प्रभात की कविताओं की नई किताब ’बंजारा नमक लाया’ आई है.
प्रभात हमारा दोस्त है. प्रभात की कविताएं हमारी साँझी थाती हैं. हम सबके लिए ख़ास हैं. कल पुस्तक मेले में ’एकलव्य’ पर उसकी नई किताब मिली तो मैं चहक उठा. आप भी पढ़ें इन कविताओं को, इनका स्वाद लें. मैं प्रभात की उन कविताओं को ख़ास नोटिस करता हूँ जहाँ वह हमारे साहित्य में ’क्रूर, हत्यारे शहर’ के बरक्स गाँव की रूमानी लेकिन एकतरफ़ा बनती छवि को तोड़ते हैं. यहाँ मेरी पसंदीदा कविता ’मैंने तो सदा ही मुँह की खायी तेरे गाँव में’ आपके सामने है. उनका गाँव हिन्दुस्तान का जीता-जागता गाँव है, अपनी तमाम बेइंसाफ़ियों के साथ. लेकिन इससे उनका गाँव बेरंग नहीं होता, बेगंध नहीं होता. तमाम बेइंसाफ़ियों के बावजूद उसका रंग मैला नहीं होता. एक ’सत्तातंत्र’ गाँव में भी है और उसका मुकाबला भी उतना ही ज़रूरी है. प्रभात जब ’गाँव’ की बेइंसाफ़ियों पर सवाल करते हैं तो यह उस ’सत्तातंत्र’ पर सीधा सवाल है. प्रभात की कविता ’गाँव’ का पक्ष नहीं लेती, बल्कि गाँव के भीतर जाकर ’सही’ का पक्ष लेती है.
जैसा हमारे दोस्त प्रमोद ने भूमिका में लिखा है कि ’पानी’ प्रभात की कविता का सबसे मुख्य किरदार है. होना भी चाहिए, राजस्थान पानी का कितना इंतज़ार करता है, पानी हमारे मानस का मूल तत्व हो जैसे. और उनकी कविता ’या गाँव को बंटाढार बलमा’ मैं यहाँ न समझे जाने का जोख़िम उठाते हुए भी दे रहा हूँ, ऐसा गीत विरले ही लिखा जाता है. कितना सीधा, सटीक. फिर भी कितना गहरा.
एक और वजह से यह किताब ख़ास है. इस किताब में दोस्ती की मिठास है. कैसे एक दोस्त कविताएं लिखता है, दूसरा दोस्त उन कविताओं को एक बहुत ही ख़ूबसूरत किताब का रूप देता है और तीसरा दोस्त अपना लाड़ लड़ाता है एक प्यारी सी भूमिका लिख कर. मैंने बचपन में अपनी छोटी-छोटी, मिचमिचाई आँखों से इन दोस्तियों को बड़े होते देखा है. कभी ये सारे अलग-अलग व्यक्तित्व हैं, कोई चित्रकार है तो कोई मास्टर. कोई संपादक हो गया है तो कोई बड़ा अफसर. कोई किसी अख़बार में काम करती है तो कोई दिखाई ही नहीं देता कई-कई साल तक. लेकिन फिर अचानक किसी दिन ये मिलकर ’वितान’ हो जाते हैं. और इन्हें जोड़ने का सबसे मीठा माध्यम हैं प्रभात की कविताएं. इन सारे दोस्तों को थोड़ा सा कुरेदो और प्रभात की एक कविता निकल आती है हरेक के भीतर से.
आप प्रभात की कविताएं पढ़ना और सहेजना चाहें तो इस सुंदर सी किताब को विश्व पुस्तक मेले में ’एकलव्य’ की स्टॉल (हॉल न.12A/ स्टॉल न.188) से सिर्फ़ साठ रु. देकर ख़रीद सकते हैं. यहाँ इस किताब से मेरी पसंदीदा कविताओं के अलावा मैं प्रमोद की लिखी भूमिका भी उतार रहा हूँ.
ज़मीन की बटायी
मैंने तो सदा ही मुँह की खायी तेरे गाँव में
बुरी है ज़मीन की बटायी तेरे गाँव में
सिर्फ़ चार के खाते है सैंकड़ो बीघा ज़मीन
कुछ छह-छह बीघा में हैं बाकी सारे भूमिहीन
भूमिहीन हैं जो मज़दूर मज़लूम हैं
ज़िन्दा हैं मगर ज़िन्दगी से महरूम हैं
जीना क्या है जीना दुखदायी तेरे गाँव में
बुरी है ज़मीन की बटायी तेरे गाँव में
ठसक रुपैये की किसी में ऎंठ लट्ठ की
बड़ी पूछ बाबू तेरे गाँव में मुँहफट्ट की
बड़ी पूछ उनकी जो कि छोटे काश्तकार हैं
शामिल जो ज़मींदारों के संग अनाचार में
चारों खण्ड गाँव घूमा पाया यही घूम के
सबके हित एक से सब बैरी मज़लूम के
दुखिया की नहीं सुनवायी तेरे गाँव में
बुरी है ज़मीन की बटायी तेरे गाँव में
ऋण लेर सेर घी छँडायौ तो पै रामजी
अन्न का दो दाणा भी तो दै रै म्हारा रामजी
खेतों में मजूरी से भरे पूरे परिवार का
पूरा नहीं पड़े है ज़माना महँगी मार का
इसलिए छोड़ के बसेरा चले जाते हैं
भूमिहीन उठा डाँडी-डेरा चले जाते हैं
चुग्गे हेतु जैसे खग नीड़ छोड़ जाते हैं
जानेवाले जाने कैसी पीर छोड़ जाते हैं
परदेसी तेरी अटारी राँय-बाँय रहती है
मौत के सन्नाटे जैसी साँय-साँय रहती है
ऎसी ना हो किसी की रुसवायी मेरे गाँव में
बुरी है ज़मीन की बटायी मेरे गाँव में
भाई रे
ऋतुओं की आवाजाही रे
मौसम बदलते हैं भाई रे
खजूरों को लू में ही
पकते हुए देखा
किसानों को तब मेघ
तकते हुए देखा
कुँओं के जल को
उतरते हुए देखा
गाँवों के बन को
झुलसते हुए देखा
खेतों को अगनी में
तपते हुए देखा
बर्फ़ वाले के पैरों को
जलते हुए देखा
गाते हुए ठंडी-मीठी बर्फ़
दूध की मलाई रे
मौसम बदलते हैं भाई रे
जहाँ से उठी थी पुकारें
वहाँ पर पड़ी हैं बौछारें
बैलों ने देखा
भैंस-गायों ने देखा
सूखें दरख़्तों की
छावों ने देखा
नीमों बबूलों से ऊँची-ऊँची घासें
ऎसी ही थी इनकी गहरी-गहरी प्यासें
सूखे हुए कुँए में मरी हुई मेंढकी
ज़िन्दा हुई टर-टर टर्राई रे
मौसम बदलते हैं भाई रे
आल भीगा पाल भीगा
भरा हुआ ताल भीगा
आकाश पाताल भीगा
पूरा एक साल भीगा
बरगदों में बैठे हुए
मोरों का शोर भीगा
आवाज़ें आई घिघियाई रे
मौसम बदलते हैं भाई रे
गड़रियों ने देखा
किसानों ने देखा
ग्वालों ने देखा
ऊँट वालों ने देखा
बारिश की अब दूर
चली गई झड़ियों को
खेतों में उखड़ी
पड़ी मूँगफलियों को
हल्दी के रंग वाले
तितली के पर वाले
अरहर के फूलों को
कोसों तक जंगल में
ज्वार के फूलों को
दूध जैसे दानों से
जड़े हुए देखा
खड़े हुए बाजरे को
पड़े हुए देखा
चूहों ने देखा
बिलावों ने देखा
साँपों ने देखा
सियारों ने देखा
आते हुए जाड़े में
हरेभरे झाड़ों की
कच्ची सुगंध महमहायी रे
मौसम बदलते हैं भाई रे
