दृश्य एक :-
फ़िल्म – धोबी घाट (2011)
निर्देशक – किरण राव
हरे रंग की टीशर्ट पहने अकेला खड़ा मुन्ना शाय की उस लम्बी सी गाड़ी को अपने से दूर जाते देख रहा है. असमंजस में है शायद. ’क्लास’ की दूरियाँ इतनी ज़्यादा हैं मुन्ना की नज़र में कि वह कभी वो कह नहीं पाया जो कहना चाहता था. और अचानक वो भागना शुरु करता है. मुम्बई की भीड़ भरी सड़क पर दुपहिया – चौपहिया सवारियों की तेज़ रफ़्तार अराजकता के बीच अंधाधुंध भागना. बड़ी गाड़ियाँ उसका रास्ता रोक रही हैं बार-बार. आखिर वो पहुँचता है शाय तक. शीशे पर दस्तक देता है.
यही निर्णायक क्षण है.
वह अपनी डायरी में से फाड़कर एक पन्ना उसकी ओर बढ़ा देता है. कागज़ में अरुण का नया पता है. निश्चिंतता आ जाती है चेहरे पर. अब असमंजस और तनाव शाय के हिस्से हैं. भागती हुई फ़िल्म अचानक रुक जाती है. मुम्बई की अराजक गति में अचानक ठहराव आ गया है. शहर ख़रामा- ख़रामा साँसे ले रहा है.
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फ़िल्म – शोर इन द सिटी (2011)
निर्देशक द्वय – राज निदिमोरू एवं कृष्णा डी के
लुटेरों की गोली खाकर घायल पड़ा साठ साला बैंक का वॉचमैन हमारे नायक सावन द्वारा पूछे जाने पर कि “हॉस्पिटल फ़ोन करूँ?”, डूबती हुई आवाज़ में जवाब देता है, “पहले ये पैसे वापस वॉल्ट में रख दो”. यह वही वॉचमैन है जिसके बारे में पहले बताया गया है कि बैंक की ड्यूटी शुरू होने के बाद वो पास की ज्यूलरी शॉप का ताला खोलने जाता है. इस दिहाड़ी मजदूरी की सी नौकरी में कुछ और पैसा कमाने की कोशिश. दिमाग़ में बरबस ’हल्ला’ के बूढ़े चौकीदार मैथ्यू की छवि घूम जाती है जिसकी जवान बेटियाँ शादी के लायक हो गई थीं और जिसके सहारे फ़िल्म ने हमें एक ध्वस्त कर देने वाला अन्त दिया था. लेकिन यहाँ सावन के पास मौका है कि वह सारे पैसे लेकर भाग जाए. उसे भी पैसों की सख़्त ज़रूरत है. रणजी टीम का चयनकर्ता एकादश में चयन के लिए बड़ी रिश्वत मांग रहा है.
यही निर्णायक क्षण है.
ऐसे में वो एक ’बीच का रास्ता’ निकालता है. वो अपनी ज़रूरत के पैसे निकालकर बाक़ी पैसे वॉचमैन के कहे अनुसार फिर से बैंक के वॉल्ट में रख आता है. और आगे जो होना है वो यह कि जो पैसे उसने निकाले हैं उन्हें भी वो अपने काम में इस्तेमाल नहीं करेगा.
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दृश्य तीन :–
फ़िल्म – ओये लक्की! लक्की ओये! (2008)
निर्देशक – दिबाकर बनर्जी
लक्की अपनी ’थ्री एपीसोडिक’ कहानी के अंतिम हिस्से में है. डॉ. हांडा के साथ मिलकर खोला गया रेस्टोरेंट शुरु हो चुका है. फिर एक बार लक्की को समझ आया है कि डॉ. हांडा भी पिछली दोनों कहानियों का ही पुनर्पाठ हैं. बाहर उसके ही रेस्टोरेंट की ’ओपनिंग पार्टी’ चल रही है और कांच की दीवार के भीतर उसे बेइज़्ज़त किया जा रहा है. इसी गुस्सैल क्षण जैसे लक्की के भीतर का वही पुराना उदंड लड़का जागता है. वो कसकर एक मुक्का डॉ. हांडा के मुँह पर तानता है. बस एक क्षण और डॉ. हांडा की सारी अकड़ उसके हाथ में होगी.
यही निर्णायक क्षण है.
