फिर एक ’जाने भी दो यारों’ की तलाश में

“नेहरूवियन सपना तब बुझ चुका था और राजनैतिक नेताओं की जमात राक्षसों में बदल चुकी थी. हर आदमी भ्रष्ट था और हमारा शहर अब उन्हीं भ्रष्ट राजनेताओं और अफ़सरानों के कब्ज़े में था. भू-माफ़ियाओं के साथ मिलकर उन्होंने पूरी व्यवस्था को एक कूड़ेदान में बदल दिया था. और इन्हीं सब के बीच दो फ़ोटोग्राफ़र दोस्त अपनी ज़िन्दगी के लिए संघर्ष कर रहे थे. लेकिन इस भ्रष्ट दुनिया में न तो उन्हें प्यार मिला और न ही अपनी नैतिकता बचाने की जगह ही मिली. कुंदन शाह की दुनिया में ’प्यासा’ का शायर और नाचनेवाली, और खुद उनके दो युवा फोटोग्राफ़र, सभी गर्त में हैं. सभी की किस्मत में अंधे कुएं में ढकेला जाना लिखा है और हम इस त्रासदी को देख हंसते हैं.” – सुधीर मिश्रा. ’नो पोट्स इन दि रिपब्लिक’. आउटलुक, 21 मई 2007.

jai arjun singh1ब्लॉग-जगत में सिनेमाई बहसबाज़ियों में शामिल रहे दोस्तों के लिए जय अर्जुन सिंह का नाम नया नहीं है. उनका ब्लॉग ‘Jabberwock’ बड़ी तेज़ी से आर्काइवल महत्व की चीज़ होता जा रहा है. उनके लेखन में नयापन है, उनके संदर्भ हमारी पीढ़ी की साझा स्मृतियों से आते हैं और सिनेमा पर होती किसी भी बात में यह संदर्भ सदा शामिल रहते हैं. कुंदन शाह की फ़िल्म ’जाने भी दो यारों’ पर हाल में आई उनकी किताब भी सिनेमा अध्ययन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है. किताब अपने साथ फ़िल्म से जुड़े अनगिन अनजाने किस्से लाती है. ऐसे किस्से जिन्हें इस फ़िल्म के कई घनघोर प्रंशसक भी कम ही जानते हैं. यहाँ एक चूहे की लाश के लिए भर गर्मी में दौड़ा दिए गए जवान पवन मल्होत्रा हैं तो भरी बंदूक से पेड़ पर लटके आमों का शिकार करते ’डिस्को किलर’ अनुपम खेर. यहाँ ऐसे तमाम किस्से हैं जिन्हें फ़िल्म का ’फ़ाइनल कट’ देखने भर से नहीं जाना जा सकता. लेकिन साथ ही किताब उस मूल सोच पर गहराई से रौशनी डालती है जिससे ’जाने भी दो यारों’ जैसी फ़िल्म पैदा हुई. उस निर्देशक के बारे में जिसके लिए आज भी मार्क्सवाद एक प्रासंगिक विचार है.

किताब के अंत में लेखक जय अर्जुन सिंह एक जायज़ सवाल पूछते हैं, कि हमारे पिछले पच्चीस साला सिनेमा में कोई ’जाने भी दो यारों’ दुबारा क्यों नहीं हुई? एक बड़े फ़लक पर यह सवाल हमसे यह भी पूछता है कि फ़ूहड़ हास्य से भरे जा रहे हमारे हिन्दी सिनेमा में स्तरीय राजनैतिक व्यंग्य और व्यवस्था पर कटाक्ष करती फ़िल्मों के लिए जगह क्यों नहीं बन पाई? बड़ी तलाश के बाद एक पंकज आडवानी मिलते हैं जिनकी फ़िल्मों में उस दमकते हुए पागलपन की झलक मिलती है और कई सालों बाद दास्तान कहने वालों की टोली एक ’पीपली लाइव’ लेकर आती है. लेकिन इनके बीच लम्बा अकाल पसरा है. ’राडिया-टेप’ दस्तावेजों के सार्वजनिक होने के बाद आज हमारा वर्तमान जिन बहस-मुबाहिसों में घिरा है, ’जाने भी दो यारों’ सबसे प्रासंगिक फ़िल्म लगती है. यही हमारा वर्तमान है, जिसे परदे पर देख हम लोट-पोट हो रहे हैं, ठहाके लगा रहे हैं.

