को लेकर ’अन्दाज़’ बनाई, नायिका थीं नर्गिस.

’आवारा’ के साथ हिन्दी सिनेमा को राज कपूर में अपना चार्ली चैप्लिन मिल गया. शैलेन्द्र के लिखे और मुकेश के गाए गीतों की लोकप्रियता सात समन्दर पार रूस में जा पहुँची. राष्ट्र द्वारा देखा गया समाजवाद का स्वप्न सिनेमा का स्वप्न भी बन गया.

उल्लेखनीय फ़िल्में:- किस्मत, महल, आवारा


1953 – 62

nehru_dilip_raj_kapoor_dev_anandनवस्वतंत्र देश और नई आकांक्षाएं. मुल्क़ को अपना नायक मिला जवाहरलाल नेहरू में और जैसे राष्ट्र ने समाजवाद का दामन पकड़ा, सिनेमा ने भी. राज कपूर की फ़िल्मों में उनकी नीतियों का अक्स गहरा था. ’साथी हाथ बढ़ाना’ हिन्दी सिनेमा के सुनहरे दशक की टेक बना. कहानियों के केन्द्र में शहरी सर्वहारा था और उसकी आँखों में आधुनिकता के दिखाए सपने थे. ’दो बीघा ज़मीन’ का शंभू महतो कलकत्ता की तपती सड़कों पर नंगे पैरों रिक्शागाड़ी खींचता शहर की यंत्रणाओं और सामन्ती-पूंजीवादी व्यवस्था के गठजोड़ को हमारे सामने लाया. महबूब ख़ान की ’मदर इंडिया’ में दुनिया ने भारत का समतावादी समाज का स्वप्न देखा. एक स्त्री के स्वाभिमान में एक मुल्क़ की उन्नति की दास्ताँ एकाकार हो गई.

यहीं थे गुरुदत्त. एकाकी आवाज़ की तरह, तत्कालीन समाज और सिनेमा की ईमानदार आलोचना रचते. यह दशक था मुग़ल-ए-आज़म का. मधुबाला की अनन्य सुन्दरता का और दिलीप कुमार के अप्रतिम अभिनय का. सिनेमाई संगीत भी उन दिनों सुनहरा था. नौशाद ने ’ए मोहब्बत ज़िन्दाबाद’ में मोहम्मद रफ़ी के साथ सौ गायकों को कोरस में गवाया था. देवानंद के सिनेमा में शहरी आधुनिकता का मोह था तो राज कपूर ’जिस देश में गंगा बहती है’ और दिलीप कुमार ’नया दौर’ जैसी फ़िल्मों के साथ वही आधुनिकता का स्वप्न गाँव-देहातों तक पहुंचा रहे थे.

उल्लेखनीय फ़िल्में : दो बीघा ज़मीन, मदर इंडिया, मुग़ल-ए-आज़म


1963 – 72

तरुण भारत ने युद्ध देखे. अपने नायक जवाहरलाल की मृत्यु देखी और यथार्थ से पलायन में मोहभंग और असंतोष के शुरुआती चिह्न दिखने लगे. चेतन आनंद की ’हक़ीकत’ युद्ध का एकाकीपन साथ लाई तो मनोज कुमार की फ़िल्मों (शहीद, उपकार, पूरब और पश्चिम) में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के भिन्न आयाम दिखे.

हिन्दी सिनेमा घूम-घूमकर दुनिया देख रहा था. ’जंगली’ में शम्मी कपूर की याहू के साथ नई पीढ़ी परम्पराओं की जकड़ से आज़ाद हो जाना चाहती थी. ’आओ ट्विस्ट करें’ की पदचाप में पश्चिमी चाल की आधुनिकताएं सिनेमा में दिखने लगीं. लेकिन एक अन्तरद्वंद्व भी था, आस्था और तर्क में, जो ’गाइड’ जैसी फ़िल्म में गहरे उभरकर सामने आया. राजेश खन्ना 1965 में फ़िल्मफ़ेयर की टैलेन्ट हंट में जीते थे. उनके साथ सिनेमा ने पहली बार ’आम आदमी’ को सुपरस्टार बनते हुए देखा. वही थे ऋषिकेश मुखर्जी के ज़िन्दादिल ’आनंद’. और यहीं ’बाबू मोशाए’ ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. अपनी पहली फ़िल्म ’सात हिन्दुस्तानी’ में वे एक बेचैन शायर थे, लेकिन उनके गुस्से को विहंगम आयाम अगले दशक में मिलना था, और उसकी वजह बनने थे दो जोड़ीदार पटकथाकार.