बंजारा नमक लाया
साँभर झील से भराया
भैंरु मारवाड़ी ने
बंजारा नमक लाया
ऊँटगाड़ी में
बर्फ़ जैसी चमक
चाँद जैसी बनक
चाँदी जैसी ठनक
अजी देसी नमक
देखो ऊँटगाड़ी में
बंजारा नमक लाया
ऊँटगाड़ी में
कोई रोटी करती भागी
कोई दाल चढ़ाती आई
कोई लीप रही थी आँगन
बोली हाथ धोकर आयी
लायी नाज थाळी में
बंजारा नमक लाया
ऊँटगाड़ी में
थोड़ा घर की खातिर लूँगी
थोड़ा बेटी को भेजूँगी
महीने भर से नमक नहीं था
जिनका लिया उधारी दूँगी
लेन देन की मची है धूम
घर गुवाळी में
बंजारा नमक लाया
ऊँटगाड़ी में
कब हाट जाना होता
कब खुला हाथ होता
जानबूझ कर नमक
जब ना भूल आना होता
फ़ीके दिनों में नमक डाला
मारवाड़ी ने
बंजारा नमक लाया
ऊँटगाड़ी में
या गाँव को बंटाढार बलमा
याकी कबहुँ पड़े ना पार बलमा
या गाँव को बंटाढार बलमा
इसकूल कू बनबा नाय देगौ
बनती इसकूल को ढाय देगौ
यामैं छँट-छँट बसे गँवार बलमा
या गाँव को बंटाढार बलमा
या कू एक पटैलाँई ले बैठी
काँई सरपंचाई ले बैठी
बोटन म लुटाया घरबार बलमा
या गाँव को बंटाढार बलमा
छोरी के बहयाव म लख देगौ
छोरा के म दो लख लेगौ
छोरा-छोरी कौ करै ब्यौपार बलमा
या गाँव को बंटाढार बलमा
या की छोरी आगे तक रौवै है
पढबा के दिनन कू खोवै है
चूल्हा फूँकै झकमार बलमा
या गाँव को बंटाढार बलमा
या का छोरा बिंगड़ै कोनी पढै
दस्सूई सूँ आगै कोनी बढै
इनकू इस्याई मिल्या संस्कार बलमा
या गाँव को बंटाढार बलमा
पैलाँई कमाई कम होवै
ऊपर सूँ कुरीति या ढोवै
बात-बात म जिमावै बामण चार बलमा
या गाँव को बंटाढार बलमा
कुटमन की काँई चलाई लै
भाई कू भाई देख जलै
यामै पनपै कैसे प्यार बलमा
या गाँव कौ बंटाढार बलमा
बनती कोई बात बनन ना दे
करै भीतर घात चलन ना दे
यामै कैसै सधै कोई कार बलमा
या गाँव को बंटाढार बलमा
यामै म्हारी कोई हेट नहीं
दिनरात खटूँ भरै पेट नहीं
या गाँव म डटूँ मैं काँई खा र बलमा
या गाँव को बंटाढार बलमा
इस किताब का नाम ’बंजारा नमक लाया’ नहीं होता तो क्या हो सकता था? शायद ’प्रिय पानी’ हो सकता था. इसका एक बड़ा हिस्सा है जो पानी की कथा कहता है, पानी को याद करता है. पानी वहाँ एक स्मृति है, पानी वहाँ जीवन है, पानी अपने आप में संगीत है. उसकी अपनी ध्वनियाँ हैं. गिरने की, बरसने की. फिर ऎसा क्या रहा होगा जो किताब का नाम सिर्फ़ एक गीत के नाम पर रख दिया गया होगा. दरअसल यह भी एक कहानी जैसा है कि कोई गीत अपनी ही किताब पर भारी पड़े. मगर गीत में यह वज़न आया कहाँ से है? तो वह आया है इसकी प्रसिद्धि से. दरअसल प्रभात का यह गीत लिखे जाने के दिन से ही इतना प्रसिद्ध हुआ है कि इसे नज़र अंदाज करना किसी भी किताब में किन्हीं भी गीतों के बीच