in films

पॉल श्रेडर: न्यू मीडिया एंड दी डेथ ऑफ़ सिनेमा.

हॉलीवुड के जानेमाने पटकथा लेखक और निर्देशक पॉल श्रेडर इन दिनों दिल्ली में हैं. पॉल को हम उनकी लिखी फिल्मों ‘Taxi driver’,  ‘Raging bull’, ‘Mishima’ और ‘The last temptation of christ’ से जानते हैं. ख़ासकर मार्टिन स्कोर्सेसी की फ़िल्म टैक्सी ड्राईवर शहर के विकृत चेहरे को करीब से देखने की एक प्रभावशाली कोशिश है. कैसे हिंसक शहर एक इंसान के दिलो-दिमाग़ में घुस जाता है यह देखना हो तो टैक्सी ड्राईवर देखिये. Osian’s में कल उन्होनें एमर्जिंग न्यू मीडिया और डेथ ऑफ़ सिनेमा पर एक रोचक व्याख्यान दिया. मैं यहाँ उस व्याख्यान का सार रूप प्रस्तुत कर रहा हूँ. यह ज्यादातर मेरी याददाश्त और समारोह में अगले दिन छपने वाली रिपोर्ट पर आधारित है. साथ ही मेरी असहमति के बिन्दु भी मैं यहाँ साथ रख रहा हूँ. आगे समय मिलने पर हम Osian’s में देखी फिल्मों पर भी बात करेंगे. यह समारोह 20 जुलाई तक चलेगा. आप अगर इस दौरान समय निकल पायें तो एकबार ज़रूर सिरीफोर्ट का रुख करें.

*******

सिनेमा हॉल में बैठकर फ़िल्म देखने की जो चाहत वेस्ट में पहले हुआ करती थी वो समय के साथ कम होती जा रही है. इसकी मुख्य वजह है नई तकनीक और उसपर सवार न्यू मीडिया. हाँ हिदुस्तान जैसे तीसरी दुनिया के देशों में यह अब भी बरकरार है. आनेवाले सालों में हम इन्टरनेट के क्षेत्र में आक्रामक तकनीकी उभार देखने वाले हैं जो इस नए उभरते मीडिया का ही एक रूप होगा. और यह उभार सिनेमा के उस रूप को जिससे हम परिचित हैं पलट कर रख देगा. दुनिया भर के फ़िल्म उद्योगों में एक तीखी ढलान देखी जा रही है और अभी की परिस्थितियों में हमारे पास इससे बचने का कोई उपाय नहीं है.

में इसे और विस्तार में समझाने की कोशिश करता हूँ. हेनरी किसिंजर ने एकबार कहा था कि तकनीक और प्रजातंत्र साथ साथ चलते हैं. तकनीक के क्षेत्र में आया कोई भी सुधार प्रजातंत्र में जनता को ताक़तवर बनाता है. यह बात सिनेमा के दर्शक पर पूरी तरह लागू होती है जो इन्टरनेट, सेलफ़ोन, आई-पोड्स के आने के साथ और समर्थ हुआ है. अब वो ना केवल नई हॉलीवुड फिल्में डाउनलोड कर देख सकता है बल्कि स्वयं फ़िल्म बनाकर उसे आराम से प्रसारित/वितरित भी कर सकता है. लेकिन इसका एक बड़ा प्रभाव सिनेमा देखने के तरीके पर पड़ा है जिससे मुझे चिंता है. ऑनलाइन नेट्वर्किंग और पब्लिक शेअरिंग से होनेवाले दर्शकों के इस बिखराव से एक बड़ा परिवर्तन आया है. अब सिनेमा पहले की तरह एक सामूहिक अनुभव नहीं रहा. सिनेमा ने अपनी वो ताक़त खो दी है जो सारे दर्शकों को एक साथ एक छत के नीचे ले आती थी. इससे सिनेमा अपना प्रभाव खो रहा है.

इससे भी बड़ी बात. सिनेमा हमेशा से एक एकतरफा संवाद प्रणाली रहा है. पेसिव मीडियम. और आज की पीढ़ी जो इंटरेक्टिव वीडियो गेम और इन्टरनेट पर बड़ी हुई है उसने इस पेसिव मीडियम पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं. और अब बड़े स्टूडियो इस सवाल से भी जूझ रहे हैं जो उनसे बार बार पूछा जायेगा, “जब मैं फ्री में फ़िल्म डाउनलोड कर देख सकता हूँ तो मैं उसके लिए पैसा क्यों चुकाऊँ?” और अभी तक उनके पास इसका कोई मुफ़ीद जवाब नहीं है. संगीत उद्योग इस तरह की समस्याओं से पहले ही जूझ चुका है. थिएटर बंद हो रहे हैं और पाईरेसी तेज़ी से बढ़ रही है. और सच कहें तो हमारे पास कोई प्लान-बी भी नहीं है. इतना तय है कि ‘फ़िल्म’ नामक यह संस्था एक नया रूप लेने जा रही है और अभी से यह कह पाना मुश्किल है कि वो नया रूप क्या होगा. वैसे पूंजीवाद हमेशा कोई रास्ता तलाश ही लेता है. लेकिन सिनेमा अभी सिर्फ़ एक सदी पुराना है और मुझे लगता है कि हमें इस मध्यम की असली परिणिति जानने के लिए इस सदी के पार झाँकना होगा.

*******

यह बात सही है कि नए रूप में सिनेमा अपना सामूहिक प्रभाव खो रहा है लेकिन नई तकनीक अपने साथ और बहुत सारे नए विचार लेकर आती है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. हो सकता है कि पेसिव माध्यम कहा जाने वाला सिनेमा अपना यह चोला उतारकर एक ज़्यादा दुतरफा बात करने वाला चोगा पहन ले. किसे पता कल इन्टरनेट सिनेमा का दुश्मन नहीं सहयात्री बनकर उभरे. मुझे लगता है कि यह प्रक्रिया शुरू भी हो गई है. मेरी पाल श्रेडर की इस राय से घोर असहमति है कि सिनेमा का भविष्य अन्धकार में है. बात बस इतनी है कि शायद हम उसके नए बदलते रूप पहचान नहीं पा रहे हैं.

बड़े स्टूडियो का टूटता साम्राज्य तो एक अच्छा लक्षण है. ख़ुद पॉल का मानना है कि आज के दौर में फ़िल्म बनाना और उसे प्रसारित करना कहीं ज़्यादा आसान है. हिन्दुस्तान में तेज़ी से बढ़ती डॉक्युमेंटरी फिल्मों की संस्कृति इसका एक छोटा सा उदहारण है. अब हमें अपनी फ़िल्म बनाने के लिए किसी और का मोहताज नहीं रहना होगा. पब्लिक शेयरिंग की संस्कृति दुनिया को और ज़्यादा प्रजातांत्रिक बनाती है. पाइरेसी  एक नकारात्मक चलन है इसपर भी अभी बहस होनी बाकी है. संगीत उद्योग में आया परिवर्तन भी नकारात्मक नहीं सकारात्मक परिवर्तन है. इससे जुड़ी ख़ास बातें आप यहाँ रविकांत के लेख में देख सकते हैं. अच्छा है कि पूंजीवादी जमावड़े को अभी कोई प्लान-बी नहीं नज़र आ रहा है. और मुझे उम्मीद है कि रिचर्ड स्टॉलमैन और पूरी दुनिया में फैले उनके साथी उस प्लान-बी के आने से पहले एक एक्शन प्लान-सी तैयार कर बैठे होंगे! मैं आनेवाले समय के सिनेमा को लेकर आशान्वित हूँ और इसकी वजहें बहुत कुछ वही हैं जो पाल श्रेडर को चिंता में डाल रही हैं. देखने का नज़रिया अलग है शायद.

Share on : Tweet about this on TwitterPin on PinterestEmail this to someonePrint this pageShare on Google+Share on LinkedInShare on Facebook