उल्लेखनीय फ़िल्में:- गाइड, तीसरी मंज़िल, भुवन शोम


1973 – 82

amitabh_bachchan_deewarकहते हैं कि सफ़लता के शुरुआती दिनों में ’सलीम-जावेद’ खुद पेंट का डिब्बा हाथ में लेकर अपनी फ़िल्मों के पोस्टरों पर अपना नाम लिखा करते थे. यही थे जिन्होंने एक सत्तालोलुप और भ्रष्ट समाज के प्रति आम इंसान के विद्रोह को सिनेमा में जीवंत कर दिया. ’एंग्री यंग मैन’ का जन्म समाज में दहकते नक्सलबाड़ी के अंगारों पर हुआ था और अमिताभ बच्चन के रूप में हिन्दी सिनेमा ने सदी के महानायक को पाया. इस दशक का रोमांस भिन्न था. वो लैंप बुझाती जया भादुड़ी और माउथऑर्गन बनाते अमिताभ के अधूरे प्रेम में था. क्या दिन थे वो, अमिताभ दिन में ’शोले’ की शूटिंग किया करते और मुम्बई की जागती रातों में ’दीवार’ का क्लाइमैक्स फ़िल्माया जाता.

लेकिन इसी दशक में समांतर सिनेमा ने अपना स्वतंत्र रास्ता तलाशा. श्याम बेनेगल की ’अंकुर’ के साथ शुरु हुआ सफ़र नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी जैसे कलाकारों को हिन्दी सिनेमा में लेकर आया. 1975 में स्थापित हुई संस्था NFDC ने इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. खुद अमिताभ ने ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों में अपने अभिनय के भिन्न आयाम दिखाए. गुलज़ार, बासु चटर्जी और ऋषिदा की फ़िल्में इस मोहभंग के दौर में उम्मीद का नवरस घोलती रहीं.

उल्लेखनीय फ़िल्में:- दीवार, शोले, भूमिका


1983 – 92

JBDY mahabharata1यह मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा का रीतिकाल है. सत्तर के दशक के आक्रोश के प्रतीक ’एंग्री यंग मैन’ के रचयिता सलीम-जावेद की जोड़ी बिखर चुकी थी और सदी के महानायक अमिताभ का सितारा अब बुझ रहा था. इस दौरान उनके खाते में ’मर्द’, ’शहंशाह’ और ’जादूगर’ जैसी भौंडी फ़िल्में हैं. बीच के कुछ साल अनिल कपूर ने सर्वोच्च स्टारडम देखा और ’तेज़ाब’, ’परिन्दा’, ’काला बाज़ार’ जैसी फ़िल्मों के साथ आधुनिक शहर की अंधेरी गुफ़ाएं सिनेमा में आने लगीं.

लेकिन इस पतन का एक दूसरा पहलू भी था. यह हिन्दी सिनेमा की समांतर धारा का काल भी था. ’जाने भी दो यारों’ ने समाजसत्ता की स्याह हक़ीक़त, ’अर्धसत्य’ ने सड़ चुके सिस्टम के भीतर होने की यंत्रणा और ’सलाम बॉम्बे’ ने शहर के हाशिए को किसी मैग्नीफ़ाइंग ग्लास से देखा.

लेकिन दशक बीतने न बीतते हिन्दी सिनेमा ने फिर पलटा खाया. भिन्न परिवारों और पृष्ठभूमियों से आए तीन ख़ान लड़के हिन्दी सिनेमा में युवता और प्रेम वापस लौटा लाए. ’कयामत से कयामत तक’ के साथ पूरी पीढ़ी जवान हुई और ’मैनें प्यार किया’ युवा दोस्तियों की पैरोकार बनी.

उल्लेखनीय फ़िल्में:- मिस्टर इंडिया, अर्धसत्य, मैनें प्यार किया


1993 – 02

हिन्दुस्तान बहुत तेज़ी से बदल रहा था. उदारीकरण ने देश के बाज़ारों को बदला और बाज़ार ने सिनेमा को. हिन्दी सिनेमा अचानक विदेशों में बसे भारतीयों को नज़र में ऊपर रखने लगा. राजश्री की ’हम आपके हैं कौन’ में बसा संयुक्त परिवार के प्रति मोह तथा आदित्य चोपड़ा की ’दिलवाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे’ का भारत की यादों में तड़पता एनआरआई उस दौर के सिनेमा के बदलते दर्शक की पहचान करवाते थे. और यहीं आए शाहरुख़ ख़ान. एक ओर ’डर’, ’बाज़ीगर’ और ’अंजाम’ के हिंस्र प्रतिनायक की भूमिका में, वहीं दूसरी ओर ’कभी हाँ, कभी ना’, ’राजू बन गया जेंटलमैन’ और ’चमत्कार’ जैसी फ़िल्मों में बगल के मोहल्ले में रहनेवाले उस खिलंदड़ लड़के से दिखते. अन्य समयों के सर्वोच्च महानायकों दिलीप कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन की तरह वे भी सिनेमा के लिए ’आउटसाइडर’ थे, और वंशानुगत पात्रताओं को सबसे ऊपर रखने वाले हिन्दी फ़िल्मोद्योग के लिए जैसे यही काव्यात्मक न्याय था.