मुश्किल होता. राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश के जिन-जिन इलाकों में इसे किसी ने गा दिया यह तुरंत ही वहाँ के लोगों की ज़बान पर चढ़ गया और उन्होंने इसे अपनाकर प्यार देना शुरु कर दिया. यह बात इस ओर भी संकेत करती है कि उदार बाज़ारवाद के इन दिनों में इन सभी इलाकों में कहीं ना कहीं जीवन इतना ही संघर्षमय है कि उन्हें नमक जैसी चीज़ पर लिखा गया गीत अपनी ज़रूरत महसूस होता है. इस गीत की खूबसूरती है कि इसमें एक तरफ़ तो नमक के इतने सुन्दर बिम्ब हमें मिलते हैं और दूसरी तरफ़ उसी नमक के लिए ज़िन्दगी की जद्दोज़हद पूरी जटिलता के साथ उपस्थित है.
इस किताब में दो-तीन तरह के मिजाज़ के गीत हैं. एक वे जो सीधे-सीधे प्रकृति की सुन्दरता को प्रगट करते हैं. दूसरे वे जो प्रतिरोध की आवाज़ बन जाते हैं, तीसरे वे जो जीवन को उसकी वास्तविकता में बहुत ही मार्मिक ढंग से कहते हैं और चौथे वे जो पारंपरिक मिथक कथाओं को लेकर एक ख़ास शैली में लिखे गए हैं. इस शैली को ’पद गायन’ की शैली कहते हैं और यह राजस्थान के माळ, जगरौटी इलाके (करौली, सवाईमाधोपुर व दौसा ज़िले) में मीणा व अन्य जातियों द्वारा गाए जाते हैं. यही कारण है कि किताब को इस शैली के प्रसिद्ध कवि एवं लोक गायक धवले को समर्पित किया गया है. किताब में दो भाषाएं हैं जो हमारी बहुभाषिक संस्कृति की बानगी हैं. कुछ गीत खड़ी बोली हिन्दी में हैं, कुछ उस माळ की भाषा में जो प्रभात की संवेदनात्मक ज़मीन है.
यह किताब इस बात की गवाह है कि काव्य किस भाषा में है यह महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है वह किस चेतना के साथ है. ’सीता वनवास’ पद की काव्य चेतना वह सारे सवाल हमारी मनुष्य सभ्यता के सामने खड़े करती है जिनकी अपेक्षा हम आज की किसी भी कविता से करना चाहेंगे. इसी तरह चाहे वह खड़ी बोली हिन्दी में लिखा ’धरती राजस्थानी है’ हो या माळ की भाषा में लिखा ’काळी बादळी’. दोनों में ही सूखे व अकाल की विभीषिका को व्यक्त करने वाली काव्य चेतना बहुत नज़दीक की है. इस किताब से गुज़रते हुए दो-तीन तरह की अनुभूतियाँ हो सकती हैं. एक स्थिति है जब आप नई भाषा व उसमें आए प्रकृति के नए बिम्बों के काव्य रसास्वादन से कुछ खुश व समृद्ध महसूस करते हैं. दूसरी स्थिति है जब वास्तविकता के वर्णन में काव्य की मार्मिकता आपको अन्दर तक भर देती है और आप उदास महसूस करते हैं. और तीसरी स्थिति है जब आप अपने समय पर किए जा रहे सवालों में शामिल हो जाते हैं, स्थितियों के प्रतिरोध के स्वर में शामिल हो जाते हैं, और अपने भीतर बदलाव की कोशिश करने की एक ताकत महसूस करने लगते हैं.
