in films

मोहनदास

विचित्र प्रोसेशन,
गंभीर क्विक मार्च …
कलाबत्तूवाली काली ज़रीदार ड्रेस पहने
चमकदार बैंड-दल-
अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप,उदर-आकृति
आँतों के जालों-से उलझे हुए, बाजे वे दमकते हैं भयंकर
गंभीर गीत-स्वन-तरंगें
ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर.
बैंड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं से,
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार
इसी नगर के ! !
बड़े-बड़े नाम अरे, कैसे शामिल हो गए इस बैंड-दल में ! !
उनके पीछे चल रहा
संगीन-नोकों का चमकता जंगल,
चल रही पदचाप, तालबद्ध दीर्घ पाँत
टैंक-दल, मोर्टार, आर्टिलरी, सन्नद्ध,
धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना,
सैनिकों के पथराये चेहरे
चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे !
शायद, मैंने उन्हें पहले कहीं तो भी देखा था.
शायद, उनमें मेरे कई परिचित ! !
उनके पीछे यह क्या ! !
कैवेलरी ! !
काले-काले घोड़ों पर खाकी मिलिट्री ड्रेस,
चेहरे का आधा भाग सिंदूरी गेरुआ
आधा भाग कोलतारी भैरव,
भयानक ! !
हाथों में चमचमाती सीधी खड़ी तलवार
आबदार ! !
कंधे से कमर तक कारतूसी बैल्ट है तिरछा.
कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तौल,
रोषभरी एकाग्र दृष्टि में धार है,
कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते,
उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कवितायेँ पढ़ी थीं
भई वाह !
उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण
मंत्री भी, उद्योगपति भी और विद्वान्
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद
बनता है बलबन
हाय, हाय ! !
यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय.
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ़ उभर आया है,
छुपे हुए उद्देश्य
यहाँ निखर आए हैं,

यह शोभा-यात्रा है किसी मृत्यु-दल की.

गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का अंश.

मैं सिरीफोर्ट जाते हुए संसद के बाहर से गुज़रता हूँ. आज देखा वहाँ बड़ा जमावड़ा लगा है. चैनल बाहर से लाइव ख़बरें दे रहे हैं.
हिंदुस्तान के प्रजातंत्र की सबसे बड़ी मंडी आजकल सजी है. मोलभाव जारी हैं. खरीद-फ़रोख्त चल रही है. भाव तय हो रहे हैं. रात न्यूज़ देखते हुए उबकाई सी आती है. मुझे संसद भवन को देखकर हरिशंकर परसाई का ‘अकाल उत्सव’ याद आता है,

“अब ये भूखे क्या खाएं? भाग्य विधाताओं और जीवन के थोक ठेकेदारों की नाक खा गए. वे सब भाग गए. अब क्या खाएं? आख़िर वे विधानसभा और संसद की इमारतों के पत्थर और इंटें काट-काटकर खाने लगे.”

मोहनदास को लगता है. जो जितना ऊपर बैठा है लगता है वो उतना ही बड़ा बेईमान है. क्या सब नकली हैं? डुप्लीकेट? सारी व्यवस्था ही ढह गई है. जीता जागता हाड़-मांस का इंसान किसी काम का नहीं. इस दुनिया में कागज़ की लड़ाई लड़ी जाती है. न्याय व्यवस्था की आंखों पर पट्टी बंधी है. उसके हाथ बंधे हैं. मोहनदास के पास पैसा नहीं, पहुँच नहीं. वो मोहनदास नहीं, कोई और अब मोहनदास है. कुछ समझ नहीं आ रहा है. डर सा लगता है. क्या कोई रास्ता है? मुक्तिबोध ने जब अंधेरे में लिखी तब आपातकाल सालों दूर था. लेकिन उन्होनें आनेवाले समय की डरावनी पदचाप सुन ली थी. ब्रह्मराक्षस साक्षात् उनके सामने था. यूँ ही तकरीबन चार साल पुरानी कहानी मोहनदास को आज 17 जुलाई 2008 को पहली बार देखते हुए मुझे ऐसा लगा कि आज ही वो दिन था जो तय किया गया था इस मुलाक़ात के लिए. आज जब पहली बार मुझे संसद भवन के बाहर से निकलते हुए एक अजीब सी गंध आई. सत्ता की तीखी दुर्गन्ध. गूंजते से शब्द, 20 करोड़, 25 करोड़, 30 करोड़… आज जब मुझे संसद भवन के बाहर से निकलते हुए पहली बार उबकाई सी आई.