नई सदी में सिनेमा का नया दौर आया. रामगोपाल वर्मा ने इसका ढंग बदला तो मणि रत्नम ने इसकी चाल. ’दिल चाहता है’ और ’सत्या’ जैसी फ़िल्में अपने दौर की कल्ट क्लासिक बनीं और उन्होंने अपने आगे सिनेमा की नई धाराएं शुरु कीं.

उल्लेखनीय फ़िल्में:- दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे, सत्या, दिल चाहता है


2003 – 12

maqbool pankaj kapoor1सत्ता का संतुलन बदल रहा था. फ़िल्म बनाना अब ’फ़ैमिली बिज़नस’ नहीं रह गया था. इस दौर के फ़िल्मकार मायानगरी के लिए आउटसाइडर थे. वे गोरखपुर से आए थे या मेरठ से, जमशेदपुर से आए थे या नागपुर से, और उन्होंने अपनी कंचन प्रतिभा के बलबूते इस उद्योग में पैठ बनाई. तकनीक ने सिनेमा को ज़्यादा सहज बनाया और सिनेमा को बड़े परदे से निकालकर आम आदमी के ड्राइंगरूम में ले आई. इसी बीच मल्टीप्लैक्स आए और उनके साथ सिनेमा का दर्शक बदला, विषय भी बदले. अब सिनेमा में गाँव नहीं थे. यह स्याह शहरों की कथाएं थीं जिन्हें ’ब्लैक फ़्राइडे’ में अनुराग कश्यप ने, ’मकबूल’ में विशाल भारद्वाज ने और ’हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी’ में सुधीर मिश्रा ने बड़े अदब से सुनाया.

ऋतिक, रणबीर समकालीन समय के नायक हुए और सलमान और आमिर ने नए समय में पुन: स्टारडम का शिखर देखा. लेकिन इनकी सफ़लताओं के पीछे हमेशा कोई राजकुमार हिरानी, अभिनव कश्यप, इम्तियाज़ अली रहे जिनके काम की ईमानदारी इन महानायकों की सफ़लताओं में बोलता रही.

उल्लेखनीय फ़िल्में:- ब्लैक फ़्राइडे, रंग दे बसंती, थ्री ईडियट्स

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“बिरजू, मैं बेटा दे सकती हूँ, लाज नहीं दे सकती.” (मदर इंडिया)

“शहंशाहों के इंसाफ़ और ज़ुल्म में किस कदर कम फ़र्क होता है.” (मुग़ल-ए-आज़म)

“जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ…” (दीवार)

“आज खुश तो बहुत होगे तुम…” (दीवार)

“मेरे पास माँ है.” (दीवार)

“डावर सेठ, मैं आज भी फ़ैंके हुए पैसे नहीं उठाता.” (दीवार)

“चिनाय सेठ, जिनके अपने घर शीशे के हों, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेंका करते.” (वक़्त)

“कौन कमबख़्त है जो बर्दाश्त करने के लिए पीता है…” (देवदास)

“आपके पांव देखे. बहुत हसीन हैं. इन्हें ज़मीन पर मत रखियेगा. मैले हो जायेंगे.” (पाकीज़ा)

“ज़िन्दगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नहीं.” (आनंद)

“बाबू मोशाय. ज़िन्दगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है जहाँपनाह, जिसे न आप बदल सकते हैं, न मैं. हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं जिनकी डोर ऊपरवाले के हाथों में है.” (आनंद)

“ये हाथ हमको दे दे ठाकुर.” (शोले)

“हम जहाँ खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरु होती है.” (कालिया)

“तुम अपुन को दस दस मारा. अपुन तुम को सिरिफ़ दो मारा. पन सॉलिड मारा कि नहीं?” (अमर, अकबर, एंथोनी)

“शांत गदाधारी भीम, शांत!” (जाने भी दो यारों)

“मुगैम्बो खुश हुआ.” (मिस्टर इंडिया)

“दोस्ती की है… निभानी तो पड़ेगी.” (मैंने प्यार किया)

“तेजा मैं हूँ, मार्क इधर है.” (अंदाज़ अपना अपना)

“कभी कभी कुछ जीतने के लिए कुछ हारना भी पड़ता है. और हारकर जीतने वाले को बाज़ीगर कहते हैं.” (बाज़ीगर)

“हर टीम में सिर्फ़ एक ही गुंडा हो सकता है, और इस टीम का गुंडा मैं हूँ.” (चक दे इंडिया)

“मैं अपनी फ़ेवरिट हूँ.” (जब वी मेट)

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इस आलेख का संशोधित संस्करण आज, रविवार बाईस अप्रैल के नवभारत टाइम्स में संपादकीय  पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ |

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अोम, यह 2012 का अालेख है, जब हिन्दुस्तानी सिनेमा के सौ बरस पूरे हुए थे. अख़बार में यह ‘सिनेमा की सेंचुरी’ शीर्षक से सम्पादकीय पृष्ठ पर ‘स्पेशल स्टोरी’ कॉलम में प्रकाशित हुअा था.

dear sir, plz tel me that….
navbhart times 22april(sundy) paper me kis name(tital) se apka ye aalekh chhapa gya h….