जब सपनों को सच में बदलने की ज़िद की जाती है तो वे विचार या कला की शक्ल लेते हैं. यह किताब देखे गए सपनों में से कुछ का सच में बदलना है. सपनों का वह हिस्सा जिसे आप अपने दम पर पूरा करने की कोशिश भर कर सकते हैं. –प्रमोद
@ ravindra vyas.
जी बिलकुल सुने हैं, कुछ लिखा भी था जो मेरे लैपटॉप की हार्ड डिस्क में कहीं पड़ा होगा हमेशा की तरह. लेकिन लगता है उसकी फ़रमाइश बहुत है! करता हूँ कुछ…
@ all
सभी जिन्होंने प्रभात की कविताएं पढ़कर कुछ पाया अब वे मेरी इस खुशी में शामिल हैं. पुस्तक मेला तो ख़त्म हुआ. किताब की डीटेल लिख रहा हूँ नीचे, आप चाहें तो ख़रीदकर पढ़ सकते हैं. जयपुर वालों के लिए तो आसान है सांगानेरी गेट तक जाना. बाक़ी सभी शेखर जी से टेलीफ़ोन पर जानकारी ले सकते हैं.
’बंजारा नमक लाया’
लेखक – प्रभात
फोटो – मदन मीणा
चित्र – मीणा जनजाति कला
डिजाइन – शिवकुमार गाँधी
दाम – साठ रुपए
प्रकाशक – लोकायत प्रकाशन
ए – 362, उदयपुर हाउस
मोती डूँगरी रोड,
जयपुर – 304004
दूरभाष – 0141-2600912.
puri kitab padhne ki ichha hai. jitni kvitayen yahan hai leek se hatkar aapna alag muhavra banati hai. prbhat ki pritibha adbhut hai. badhai…
achchhi kavitaon ke liye badhai.
kavitayen waqai bahut achchhi hain,badhai.
क्या आपने इश्किया के गीत सुने हैं।
बरसात का पानी अद्भुत रचना है।
achchi kavitaon ke lie badhai ..
प्रिय मिहिर,
‘बंजारा नमक लाया’ .. पोस्ट को पढ़ा। ब्लागिंग की दुनिया में बहुत कम शब्द ऐसे होते हैं, जिन्हें पढऩे की अदम्य इच्छा होती है। तुम्हारे ब्लॉग को कभी-कभार स्कैन कर लेता हूं। मालूम नहीं क्यों मगर बंजारा नमक लाया का परिचय और उसकी कुछ दी गई कविताएं बहुत पसंद आई। तुम्हारे दोस्त प्रभात से मैं तो परिचित नहीं हूं, पर उसे राजस्थान के सूखे-अनसूखे पानी की कहानी कविता के रुप में कहने और वहां के गांवों के समाज पर इतना अच्छा लिखने के लिए मेरी ओर से बधाई जरुर दे देना। ‘जमीन की बटाई’ और ‘भाई रे’ अच्छी है। तो ‘बंजारा नमक लाया ऊंटगाड़ी में’ ने राजस्थान के मेरे गांव की याद ताजा कर दी। मेरा अंतर्मन कुछ तृप्त हुआ।
तुमसे ई-मेल के जरिए संपर्क की कोशिश की थी, मगर तुम्हारा जवाब नहीं आया और बात नहीं हो पाई।
खैर खुश रहो।
लेख के लिए धन्यवाद।
गजेन्द्र सिंह भाटी
Is kitab ka zikra, pustak mele me iski upasthit aur iske peeche ki kahani aur rishto ko tumne bahut hi sundar aur sankshipt roop me kaha hai. parabhat ki kitab ke aane par tumhe bhi dhero badhai.
Shandaar kavitaye….
kitab ke liye Prabhat ko badhai.
Ab is kitab ko adhikadhik pathko tak pahuchani hogi.