एक ईमानदार पाठक ही नहीं एक ईमानदार दर्शक की हैसियत से भी यह तो कहना होगा कि फ़िल्म कुछ कमज़ोर थी. ईमानदार राय यह है कि कहानी से जो सहूलियतें ली गयीं दरअसल वो ही फ़िल्म को कमज़ोर बनाती हैं. शुरुआत में मीडिया दर्शन के नामपर बहुत सारे स्टीरियोटाइप किरदार गढे गए. एक बड़ी राय यह भी थी कि कलाकारों का चयन ठीक नहीं हुआ है. खासकर कबूतर जैसी अपने परिवेश में इतनी रची बसी फ़िल्म देखने के बाद दर्शकों की यह राय लाज़मी थी. फ़िर भी एक बार मोहनदास की कहानी शुरू होने के बाद फ़िल्म अपना तनाव बनाकर रखती है. साफ़ है कि कहानी की अपनी ताक़त इतनी है कि वो फ़िल्म को अपने पैरों पर खड़ा रखती है. अनिल यादव जैसे किरदार कमाल की कास्टिंग और काम का उदाहरण हैं लेकिन ऐसे उदाहरण फ़िल्म में कुछ एक ही हैं. मोहनदास के रोल के लिए ही मैं अभी हाथों-हाथ 2-3 ज़्यादा अच्छे नाम सुझा सकता हूँ. फ़िल्म कस्बे के चित्रण में जहाँ खरी उतरी है वहीँ उसका गाँव कुछ ‘बनाया-बनाया’ सा लगता है. बोली अभी-अभी सीखी सी. कस्बे के बीच से बार-बार गुज़रती कोयले की गाडियाँ याद रहती हैं, कुछ कहती हैं. फ़िल्म कहानी के मुख्य संकेत नहीं छोड़ती है. बार बार यश मालवीय और वी. के. सोनकिया  की कवितायें बात को आगे बढाती हैं. ब्रेख्त आते हैं. मुक्तिबोध आते हैं. मोहनदास के माँ-बाप पुतलीबाई और काबादास सतगुरु कबीर को याद करते हैं. कबीर जो एक ऐसी भाषा में कविता कहते थे जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है. हो सकता है कि मैं कहानी के प्रति कुछ पक्षपाती हो जाऊं. उदय प्रकाश को सहेजने वालों के साथ ऐसा हो जाता है. लेकिन फ़िल्म के शुरूआती आधे घंटे से मेरे वो दोस्त भी असंतुष्ट थे जिन्होनें कहानी नहीं पढ़ी है. शायद सोनाली कुलकर्णी के साथ थोड़ा कम वक्त और उससे मिली थोड़ी कम लम्बाई ज़्यादा कारगर रहे.

कहानी की बड़ी बात यह थी कि उसमें आप एक विलेन को नहीं पकड़ पाते. अँधेरा है. डर है. पूरी व्यवस्था का पतन है. कहानी के बीच-बीच कोष्ठकों में पूरी दुनिया में घट रही घटनाएँ हैं. बुश हैं, लादेन हैं, गिरते ट्विन टावर हैं. मेरा यह कहना नहीं है कि यह सब फ़िल्म में होता. मुझे बस यह लगता है कि काश कहानी की तरह फ़िल्म भी कुछ व्यक्तियों को विलेन बनाकर पेश करने की बजाए सिस्टम के ध्वंसावशेष दिखा पाती. सुशांत सिंह और उसके पिता के रोल में अखिलेन्द्र मिश्रा अपनी पुरानी फिल्मी इमेज ढो रहे हैं. यह फ़िल्म को कमज़ोर बनाता है. लेकिन इस सबके बावजूद मैं फ़िल्म से इसलिए खुश हूँ कि वो कहानी का काफ़ी कुछ बचा लेती है. अंत में,

क्या सिनेमा के लिए यह ज़रूरी है कि तमाम अंधेरों के बावजूद भी आख़िर में वह एक उम्मीद की किरण के साथ ख़त्म हो? क्या एक कला माध्यम को सकारात्मक होने के लिए आशावादी होना ज़रूरी है? क्या हर मोहनदास के अंत में एक पत्थर उछाले जाने से ही समाज बदलेगा? क्या एक बंद दरवाज़े के साथ हुआ मोहनदास का अंत ज़्यादा बड़ी शुरुआत नहीं है? फ़िल्म जिन सफ़दरों, मंजुनाथों और सत्येंद्रों को याद करती है शायद उनका नाम ही था जो तमाम दबावों के बावजूद फ़िल्म का अंत नहीं बदला गया. और ब्रेख्त को दोहराती फ़िल्म से हमें यही उम्मीद करनी चाहिए कि वह सिनेमा के भीतर क्रांति की बात करने के बजाए उन अंधेरों की बात करे जो हमारे समय को घेर रहे हैं.

