मेरे लिए ’फंस गए रे ओबामा’ का सबसे पहला परिचय यह है कि यह मनु ऋषि की दूसरी फ़िल्म है. आपको याद होना चाहिए कि शहरी जीवन के उस असहज कर देने वाले लेकिन अविस्मरणीय अनुभव ’ओये लक्की लक्की ओये’ को परदे पर साकार करने का जितना श्रेय इंडी सिनेमा के ’पोस्टर बॉय’ अभय देओल को जाता है उतना ही श्रेय उस धूसर किरदार ’बंगाली’ को भी जाता है. ज़िन्दगी की निहायत गैरबराबर लड़ाई रोज़ लड़ता और उसमें हारता आम आदमी या मौका देखकर पाला बदलने वाला पालतू कुत्ता, ’बंगाली’ जैसे किरदार के चलने के लिए रास्ता बहुत संकरा था और मनु के लिए पीछे देखने पर पूर्व संदर्भ बहुत कम. लेकिन मनु ऋषि इस मुश्किल किरदार को जिस खूबसूरती से निकाल ले जाते हैं वो क़ाबिलेगौर था. कई अदाकार हैं जिनका अब भी हिन्दी सिनेमा पर बड़ा उधार बाक़ी है, उनका दिया हमने अब तक वापस नहीं लौटाया है. दीप्ति नवल, पवन मल्होत्रा, दीपक डोबरीयाल के साथ ही इस लिस्ट में मनु ऋषि का नाम आता है.
’तेरे बिन लादेन’ के स्मार्ट आइडिया में ’इश्किया’ के भदेस की छौंक है ’फंस गए रे ओबामा’. लेकिन इस दौर की कई अन्य सफल कॉमेडी फ़िल्मों की तरह निर्देशक सुभाष कपूर की ’फंस गए रे ओबामा’ सिर्फ़ एक चमत्कारिक आइडिया भर नहीं. सिर्फ़ आइडिया से आगे निर्देशक के पास बाकायदा पूरी कथा-संरचना है जो एक चेन-रिएक्शन की तरह आगे बढ़ती है. बहुत हद तक प्रत्याशित लेकिन मज़ेदार यह अनुभव दीवाली पर चलाए जाने वाले लड़ी-बम जैसा है. एनआरआई किरदार ओम शास्त्री (रजत कपूर) के दिमाग की उपज यह आइडिया पूरी फ़िल्म में एक के बाद एक अवतरित होती बड़ी मछली को टोपी की तरह पहनाया जाता है. पटकथा में आगे बढ़ने का यह एक साफ़ और सुरक्षित रास्ता है जिसे ’फंस गए रे ओबामा’ बड़े अच्छे तरीके से संभव बनाती है. इंटरवैल के ठीक पहले मुन्नी मैडम के रोल में एक ’ऑल वुमन’ गैंग लीड करती नेहा धूपिया आती हैं और मैं फ़िल्म के भविष्य को लेकर थोड़ा आशंकित होता हूँ. लेकिन इंटरवैल के बाद भी कमान मुख्य रूप से रजत कपूर और मनु ऋषि के सधे हुए हाथों में ही रहती है और मेरी आशंकाएं काफ़ी हद तक निराधार साबित होती हैं.
अच्छी बात यह है कि ’फंस गए रे ओबामा’ ऊपर उद्धृत दोनों ही फ़िल्मों का बेहतर लेती है और जहाँ पिछली फ़िल्मों ने गलती की उस हिस्से को छोड़ आगे बढ़ जाती है. इसीलिए उद्धृत दोनों फ़िल्मों की तरह ’फंस गए रे ओबामा’ का दूसरा भाग निराश नहीं करता और फ़िल्म को सम्पूर्णता देता है. कई बार ऐसा भी होता है कि यथार्थ फ़िल्म में खींची गई व्यंग्य की सीमा को पार करता दिखता है (जैसे बकरी की बलि वाले दृश्य में हत्या के तुरंत बाद मिनिस्टर साहब के चेहरे और कलाई पर खून लगा दिखाना) लेकिन फिर लगता है कि शायद इस सीमा को खींचकर लम्बी-और लम्बी बनाने वाला खुद हमारा वर्तमान नागर समाज है. फ़िल्म में भदेस का आलम यह है कि किडनैपिंग पर गए भाईसाहब के तीन गुर्गे खून करने से पहले गाड़ी में बैठे तबीयत से टट्टी और पाद की बातें करते दिखाए गए हैं. बाकायदा एक फ़िरौती जमा करने का दफ़्तर खुला है जहाँ संतोषजनक भावों पर फ़िरौती लेकर अगले एक साल तक की गारंटी के साथ पावती रसीद दी जाती है, सारा काम सरकारी स्तर पर पूरी लिखा-पढ़ी के साथ. शुक्र है कि फ़िल्म के डॉयलॉग इंस्टैंट कॉफ़ी नहीं हैं, हँसने से पहले क्षण भर रुकने की, समझने की मोहलत देते हैं. आप उस दृश्य को भूल नहीं सकते जहाँ हिन्दुस्तान के एक पहाड़ी कस्बे के कुछ टटपूँजिए किडनैपर हाथ पर हाथ धरे दुनिया का महानतम नारा दोहरा रहे हैं, “yes we can, yes we can, yes we can!”