मैं अपने दोस्त वरुण ग्रोवर के सामने यही सवाल रखता हूँ. वरुण पेशेवर व्यंग्य लेखक हैं और टेलिविज़न पर रणवीर शौरी, विनय पाठक, शेखर सुमन जैसे कलाकारों के लिए स्टैंड-अप कॉमेडी लिख चुके हैं. वरुण का साफ़ कहना है कि स्तरीय राजनैतिक व्यंग्य के लिए ज़रूरी है कि वह ’एंटी-एस्टेब्लिशमेंट’ हो. और हिन्दी सिनेमा के लिए ’एंटी-एस्टेब्लिशमेंट’ होना कभी भी चाहा गया रास्ता नहीं रहा. वरुण इस सिद्धांत को अन्य मीडिया माध्यमों पर भी लागू करते हैं और उनका मानना है कि हमारे टेलिविज़न पर भी खासकर राजनैतिक और व्यवस्थागत मसलों पर व्यंग्य लिखते हुए ज़्यादा आगे जाने की गुंजाइश नहीं मिलती. इंटरनेट पर अपनी बात कहने की फिर भी थोड़ी आज़ादी है और इसीलिए हम अपने दौर का कुछ सबसे स्तरीय व्यंग्य ट्विटर और फ़ेसबुक पर ’फ़ेकिंग न्यूज़’, ’जी खंबा’ और ’जय हिंद’ जैसी साइट्स और ट्विटर हैंडल के माध्यम से पाते हैं. इस संदर्भ में जय अर्जुन भी कुंदन शाह का वो पुराना साक्षात्कार उद्धृत करते हैं जहाँ उन्होंने कहा था कि मैं ईमानदारी में विश्वास रखता हूँ. मेरे किरदार भ्रष्ट होने का विकल्प चुनने के बजाए मर जाना पसन्द करेंगे. जय अर्जुन कहीं न कहीं खुद कुंदन में भी यही प्रवृत्ति देखते हैं और इस ईमानदारी के साथ, गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले सिनेमा जगत में कुंदन फिर कभी वो नहीं बना पाते जो उन्होंने चाहा होगा.

एक और वजह है जो मैं दूसरी ’जाने भी दो यारों’ न होने के पीछे देख पाता हूँ. और यह बात सिर्फ़ सिनेमा तक सीमित नहीं, एक बड़े कैनवास पर यह व्यंग्य की पूरी विधा के सामने खड़े संकट की बात है. एक ख़ास दौर में आकर हमारी रोज़मर्रा की हक़ीकत का चेहरा ही इतना विकृत हो जाता है कि व्यंग्य के लिए कुछ नया कहने की गुंजाइश ही नहीं बचती. हमारा वर्तमान ऐसा ही एक दौर है. साथी व्यंग्यकारों ने पिछले कुछ सालों में यह बार-बार अनुभव किया है कि उनका व्यंग्य में लिखा हुआ कटाक्ष उनके ही सामने सच्चाई बन मुँह बाए खड़ा है. आज ’जाने भी दो यारों’ जैसी व्यंग्य फ़िल्म संभव नहीं, क्योंकि यह आज की नंगी सच्चाई है.

लेकिन क्या यह पूरा सच है कि हिन्दी सिनेमा में ’जाने भी दो यारों’ जैसी फ़िल्म का कोई वारिस नहीं हुआ? अगर मैं इस सवाल को थोड़ा बदल दूँ, जानना चाहूँ कि ’जाने भी दो यारों’ में आया शहर क्या हिन्दी सिनेमा में लौटकर आता है? कहीं दुबारा दिखाई देता है? तो क्या तब भी जवाब नकारात्मक ही होगा? ’जाने भी दो यारों’ को ’डार्क कॉमेडी’ कहा गया. सच है कि उसके बाद ’कॉमेडी’ किसी और ही दिशा में गई, लेकिन जो बदरंग स्याह इस फ़िल्म ने हमारे सिनेमाई शहर के चेहरे पर रंगा है उसका असर दूर तक और गहरे दिखाई देता है. फ़िल्म के असिस्टेंट डाइरेक्टर रहे सुधीर मिश्रा जय अर्जुन से आपसी बातचीत में इस ओर इशारा करते हैं. खुद उनकी फ़िल्मों को ही लीजिए. ’ये वो मंज़िल तो नहीं’, ’इस रात की सुबह नहीं’, ’हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी’, ’चमेली’ जैसी फ़िल्में. भले इन फ़िल्मों का चेहरा-मोहरा ’जाने भी दो यारों’ से न मिलता हो, इनका स्वाद तो वही है.

पिछले साल सिनेमा में बदलती शहर की संरचना को पढ़ते हुए मेरी नज़र दो फ़िल्मों पर बार-बार ठहरती है. ’जाने भी दो यारों’ से कुछ ही साल की दूरी पर, यह अस्सी के उत्तरार्ध में आई दो सबसे आईकॉनिक फ़िल्में हैं — ’परिंदा’ और ’तेज़ाब’. रंजनी मजूमदार और मदन गोपाल सिंह जैसे आलोचकों ने इन्हें अपने अध्ययनों में रेखांकित किया है. ’तेज़ाब’ में आया शहर साक्षात खलनायक है और उसने नायक महेश देशमुख को उचक्के ’मुन्ना’ में बदल तड़ीपार कर दिया है. ’परिंदा’ में भी शहर एक नकारात्मक विचार है. दोनों ही फ़िल्मों में शहर का असल किरदार रात में उभरता है. यह ’रात का शहर’ है जिसमें अवैध सत्ता ही असल सत्ता है. उसके तमाम कुरूप खेलों के आगे ईमानदारी आत्महत्या सरीखी है. यह मासूमियत की मौत है.

