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देवदास का वर्ज़न 2.0

the social networkउमर अभी पच्चीस हुई ही है और अपनी संगत में ठीक-ठाक स्मार्ट गिना जाता हूँ. मैं ’द सोशल नेटवर्क’ देखते हुए अपने को कुछ पुराना महसूस करता हूँ. मेरा छोटा भाई, जिसमें और मुझमें उमर के दो साल और शायद उतनी ही पीढ़ियों का फ़ासला है, जब भी पलटकर मुझसे कुछ पूछता है (हालाँकि पूरी फ़िल्म के दौरान ऐसा बहुत-बहुत कम बार होता है) मुझे बहुत अच्छा लगता है. मेरे साथ कुछ कम उमर के दिखते लड़कों की टोली है जो मेरे भाई के साथ आए हैं. ये तक़रीबन सारे सॉफ़्टवेयर के खिलाड़ी हैं. ज़्यादातर ऐसे जो अपनी क्रियेटिविटी बचाने के लिए सॉफ़्टवेयर उद्योग के कुछ बड़े ब्रैंड छोड़ आए हैं. फ़िल्म कई जगह इतनी तेज़ है (उसे स्मार्ट कहा जाता है आजकल, मैं सच में पुराना हो चला हूँ) कि संवाद मेरे हाथ से निकल जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे इन दोस्तों की आपसी बातें कई बार मेरे हाथ से निकल जाती हैं.

’द सोशल नेटवर्क’ इस साल के MAMI (मुम्बई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह) की ओपनिंग फ़िल्म थी. वो फ़िल्म जिसे देखने के लिए ऐसी मार मची थी कि उद्घाटन के अगले दिन रिपीट शो में पूरे पैंतालीस मिनट पहले पहुँचकर भी हम फ़िल्म की हवा तक न ले पाए. फ़िनॉमिना बन चुकी सोशल नेटवर्किंग साइट ’फ़ेसबुक’ और उसके जन्मदाता हार्वर्ड स्नातक मार्क जुकरबर्ग की कहानी पर आधारित निर्देशक डेविड फ़िंचर की इस फ़िल्म को आलोचक/समीक्षक रिलीज़ से पहले ही ऑस्कर की बड़ी दावेदार घोषित कर चुके थे. कसी हुई पटकथा और दमदार एडिटिंग के बूते ’द सोशल नेटवर्क’ साल की सबसे उल्लेखनीय अमरीकन फ़िल्म बनकर उभरी है.

हम आश्चर्य करते हैं कि क्यों अनुराग कश्यप तमाम अन्य समकालीन कहानियों को छोड़कर फिर से ’देवदास’ उठाते हैं बनाने के लिए. लेकिन जब दुनिया की सबसे समकालीन फ़िल्म मानी जाती ’दि सोशल नेटवर्क’ देखते हुए मैं हिन्दुस्तानी देवदास के चिह्न पाता हूँ तो बहुत सी बातें समझ आती हैं. शायद सुनकर थोड़ा अजीब लगे लेकिन अगर आज देवदास हो तो बहुत संभव है कि वो ’दि सोशल नेटवर्क’ के मार्क जुकरबर्ग जैसा कोई किरदार हो. हमारी आधुनिक सभ्यता द्वारा तैयार किया वो आत्मकेन्द्रित पुरुष जो साथी लड़की में कभी एक दोस्त नहीं देख पाता. चाहे वो अनुराग की ’देव डी’ हो या फ़िंचर की ’दि सोशल नेटवर्क’, दोनों ही फ़िल्में अंत तक आते आते हमारे आधुनिक देवदास को एक हारे हुए किरदार के तौर पर पेश करती हैं. और दोनों ही फ़िल्में उस उम्मीद के साथ खत्म होती हैं जहाँ देवदास की ये दोनों आधुनिक व्याख्याएं अपनी गलतियाँ पहचान रही हैं. एक नई और बराबरी वाली व्यवस्था पर आधारित शुरुआत करने को तैयार हैं.

फ़िल्म ख़त्म हो चुकी है. मुझे पूरी फ़िल्म समझ नहीं आई, बल्कि यूँ कहना ठीक होगा कि मुझे फ़िल्म में हुई बहुत सी बातें और उनके बताए गए कारण हज़म ही नहीं होते. और बाहर निकलते हुए जब मैं यह बात कहने ही वाला हूँ तभी मेरे भाई का दोस्त X कहता है, “isn’t it sad that we understood everything in this film.” मैं गलत हूँ. बजाए यह कहने के कि मुझे ये फ़िल्म समझ नहीं आई मुझे कहना चाहिए कि मुझे ये पीढ़ी ही समझ नहीं आती. लेकिन यह अच्छा है कि इस पीढ़ी को अपनी आलोचना भाती भी है और समझ भी आती है.

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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के मार्च अंक में प्रकाशित. पोस्टर साभार : Ryan Smallman की रचना.

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@ Kartik. सोचा होगा सरजी. फ़िल्में लिखने की, बनाने की व्यस्तताओं के बीच हाथ से निकल गया होगा. हम खाली बैठे थे, हमने पकड़ लिया 😉

यह फिल्म देखी है, बहुत प्रभावित नहीं हुआ।