संजय मिश्रा के फ़ैन हम पहले से हैं. इस तरह के रोल वे आँख बन्द कर भी निभाएं तो निकाल ले जायेंगे. ब्रिजेन्द्र काला फिर एक बार मेरा दिल जीत लेते हैं. हाँ अमोल गुप्ते ज़रूर यथार्थ की अति के चलते कुछ मिसफ़िट किरदार से लगते हैं फ़िल्म में. और मुन्नी उन तमाम कार्यकलापों के दौरान ’मिट्टी के माधव’ सा वो क्या बनाती/बिगाड़ती रहीं मेरे कुछ पल्ले नहीं पड़ा. फिर भी फ़िल्म के असली हीरो हैं अन्नी की हरदिल अज़ीज़ भूमिका में मेरे नायक मनु ऋषि. उनका और सदुपयोग कर पाए हमारा यह नामुराद हिन्दी सिनेमा इसी कामना के साथ फ़िल्म देखने की सिफ़ारिशी चिठ्ठी साथ नत्थी है.
कॉमेडी फ़िल्मो को ही बनाना और पब्लिसिटी देना , मीडीया – पूंजीपती घरानो – निवेशकों और बड़े फिल्मकारों की सोची समझी चाल है , कॉमरेड मिहिर जो तुम्हें समझ मैं आनी चाहिए . नोन कॉमेडी फ़िल्मो को सफल ना होने देकर यह समाज के असली मुद्दों से जनता को दूर रखना चाहते हैं. तुम अपने लेखन द्वारा इनके खिलाफ ये संघर्ष जारी रखो.
अरे भानु प्रिया जी, बहुत शुक्रिया. मैं नतमस्तक हूँ. सच मैं यह प्रयोग नहीं समझ पाया था. तभी मैं कहूँ कि इतनी कसी हुई पटकथा वाली फ़िल्म में ऐसा असंबद्ध सा झोल कैसे. अब ठीक. अच्छी या बुरी लेकिन बाकायदा एक बात थी वहाँ जो कही जा रही थी उस प्रयोग के माध्यम से. अच्छा हुआ आपने यह लिखा. एक बेहतर फ़िल्म और बेहतर हुई.
मिहिर जी , आपकी सलाह पर देखी यह फिल्म और बहुत मज़ा आया. वैसे मुन्नी क्या कर रही थी वो समझना तो बहुत ही आसान था. वो एक पुरुष (प्रतिमा) को नष्ट करके, उससे एक स्त्री (प्रतिमा) की रचना कर रही थी , जैसे उसके इस संबंध मैं विचार थे. “उड़ान” की समीक्षा मैं तो आपने बड़ी गहरी महिलावादी धुनों से हमे परिचित कराया, यह तो उसके मुकाबले एक दम साफ-साफ , हालांकी एकदम विपरीत था.
बहुत शुक्रिया अंजुले और पूजा. और आपने ठीक कहा वैसे पूजा, इस फ़िल्म की बड़ी ताक़त इसकी ’झमाझम टाइप’ पब्लिसिटी नहीं (जैसा आजकल एक नितांत अश्लील फ़िल्म को लेकर किया जा रहा है) इसकी बंधी हुई स्क्रिप्ट है. और ऐसी अच्छी फ़िल्में बहुत बार सिर्फ़ पब्लिसिटी का पैसा न होने की वजह से डूब जाती हैं. और देखो, इनके चलने में हमारा ही तो लालच है, आज एक ’फंस गए रे ओबामा’ चलेगी. कद दो और लोग अपनी स्क्रिप्ट पर भरोसा करेंगे और इस पूर्व उदाहरण को देख कोई निवेशक पैसा भी लगाएगा. हमें अच्छी फ़िल्में मिलती रहें इसके लिए इन लघु लेकिन गंभीर प्रयासों का सफल होना ज़रूरी है.
बस एक और तमन्ना है. अगली इंडिपेंडेंट फ़िल्म जो हिट हो वो अगर कॉमेडी न हो तो मैं और खुश हो जाऊँगा. मेरा विश्वास बढ़ेगा और ’सिर्फ़ कॉमेडी बिकती है’ झूठ सबित होगा. उस दिन के इंतज़ार में मैं आज भी हूँ.
फिल्म वाकई अच्छी है..बिना किसी उम्मीद के देखने गई थी…बिना कोई रिव्यू पढ़े या चर्चा विचर्चा किए..और पाया कि अगर उम्मीद के साथ जाती तब भी यह फिल्म या तो उम्मीद के मुताबिक जाती या उम्मीद से बेहतर..और आपने एकदम सही समीक्षा कर मारी है मिहिर..
फंस गए हैं देखते हैं अभी तो खले जी जान के चक्कर में आए थे निराश कर गई फिल्म……
लगता है कि देखनी पड़ेगी।