लेकिन नहीं, लक्की मुक्का नहीं मारता. उनका कॉलर झाड़ पीछे हट जाता है. निकल पड़ता है फिर अपनी ज़िन्दगी की अगली कहानी जीने. उन्हीं अनजान रास्तों पर. उन्हीं जाने-पहचाने ’अपनों’ से धोखा खाने.
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यह तीनों अपनी अपनी कहानियों के निर्णायक क्षण हैं. हमारे दौर की तीन सबसे बेहतरीन फ़िल्मों के तीन निर्णायक क्षण. वो क्या है जो अपनी जड़ों में गहरे पैठी इन कहानियों के तीन निर्णायक क्षणों को साथ खड़ा करता है? इनमें से हर कहानी हमारे महानगरीय जीवनानुभव के विविध-वर्गीय चारित्रिक स्वरूप और उन वर्गों के रोज़मर्रा के आपसी भौतिक और गैर-भौतिक लेन-देन में होती उठापटक को अपना विषय बनाती है. लेकिन सिर्फ़ यही मिलाप इन निर्णायक क्षणों के बीच का सूत्र नहीं. इनमें से हर फ़िल्म अपनी विषयवस्तु में कहीं न कहीं वर्गों के बीच खिंची इन सरहदी रेखाओं के धुंधला होने की ओर संकेत करती है. जैसे ’शोर इन द सिटी’ का नायक तिलक अपनी पत्नी को दुपहिया पर घुमाते हुए अगले साल एक बड़ी गाड़ी – नैनो – खरीदने का सपना दिखाता है. या याद कीजिए तस्वीरें लेती हुई शाय और कैमरे के सामने पोज़ देता मुन्ना. या फिर उस एक पर्फ़ेक्ट ’फ़ैमिली फ़ोटो’ की चाह में सोनल के साथ पहाड़ों की बर्फ़ पर घूमता लक्की.
लेकिन फिर आते हैं यह निर्णायक क्षण. और हर बार हमारा सिनेमा वर्गों के बीच खिंची इन गैर-भौतिक विभाजक रेखाओं को शहरी जीवन में पाई जाने वाली किसी भी भौतिक रेखा से ज़्यादा पक्का और अपरिवर्तनशील साबित करता है. हर मौके पर वर्ग की यह तयशुदा दीवारें पहले से ज़्यादा मज़बूत होकर उभरती हैं. मुन्ना, सावन और लक्की तीनों अपने समाज के सबसे महत्वाकांक्षी लड़के हैं. अपने पूर्व निर्धारित वर्ग की चौहद्दियाँ तोड़ कर ऊपर की ओर जाती सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए सबसे आदर्श किरदार. यहाँ मज़ेदार यह देखना भी है कि इन्होंने अपने इस ऊर्ध्वागमन के लिए कौनसे रास्ते चुने हैं? क्रमश: बॉलीवुड, क्रिकेट और व्यापार का चयन यह दिखाता है कि हमारी लोकप्रिय संस्कृति इन दिनों ’जादुई सफ़लता’ के कौनसे किस्से सबसे सफ़लतापूर्वक गढ़ रही है. लेकिन ’आदर्श चयन’ होने के बावजूद तीनों उस अंतिम निर्णायक क्षण पीछे हट जाते हैं और वर्ग की पूर्व-निर्धारित दीवारें यथावत बनी रहती हैं. हाँ, अंत में सावन का चयन रणजी टीम में होता है लेकिन वह अंत पूरी फ़िल्म की खुरदुरी असलियत पर एक बेहुदा मखमल के पैबन्द सा नज़र आता है.
यह हिन्दी सिनेमा का नया यथार्थवाद है.
’शोर इन द सिटी’ और भी कई मज़ेदार तरीकों से इन अदृश्य वर्गीय दीवारों को खोलती चलती है. इसमें दो समांतर चलती कहानियों का आगे बढ़ता ग्राफ़ असलियत को बहुत रोमांचक तरीके से हमारे सामने खोलता है. कहानी के केन्द्र में मौजूद तिलक और अभय के चरित्र कहानी आगे बढ़ने के साथ विपरीत ग्राफ़ रचते हैं. एक ओर तिलक का चरित्र है जिसका शुरुआती प्रस्थान बिन्दु एक अपहरण अंजाम देना है, लेकिन उसकी पढ़ने की चाह (जिसमें गहरे कहीं अपने ’स्टेटस’ को ऊपर उठाने की चाह छिपी है) उसे वाया पाउलो कोएलो के ’एलकेमिस्ट’ से होते एक सभ्य नागर समाज की सदस्यता की ओर ले जा रही है. दूसरी ओर विदेश से आया उसी नागर समाज का सम्मानित सदस्य अभय है जिसे कहानी का ग्राफ़ गैरकानूनी गतिविधियों की ओर ले जा रहा है.
कहानी के किसी मध्यवर्ती मोड़ पर आते लगता है कि इनकी समांतर चलती कहानियों के ग्राफ़ एक दूसरे को काटकर विपरीत दिशाओं में आगे बढ़ जायेंगे. अर्थात तिलक अपनी नई मिली दार्शनिक समझदारी के चलते समाज में एक सम्मानित स्थान की ओर अग्रसर होगा और अभय हिंसा भरे जिस मायाजाल में उलझ गया है उसे भेद पाने में असफ़ल रहेगा. लेकिन ऐसा होता नहीं. तिलक का अंत एक बैंक में गोली खाकर घायल पड़े ही होना है और अभय को हत्या जैसा जघन्य अपराध करने के बाद भी साफ़ बचकर निकल जाना है. यही इनकी वर्गीय हक़ीकत है जिसे इन फ़िल्मों का कोई किरदार झुठला नहीं पाता. यही वो रेखा है जिसे भेदकर निकल जाने की कोशिश ने इन कहानियों को बनाया है, लेकिन यह हमेशा ही एक असफ़ल होने को अभिशप्त कोशिश है.
‘धोबी घाट’ के किरदारों के वर्गीय चरित्र किस बारीकी से आपके सामने आते हैं इसे बरदवाज रंगन ने अपनी समीक्षा में एक मज़ेदार उदाहरण द्वारा बड़ी खूबसूरती से दिखलाया है. यहाँ एक किरदार है ’राकेश’ का. राकेश वो प्रॉपर्टी डीलर है जिसने अरुण को उसका नया घर दिलवाया है. फ़िल्म में कुछ सेकंड भर को नज़र आने वाला यह किरदार उस बातचीत में अचानक एक व्यक्तित्व पा लेता है जहाँ हम उसकी आवाज़ तक नहीं सुन रहे हैं. घर की बंद अलमारी में कुछ पुराना सामान मिलने पर अरुण जब राकेश को फ़ोन करता है तो हम सिर्फ़ वही सुन पाते हैं जो इस तरफ़ खड़ा अरुण बोल रहा है. संवाद कुछ यूँ हैं,
“हाँ राकेश, पहले जो लोग यहाँ रहते थे ना, उनका कुछ सामान रह गया है.”
“कुछ टेप हैं. एक अंगूठी और…”
“नहीं… चांदी की है.”
“क्यों? मकान मालिक को दे दो ना.”
“कोई पूछेगा तो?”
“ठीक है फैंक देता हूँ यार. लेकिन फिर बाद में मांगना मत.”
आप ख़ाली स्थानों को भरते हैं और समझ पाते हैं कि राकेश यहाँ भी किसी संभावित आर्थिक फ़ायदे की सोच रहा है. सोने की या हीरे की अंगूठी हो तो उसकी कीमत अपने आप में बहुत है. इस एकतरफ़ा वार्तालाप में वह प्रॉपटी डीलर अपना व्यक्तित्व, अपना वर्गीय चरित्र पा लेता है.
और यहाँ बहुल वर्गों के आपसी रिश्ते अपनी तमाम जटिलताओं के साथ जगह पाते हैं. निम्नवर्ग से आने वाली शाय की आया उसे मुन्ना से दूर रहने की सलाह देती है. मुन्ना जो खुद उसी निम्नवर्ग से आया चरित्र है. रंगन यहाँ सहज ही अमेरिकन क्लासिक ’गेस हूस कमिंग टू डिनर’ की आया माटिल्दा को याद करते हैं जिसे एक काले अंग्रेज़ का का अपनी गोरी मालकिन की बिटिया से रिश्ता फूटी आँख नहीं सुहाता. यह बावजूद इसके कि वह खुद एक ब्लैक है. कई बार आपकी वर्गीय पहचान आपकी प्रतिक्रिया को सहज ही तयशुदा धारा से विपरीत दिशा में मोड़ देती है.