मज़हर कामरान से बार-बार यह पूछा गया कि आख़िर क्यों उनका मोहनदास अपनी लड़ाई लड़ना छोड़ देता है? आख़िर क्यों फ़िल्म इतने निराशाजनक नोट पर ख़त्म हो जाती है? क्या उन्हें फ़िल्म की माँग को समझते हुए उदय प्रकाश की कहानी का अंत बदल देने का ख्याल नहीं आया? बहुत से दर्शक जो उदय की कहानी से अनजान थे वो निर्देशक से फ़िल्म के अंत में एक उम्मीद की किरण चाहते थे. एक उछाला जाता पत्थर शायद अंकुर की तरह या एक रोपा जाता पौधा शायद रंग दे बसंती की तरह. पता नहीं उदय प्रकाश इस सब में कहाँ थे? वो होते तो बहुत से दर्शक उनसे भी यही सवाल करते. और मुझे मालूम है कि उनका जवाब क्या होता… मैं यही चाहता था कि आप सब मुझे इस अंत के लिए कोसें. कहें कि यह अंत गलत है. मोहनदास को एक आखिरी पत्थर उछालना चाहिए. अब भी इस सत्ता तंत्र के पार एक सवेरा है जो उसका इंतज़ार करता है. आप सब ये कहें और मेरी कहानी शायद तब पूरी हो. एक-एक मोहनदास आप सबको इस हॉल से बाहर निकलने के बाद मिलेगा. आप उसे यही बात कहें. मेरी कहानी में तो उसने दरवाज़ा बंद कर लिया लेकिन हो सकता है कि आपकी कहानी में ऐसा ना हो. अगर हम एक भी कहानी ऐसी रच पाये जहाँ मोहनदास को उसकी पहचान वापिस मिल जाती है और वो आख़िर में दरवाज़ा बंद नहीं करता तो मेरा कहानी कहना पूरा हुआ. आप इस कहानी पर अविश्वास करें क्योंकि अगर सिनेमा में बंद हुआ दरवाज़ा असल जिंदगी में ऐसा एक भी दरवाज़ा खोल पाये तो मैं उस बंद दरवाज़े के साथ हूँ.

Share on : Tweet about this on TwitterPin on PinterestEmail this to someonePrint this pageShare on Google+Share on LinkedInShare on Facebook

tumhara filmo par likha padhakar lagataa hai vah apne aap me alag tarah ka lekhan hai fiction-nofiction ke bich ka. ek aisi jagah jo apko sochane ka aur fentasize karane ka space ek saath deti hai. aapne flm naa bhi dekhi ho to bhi aap chijo ko, duniyaa ko dekhane kaa ek kon paa rahe hote hai.

I sincerely salute you Mihir. You youngsters and those who uphold moral values and love their people, specially those who are deprived, forlorn and powerless, are my life breath…
Wishing all the bests

बहुत ही बामौका बात कही है.

बहुत-बहत बधाई

मैंने कहानी नहीं पढी है और सिर्फ फिल्म के बारे में ही पढ रहा हूँ (मौका मिला तो देखूँगा कभी) इसलिए ज़्यादा अनकही बातें समझ नहीं आयीं. लेकिन ये थोडा अजीब लगा कि दर्शकों ने किसी फिल्म की sad ending पे सवाल खडे किए. ऐसा तो हमेशा से होता आया है…ज़्यादातर फिल्में जो realistic की category में आती हैं (या कई बार आना चाह्ती हैं, जैसे कि ‘वास्तव’) दुखद या abrupt अंत का सहारा लेती हैं. मोहनदास चूंकि पहले से लिक्जित कहानी पर आधारित है, इसलिए उसपे ऐसा इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता…लेकिन आम viewer की इस चाहत, कि फिल्में हमेशा happy ending हों, ने हमारे सिनेमा को झूठ के कुएँ में ही तैरते रहने को मजबूर किया है.

रही बात संसद और morals की, तो आज दोपहर से ही वह तमाशा संसद के well में पहुँच गया है. देखकर रोना भी आता है और हँसना भी…लेकिन अंत में हम भी बस दरवाज़ा बंद कर के बैठ जाते हैं…शायद मोहनदास की तरह.

दोस्त पहले दीवान पर देखा आपकी पोस्‍ट उसके बार mihirpandya.com पर. सबसे पहले तो आवारे को एक ठिकाना मिल गया, cheers:). अच्छा लिखा. वैसे कहना आप भी वही चाह रहे हैं जो मैंने कहा है. फर्क ये है कि आप नरमी बरत हैं.

मिहिर…
अक्सर हम किसी ब्लाग के जरिए ब्लागर को जानते हैं पर आज एक प्यारी दोस्त के जरिए पहले ब्लागर को जाना, फिर ब्लाग देखा. ब्लागर कैसे लगे, अच्छे लगे
ब्लाग भी आप जैसा ही बेहतरीन है…टेंपलेट, भाषा, तेवर और पेशकश का तरीका…
इसी तरह लिखते रहें, यही कामना…दोस्त अंशू की टिप्पणी देखी…यकीन हो गया कि आवारगी का नया तराना बहुत-से लोग गुनगुना रहे होंगे…ओशियन की फिल्मों पर इतनी खूबसूरत भाषा के साथ और कहीं शायद ही पढ़ने को मिले… खैर, बधाई ढेर सारी…अब तो इस आवारगी की झलक देखने अक्सर आया करेंगे हम…

blog shifting ki khabar abhi mili .naya kalevar achchh laga.post kafi achchhi hai.loktantr ki badhavasi ki khabar yoon to akhbaar aur news chennels de hee rahe hai .tumne apne andaaz me iski khabar dee.