JBDYक्या यह शहर वही नहीं? यह संयोग नहीं कि ’जाने भी दो यारों’ का ज़्यादातर महत्वपूर्ण घटनाक्रम रात में घटता है. चाहे वह डिमैलो के बंगले पर अवैध सौदेबाज़ी हो चाहे आधी रात ’अंतोनियोनी पार्क’ में लाश की तलाश. चाहे वह पुल के नीचे कथानायकों पर चला हवलदार का डंडा हो चाहे लाश के साथ आहूजा की लम्बी बातचीत. यह अवैध सत्ता के वैध सत्ता हो जाने का शहर है, यह ’रात का शहर’ है. और सबसे महत्वपूर्ण, ’जाने भी दो यारों’ के उस अविस्मरणीय दृश्य को हम कैसे भूल सकते हैं जहाँ मरीन ड्राइव की किसी निर्माणाधीन बहुमंज़िला इमारत की सबसे ऊपरी मंज़िल पर खड़े कमिश्नर डिमैलो, और उनसे बांद्रा के कब्रिस्तान पर बनने वाली ऊँची इमारत की सौदेबाज़ी करते तरनेजा और उसके गुर्गे सामने से आती डूबते सूरज की रौशनी में स्याह परछाइयों में बदल जाते हैं. जैसे उनके ’काले कारनामों’ को फ़िल्म एक और चाक्षुक अर्थ दे रही हो. मज़ेदार बात जय अर्जुन अपनी किताब में बताते हैं कि उस दृश्य में किरदारों का स्याह परछाइयों की तरह दिखाया जाना पहले से तय नहीं था, यह फ़िल्मांकन के वक़्त रौशनी कम होने के चलते कुंदन द्वारा मज़बूरन किया गया एक प्रयोग था. लेकिन यह संयोग से बना दृश्य वनराज भाटिया के बैकग्राउंड स्कोर से मिलकर जैसे फ़िल्म का प्रतिनिधि दृश्य बन जाता है. जब रंजनी मजूमदार ’परिंदा’ में आए शहर के बारे में लिखती हैं,

“यहाँ सभी छवियाँ अंधेरों से निकलती हैं और परछाइयाँ किरदारों के रूप गढ़ती हैं. शायद ही आप कहीं रंगों का चटख़ इस्तेमाल देखें. यहाँ रात को लेकर एक अजीब सा आकर्षण है. जैसा सार्त्र ने आधुनिक जीवन के बारे में कहा है की यह ऐसे रास्ते, दरवाज़े और सीढ़ियाँ हैं जो कहीं नहीं पहुंचतीं. ऐसे विशाल चिह्न जिनका कोई अर्थ नहीं. परिंदा का शहर अंधेरा, भीड़ भरा और निर्मम है.”

तो मुझे रह-रहकर ’जाने भी दो यारों’ का वो अद्भुत संयोग से बना, स्याह परछाइयों के जाम से जाम टकराने वाला दृश्य याद आता है.

जब दिबाकर के गढ़े ’लक्की सिंह’ को हमारा नागर समाज अपने भीतर से बार-बार बेइज़्ज़्त कर बेदखल करता है, मुझे ’जाने भी दो यारों’ का बेमुरव्वत शहर याद आता है. जब अनुराग के रचे आधुनिक महाकाव्य ’ब्लैक फ्राइडे’ में उम्मीद की आखिरी किरण भी हाथ से छूटती दिखाई देती है, मुझे ’जाने भी दो यारों’ का बहरूपिया शहर याद आता है. ’शिवा’, ’सत्या’ और ’कम्पनी’, मुझे राम गोपाल वर्मा की शुरुआती फ़िल्मों की तपिश में ’जाने भी दो यारों’ का रात में जागता शहर याद आता है. जहाँ से मैंने शुरुआत की वो सुधीर मिश्रा के उस लेख का अंतिम अंश है जिसे उन्होंने हिन्दुतान में बने राजनैतिक सिनेमा पर बात करते हुए लिखा था. और यह संयोग नहीं है कि जिस लेख का अंत ’जाने भी दो यारों’ के ज़िक्र से होता है उसकी शुरुआत गुरुदत्त की ’प्यासा’ से होती है. ’प्यासा’ जिससे हिन्दी सिनेमा में आए ’एंटी-एस्टेब्लिशमेंट’ के विचार से ज़ुड़ी किसी भी बहस की शुरुआत होती है. यह दरअसल एक ही समाज है, एक ही ’राष्ट्र-राज्य’ जो अपना रंग बदलता रहा है. कभी वो ’लोक कल्याणकारी राज्य’ का चोला ओढ़े था और कभी वो खुलेआम बाज़ार का ताबेदार है. एक ऐसा नागर समाज जिसमें से हर वो ’अन्य’ बहिष्कृत है जो मान्य व्यवस्था की खिलाफ़त करता है. चाहे वे ’प्यासा’ का शायर और नाचनेवाली हो, चाहे ’जाने भी दो यारों’ के ईमानदार फ़ोटोग्राफ़र.

आपके और हमारे दौर में वो नाम बिनायक सेन का है.

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‘कथादेश’ के फ़रवरी अंक में प्रकाशित हुआ.