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फ़िल्म की सफ़लता को हम कैसे आँकें?

IMG_3401अभिनव कश्यप की सलमान ख़ान स्टारर ’दबंग’ की रिकॉर्डतोड़ बॉक्स-ऑफ़िस सफ़लता की ख़बरों के बीच यह सवाल अचानक फिर प्रासंगिक हो उठा है कि आखिर किसे हम ’सुपरहिट फ़िल्म’ कहें? बाज़ार में खबरें हैं कि ’दबंग’ ने ’थ्री ईडियट्स’ के कमाई के रिकॉर्ड्स को भी पीछे छोड़ दिया है और सबूत के तौर पर फ़िल्म के शुरुआती दो-तीन दिन के बॉक्स-ऑफ़िस कमाई के आंकड़े दिखाए जा रहे हैं. यहाँ यह भी एक सवाल है कि सिनेमा के लिए एक ’युनिवर्सल हिट’ के क्या मायने होते हैं? क्या सबसे ज़्यादा पैसा कमाने वाली फ़िल्म ही सबसे बड़ी फ़िल्म है? या उसके लिए फ़िल्म का एक विशाल जनसमूह की साझा स्मृतियों का हिस्सा बनना भी ज़रूरी माना जाना चाहिए? वक़्त भी एक कसौटी होता है और किसी फ़िल्म का सफ़ल होना वक़्त की कसौटी पर भी कसा जाना चाहिए या नहीं?

हिन्दी सिनेमा इस बहु सँस्कृतियों से मिलकर बनते समाज को एक धागे में पिरोने का काम सालों से करता आया है. और इस ख़ासियत को हमेशा उसकी एक सकारात्मक उपलब्धि के तौर पर रेखांकित किया गया है. पचास का दशक हिन्दी सिनेमा का वो सुनहरा दशक है जहाँ इसने कई सबसे बेहतरीन फ़िल्मों को बड़ी ’युनिवर्सल हिट’ बनते देखा. ’मुगल-ए-आज़म’ जैसी फ़िल्म अपने दौर की सबसे महंगी फ़िल्म होने के साथ-साथ एक कलाकृति के रूप में भी सिनेमा इतिहास में अमर है. ’मदर इंडिया’ से लेकर ’गाइड’ तक कई मुख्यधारा की फ़िल्मों ने देखनेवाले पर अमिट प्रभाव छोड़ा. सत्तर के दशक का ’एंग्री यंग मैन’ नायक भी समाज के असंतोष से उपजा था और एक बड़े समुदाय की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता था. लेकिन अस्सी का दशक ख़त्म होते न होते हिन्दी सिनेमा की यह ’युनिवर्सल अपील’ बिखरने लगती है.

समांतर सिनेमा ने अपनी राह उस दौर में बनाई जब हिन्दी सिनेमा की मुख्यधारा सस्ती लोकप्रियता की गर्त में जा रही थी. यहीं कुछ फ़िल्मकार ऐसी फ़िल्में बनाने लगे जिनकी भव्यता विदेशों में बसे भारतीय को आकर्षित करती. दर्शक की पहचान बदल रही थी, उसके साथ ही सिनेमा की ’युनिवर्सल अपील’ बदल रही थी. नब्बे के दशक में आई मल्टीप्लैक्स कल्चर ने अनुभव को और बदला. अब सिनेमा ’सबका, सबके लिए’ न रहकर ज़्यादा पर्सनल, ज़्यादा एक्सक्लूसिव होता गया. लेकिन बाद के सालों में इसी और ज़्यादा क्लासीफ़ाइड होते जा रहे सिनेमा में से कुछ अनोखे फ़िल्मकारों ने बेहतर सिनेमा के लिए रास्ता भी निकाला. विशाल भारद्वाज ने ’मक़बूल’ बनाई और अनुराग कश्यप ने ’ब्लैक फ़्राइडे’. आज के समय में सिर्फ़ पैसे के बलबूते नापकर किसी फ़िल्म को ’युनिवर्सल हिट’ का दर्जा देना तो सिक्के का सिर्फ़ एक पहलू देखना हुआ. ’थ्री ईडियट्स’ से कहीं कम पैसा कमाने के बाद भी राजकुमार हिरानी की ही ’लगे रहो मुन्नाभाई’ कहीं बड़ी फ़िल्म है क्योंकि उसका असर ज़्यादा दूर तक जाने वाला है. ’गज़नी’ कुछ साल बाद भुला दी जाएगी लेकिन ’खोसला का घोंसला’ को हम याद रखेंगे.

आज फ़िल्म की सफ़लता नापने के पैमाने सिरे से बदल गए हैं. नए उभरते बाज़ार में नया सूत्र यह है कि फ़िल्म रिलीज़ होने के पहले तीन दिन में ही अधिकतम पैसा वसूल लिया जाए. आक्रामक प्रचार और बहुत सारे प्रिंट्स के साथ फ़िल्म रिलीज़ कर इस उद्देश्य को हासिल किया जाता है. यह बड़ी पूंजी के साथ बनी फ़िल्मों के लिए फ़ायदे का सौदा है, ज़्यादा माध्यमों द्वारा प्रचार का सीधा मतलब है शुरुआती सप्ताहांत में टिकट खिड़की पर ज़्यादा भीड़. यहाँ तक कि फ़िल्म से जुड़े तमाम तरह के विवाद भी इस शुरुआती प्रचार में भूमिका निभाते हैं. इसके बरक़्स उच्च गुणवत्ता वाली ऐसी फ़िल्में जो ’माउथ-टू-माउथ’ पब्लिसिटी पर ज़्यादा निर्भर हैं, इस व्यवस्था में घाटे में रहती हैं. ’दबंग’ एडवांस में हाउसफ़ुल के साथ रिलीज़ होती है वहीं ’अन्तरद्वंद्व’ जैसी राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फ़िल्म गिने-चुने सिनेमाघरों में लगकर भी दर्शकों को तरसती है. हमें अपनी ’युनिवर्सल हिट’ की परिभाषा पर फिर से विचार करना चाहिए. अकूत पैसा कमाना ही अकेली कसौटी न हो, बल्कि वह फ़िल्म देखनेवाले की स्मृति का हिस्सा बने. यह बड़ी सफ़लता है.

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मूलत: नवभारत टाइम्स के रविवारीय कॉलम ’रोशनदान’ में उन्नीस सितंबर को प्रकाशित.

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darasal, film ki safalta ko aankane ke paimaane hamesha se variable rahe hain. agar “3 idiots” aur “Dabangg” ko bagair safalta ke aanken, to “3 idiots” kahin acchi film saabit hoti hai….lekin safalta ke manch par “dabangg” kahin aage khadi paayi ja rahi hai (In terms of economic success). “maqbool” aur “omkara” waale paimaane par hum “ishqiya” ko nahin rakh sakte. Anurag Kashyap jaise nirdeshak kabhi ek oonchi safalta ke liye filmen nahin banaate, unhe to shayad ek junoon hai ek ke baad ek acchi filmen banaane ka, aur agar aisi filmen hit bhi ho jaati hain to, it is good.

दबंग देखते देखते बस बेहोश ही नहीं हो पाया।