हमारे हिस्से की ‘पैरासाइट’

Parasite 2019

Spoilers ahead… 

सुनील खिलनानी अपनी मील का पत्थर पुस्तक ‘दी आइडिया ऑफ़ इंडिया’ में नई दिल्ली शहर की बसावट को लेकर मुख्य स्थापत्यकार एडविन लुटियंस और उनके चीफ़ असिस्टेंट हरबर्ट बेकर के बीच हुई एक बहुत दिलचस्प बहस का ज़िक्र करते हैं। इस तीखी बहस के केंद्र में था एक सवाल, कि रायसीना की पहाड़ी पर वायसरॉय हाउस ठीक-ठीक कहाँ बनाया जाए। लुटियंस ने उसके लिए रायसीना के टीले की सबसे ऊंची जगह तय की थी, जिससे पूरी नई दिल्ली की संरचना में राष्ट्र के ‘सर्वोच्च शासक’ का घर भौगोलिक रूप से भी सर्वोच्च स्थान पर हो। यह नगर की भौतिक संरचना में सामाजिक स्तरीकरण का बुलन्द उद्घोष था।

लेकिन दिक्कत ये थी कि अगर वायसरॉय हाउस को टीले पर पीछे सबसे उच्च स्थान पर लेकर जाया जाएगा, तो नीचे इंडिया गेट के पास राजपथ से वो दिखना ही बंद हो जाएगा। बेकर इसी के चलते अपनी असहमति दर्ज करवा रहे थे, कि अगर ‘प्रजा’ अपने राजा को सीधे देख भी ना पाए तो ऐसी भव्य संरचना का उद्देश्य असफ़ल हो जाता है। तनाव इतना बढ़ा कि दोनों में लंबे समय तक बोलचाल भी बंद रही। खैर, अन्ततः लुटियंस साहब की चली और वायसरॉय हाउस रायसीना पहाड़ी के सबसे ऊंचे स्थान पर ही बना। इसका नतीजा ये है कि आज भी नीचे इंडिया गेट के आगे राजपथ से खड़े होकर देखें तो राष्ट्रपति भवन का सिर्फ़ गुम्बद ही नज़र आएगा, पूरा राष्ट्रपति भवन नहीं।

मैं जब इस किस्से को अपने बीए के दिनों में पहली बार पढ़ रहा था, तो दक्षिण राजस्थान के उदयपुर नामक छोटे से पुराने शहर में रहता था। आपमें से बहुत लोग परिचित होंगे, पुराना उदयपुर मेवाड़ राजघराने की लंबे समय तक राजधानी रहा सामन्ती परिवेश का शहर है। और आज भी रोज़गार के लिए पर्यटन व्यवसाय पर निर्भरता के चलते उदयपुर अपनी पारंपरिक धरोहर पहचान को बचाकर रखने की कोशिश करता है। ऐसे में दिलचस्प संयोग यह था कि शहरी स्थापत्य में जिस स्तरीकरण की बात मैं आधुनिक यूरोपियन मूल्यों पर रची गई नई दिल्ली के सन्दर्भ में पढ़ रहा था, वैसी ही बसावट मैं अपने शहर में उदयपुर की सामंती राजव्यवस्था द्वारा निर्मित नगर संरचना में देख पा रहा था।

राजाजी का महल (आजकल जिसे सिटी पैलेस के नाम से जानते हैं) चारदीवारी के भीतर उदयपुर में सबसे ऊंचे स्थान पर बनी संरचना है। इसका नतीजा है कि पुराने शहर में आप किसी भी पोल (दरवाज़े) से प्रवेश कर सिटी पैलेस की दिशा में बढ़ें, तो ऐसा अहसास होगा कि जैसे आप किसी चढ़ाई पर चढ़ रहे हैं। इस संरचना में महल सबसे ‘ऊपर’ है, जैसे किसी चोटी पर खड़ा। ठीक नई दिल्ली के ‘वायसरॉय हाउस की तरह। शहर के हर हिस्से से देखो तो ‘ऊपर’ की ओर ही नज़र आता है। और वहाँ महल से ‘नीचे’ किसी भी ओर देखने पर शहर की ‘रैय्यत’ के छोटे-छोटे आशियानों का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।

क्या चमत्कार है, सामन्ती व्यवस्था पूंजीवाद से गुपचुप गठजोड़ कर अपनी गैरबराबरियाँ उसे उत्तराधिकार में सौंप देती है और मध्यकालीन समाज व्यवस्था द्वारा रचा गया स्तरीकरण आधुनिक शहर की संरचना से एकाकार हो जाता है।

parasite‘शहर की अदृश्य सीढ़ियाँ’

बोंग जून-हो की ‘पैरासाइट’ दो परिवारों की कहानी है। समाज के स्तरीकरण के दो प्रतिलोम पर खड़े परिवार, लेकिन यह पूरी तरह विलोम में बंटे शहर की कहानी भी है। सामाजिक स्तरीकरण को अपनी फ़िल्मों में कुशलता से फ़िल्माने वाले निपुण निर्देशक इसे दर्शाने के लिए यहाँ शहरी स्थापत्य से लेकर हवा, पानी और ज़मीन से उपजे बिम्बों और ध्वनि तथा कैमरा गति तक का उपयोग करते हैं। फ़िल्म का पहला ही दृश्य हमें किम परिवार के घर में ले जाता है। पूंजीवाद की अंतिम सीढ़ी से कुछ ही ऊपर खड़े निम्नमध्यमवर्गीय किम परिवार का घर एक लम्बी ढलान के अंतिम कोने पर बना है और आधे से ज़्यादा सड़क के नीचे है, जिसमें सिर्फ़ रौशनदान से ही प्रकाश भीतर आता है।

‘आर्किटेक्चरल डाइज़ेस्ट’ को दिये अपने एक साक्षात्कार में निर्देशक ने इस घर की संरचना में छिपे प्रतीक अर्थों पर बात करते हुए बताया था,

“यह घर दरअसल अपनी संरचना में किम परिवार की मानसिकता को दर्शाता है। आप ज़मीन से कुछ ऊपर हैं और यह एहसास आपको सुकून देता है कि चलो, कम से कम आप सूरज की रौशनी तो देख पा रहे हैं। आप पूरी तरह ज़मीदोज़ तो नहीं हुए। यह उम्मीद के साथ ऐसे डर का अजब सा घालमेल है, जिसमें लगता है कि कहीं आप और नीचे ना गिर जायें। यही किम परिवार का भी सबसे आधारभूत भय है, उनके मनोभावों का सच्चा प्रतिनिधि।”

यह कुछ-कुछ गले तक पानी में डूबे होने जैसा एहसास है। गौर कीजिए कि इस पहले ही दृश्य में कैमरे की गति ‘ऊपर से नीचे’ की ओर है। इस प्रयोग को बोंग जून-हो ने आगे कई बार दोहराया है।

इसके विपरीत पूंजीवादी संपन्नता के दूसरे छोर पर खड़े पार्क परिवार के घर तक पहुँचने के लिए हमें साक्षात ऊपर की ओर चढ़ना होता है। यह उर्ध्वाधर गति भौतिक धरातल पर ही नहीं, इसके गहरे सामाजिक अर्थ हैं। किम परिवार के कोलाहल से भरे पड़ोस, जहाँ एक दारूबाज़ हर दूसरे दिन उनके घर के ऊपर रौशनदान पर ही पेशाब करने आ जाता है, के विपरीत यहाँ नीरव शांति है। किम परिवार के छोटे से सेमी-बेसमेंट घर के विपरीत यहाँ घर के चारों सदस्यों का अपना विशाल निजी स्पेस है। निजता है तो अकेलापन भी है। बोंग जून-हो यहाँ इट्रोडक्शन सीन में स्लो मोशन में ‘नीचे से ऊपर’ की ओर कैमरा गति का प्रयोग करते हैं। इसके साथ पहले ही दृश्य में घर के पीछे से निकलती सूरज की सीधी किरणें इस घर की केन्द्रीयता और सर्वोच्चता को बखूबी स्थापित करती हैं। पार्क परिवार का घर यहाँ शहर के उस हिस्से का प्रतीक है, जो ‘आम जनता’ की पहुँच से बाहर है।

कहानी की शुरुआत में ही संयोग से मिला मौका किम परिवार के एक युवा सदस्य को पार्क परिवार के आलीशान घर में एंट्री देता है, और कहानी अपना पहला दिलचस्प मोड़ लेती है। फूंक-फूंककर कदम रखते हुए किम परिवार के चारों सदस्य एक-एक कर पार्क परिवार में विभिन्न किस्म की नौकरियाँ हासिल कर लेते हैं और इस तरह यह दोनों विपरीत ध्रुवों पर खड़े परिवार अचानक एक ही भौतिक स्पेस में आ खड़े होते हैं। ठीक आमने-सामने। पार्क परिवार धनवान है, लेकिन हृदयहीन नहीं है। उनके भोलेपन पर हँसता, उनकी सहृदयता को सराहता किम परिवार जैसे इस सहारे ज़मीन से बाहर निकलकर सूरज की सीधी रौशनी में आ रहा है।

एक दिन पार्क परिवार की अनुपस्थिति में किम परिवार के चारों सदस्य घर की संपन्नता को भोग रहे हैं। यह जैसे ‘वर्जित फ़ल’ चखने का अहसास है। सेंसुअल, विस्मयकारी, रोमांचकारी। शहर के विपरीत छोर पर खड़े इस आलीशान मकान में बैठे वे अपनी पहुँच से बहुत-बहुत दूर के सपने शायद पहली बार देखने की हिम्मत कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे तर जायेंगे।

यही निर्णायक मौका है। पूंजीवाद की असली सफ़लता यह नहीं है कि वह समाज के चुनिंदा ‘एक प्रतिशत’ एलीट को अकल्पनीय संपन्नता देता है। पूंजीवाद की असली सफ़लता इसमें है कि वह इस चुनिंदा ‘एक प्रतिशत’ के मुकाबले कहीं बड़ी निम्नमध्यमवर्गीय आबादी को यह विश्वास दिलवाने में सफ़ल रहता है कि वह उसके शोषण का यंत्र नहीं, ‘मुक्ति’ का रास्ता है। कि अन्तत: उन्हें भी मौका मिलेगा और अन्तत: वे भी तर जायेंगे।

‘पानी पे लिखा’

और उसी निर्णायक मौके पर, जहाँ सामाजिक स्तरीकरण के दो छोरों पर खड़े पार्क और किम परिवार शायद एक दूसरे के सबसे नज़दीक हैं और लगता है कि जैसे बस अब ये गैर-बराबरी का झीना परदा गिर जायेगा और दोनों एक-दूसरे को छू लेंगे, मिल जायेंगे… घनघोर बरसात आती है। बोंग जून-हो पानी के मैटाफ़र का चमत्कारिक इस्तेमाल करते हुए उसकी द्वैध उपस्थिति के माध्यम से पूंजीवादी सपने द्वारा गढ़ी जा रही इस छद्म बराबरी के सारे काल्पनिक महल गिरा देते हैं। पूरब की सभ्यताओं में जलप्लावन का प्रतीक बहुत गहरे पैठा है, और बोंग जून-हो यहाँ जैसे हमारे अवचेतन के उसी भय को ज़िन्दा कर देते हैं।

पानी किसी के लिए रूमानियत है। पानी किसी के लिए तबाही है। पर सच्चाई यही है कि हमारी नागर सभ्यता के तमाम बराबरी हासिल करने के वादे एक घनघोर बरसात में बदबू से बजबजाती नाली के गंदे पानी में बह जाते हैं। यही आज की दिल्ली की सच्चाई है, यही सिओल की। मुझे यहाँ विशाल भारद्वाज की कमाल के मैटाफ़र्स से भरी फ़िल्म ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ याद आती है। एक ओर मूसलाधार बरसात में नवधनाड्य वर्ग मगन ‘रेन डांस’ कर रहा है, वहीं दूसरे ही दृश्य में किसान अपनी खड़ी खेती बह जाने से खून के आँसू रो रहा है। ‘बादल उठ्या री सखी…’

‘पैरासाइट’ के आभासी सीढ़ियों में बंटे शहर की जीती-जागती सीढ़ीनुमा भौतिक संरचना उस आधी रात की मूसलाधार बरसात में पार्क परिवार के आलीशान घर से किम परिवार की वापस अपने दड़बेनुमा घर की ओर अंतहीन पैदल यात्रा में खुलकर सामने आ जाती है। यह वापस ‘ऊपर से नीचे’ की ओर यात्रा है। अभिधा में भी, व्यंजना में भी। उनका अप्राप्य को पाने का सपना डूब रहा है, उनका अपना घर डूब रहा है।

वजह, उन्होंने सपनीले उदार पूंजीवाद के भयावह ज़िन्दा तहखाने अपनी आँखों से देख लिये हैं।

इस निर्णायक बारिश में ‘पैरासाइट’ के इस उर्ध्वाधर गति के सर्वोच्च शिखर पर स्थित संपन्नता के निर्जन टापूनुमा घर के तहखाने में छिपे कुरूप राज़ खुल जाते हैं। जिस पूंजीवादी सपने में सबके लिए ‘मौके’ का वादा था, उसकी असली क्रूर हकीकत जब खुलकर सामने आती है तो इंसान इस वीभत्स सच्चाई का सामना नहीं कर पाता। समाज के जिन दो विपरीत ध्रुवों की हमने ऊपर बात की − ‘हैव्स’ और ