आनंद पटवर्धन की क्लासिक डॉक्यूमेंट्री ‘राम के नाम’ (1992) अपनी आँखों के सामने इतिहास को घटते देखने का शानदार उदाहरण है। उत्तर भारत में रामजन्मभूमि आन्दोलन के हिंसक उबाल को पटवर्धन का कैमरा लाइव दर्ज कर रहा था। यह भारत के इतिहास में एक निर्णायक क्षण है, जब हमारा वर्तमान हज़ार दिशाअों में खींचा जा रहा था। यहाँ कैमरा अनुपस्थित नहीं, बल्कि किसी गवाह की तरह घटनास्थल पर मौजूद है। वह खुद कोई कहानी नहीं रच रहा, बल्कि वर्तमान की सबसे महत्वपूर्ण कहानी के गर्भगृह में आपको खड़ा कर देता है। फ्रांस से निकली यह ‘सिनेमा वेरिते’ तकनीक दर्शक को निर्णय की एजेंसी प्रदान करती है, मुझे यह बहुत ही सम्माननीय बात लगती है।
पिछले शुक्रवार सिनेमाघरों में लगी दो नौजवानों खुशबू रांका आैर विनय शुक्ला की डॉक्यूमेंट्री ‘एन इनसिग्निफिकेंट मैन’ इस ‘सिनेमा वेरिते’ स्टाइल आॅफ़ फ़िल्ममेकिंग का रोमांचक नया अध्याय है। इसलिए भी कि यह भारतीय दर्शक के मन में डॉक्यूमेंट्री सिनेमा को लेकर बने कई भ्रमों – कि वो बोरिंग होता है, बस जानकारी हासिल करने का माध्यम भर होता है, मनोरंजक नहीं होता, को तोड़ती है।
‘आम आदमी पार्टी’ के निर्माण के पहले दिन से खुशबू आैर विनय ने उन्हें फ़िल्माना शुरु किया आैर ज़रा भी निर्णयकारी हुए बिना – यहाँ कोई पॉइंट-टू-कैमरा साक्षात्कार नहीं हैं, कोई वॉइस-आेवर नहीं, सूत्रधार नहीं, यह फ़िल्म किसी बॉलीवुड थ्रिलर सा मज़ा देती है।