इस शहर में प्यार करने को भी जगह कम पड़ती है. ’शोर इन द सिटी’ के एक बहुत ही खूबसूरत दृश्य में समन्दर किनारे आधे चांद की परिधि सी बिछी उस मरीन ड्राइव पर प्यार के चंद लम्हें साथ बांटते सावन और सेजल शादी की बात पर आपस में झगड़ पड़ते हैं. कैमरे का ध्यान टूटता है और दिखाई देते हैं छ:- छ: फ़ुट की दूरी पर क्रम से बैठे ऐसे ही अनगिनत जोड़े. सब अपनी ज़िन्दगी के सबसे कीमती चंद निजी क्षण यूँ जीते हुए मानो उन्हें इस शहर से बांटने आए हों. यह शहर भी तो माशूका है. एक दूसरे लेकिन इतने ही खूबसूरत और बारीकियत वाले दृश्य में तिलक दुपहिया पर अपनी नई-नवेली पत्नी को घुमाते हुए शहर की ख़ास जगहें दिखाता चलता है. इनमें मुम्बई का वो ट्रैफ़िक सिग्नल भी शामिल है जिसके आगे ’गरीबों की गाड़ी’ ऑटो नहीं जा सकता, सिर्फ़ ’अमीरों की गाड़ी’ कार या टैक्सी का जाना ’अलाउड’ है. यह नमूना भर है कि कैसे शहर में वर्गों के आभासी दायरे हमारी सीधी नज़रों में आए बिना ठोस ज़मीनी हक़ीकत पा लेते हैं. उधर ’धोबी घाट’ में हमेशा अपने बदलते घरों में कैद रहने वाला अरुण अब यास्मिन की नज़रों से शहर को देख रहा है. जैसे ज़िन्दगी जीने के कुछ नए हुनर सिखा रही हैं ये चिठ्ठियाँ उसे.
’शोर इन द सिटी’ में तिलक का किरदार मुझे ख़ासकर बहुत दूर तक आकर्षित करता रहा. अगर ’प्रॉड्यूसर का भाई’ वहाँ न होता अपनी एक्टिंग से सब गुड़गोबर करने को, तो वह बीते कुछ समय में हिन्दी सिनेमा में देखा गया सबसे रोचक किरदार होना था. समाज के निचले तबके से आया तिलक वह किरदार है जिसे एक बेस्टसेलर किताब की बिकाऊ सूक्तियों में अचानक अपने रूखे यथार्थ से निकलने का रास्ता दिखाई देने लगता है. उसकी भी महत्वाकांक्षायें हैं लेकिन अब वो उसके दो दोस्तों रमेश और मंडूक की महत्वाकांक्षाओं से अलग राह ले चुकी हैं. यहाँ तिलक अपनी वर्गीय पहचान बदलने की चाह रखने वाले निम्नवर्गीय हिन्दुस्तानी का सच्चा प्रतिनिधि बन जाता है. अब उसे सिर्फ़ पैसा नहीं चाहिए. उसे समाज में इज़्ज़त चाहिए, मान चाहिए. और ठीक दिबाकर के ’लक्की सिंह’ की तरह वो समझ चुका है कि वर्तमान समाज की गैर-बराबरियों में यह दोनों चीज़ें एक-दूसरे की पर्यायवाची नहीं हैं.
दिबाकर बनर्जी की आधुनिक क्लासिक ’ओये लक्की! लक्की ओये!’ का ’लक्की सिंह’ शहर में अकेला समय के साथ चौड़े होते गए इन्हीं आभासी वर्गीय दायरों को भेदने के लिए प्रयासरत था. हमेशा असफ़ल होने को अभिशप्त एक प्रयास. और हर मायने में दिबाकर की फ़िल्में इन नव प्रयासों की पूर्ववर्ती हैं. नब्बे के मुख्यधारा सिनेमा पर यह बड़ा आरोप है कि उसने अपनी वर्गीय समझदारियाँ बड़ी तेज़ी से खोई हैं. औए मल्टीप्लेक्स के आने के साथ अपने समाज को लेकर इस नासमझी में और इज़ाफ़ा ही हुआ है. ऐसे में यह नया सिनेमा हमारे महानगर में दिखाई देती विभिन्न वर्गीय पहचानों और उनकी नियतियों को लेकर अपनी समझदारी से आश्वस्त करता है. भले ही इसका टोन आक्रोश का न होकर व्यंग्य का है, लेकिन यही सिनेमा सत्तर और अस्सी के दशक के ’समांतर सिनेमा आन्दोलन’ का सच्चा उत्तराधिकारी है. क्योंकि इसके पास झूठे सपनों पर जीते किरदार तो बहुत हैं, लेकिन यह हमें झूठे सपने नहीं दिखाता.
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हिन्दी साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के जून अंक में प्रकाशित.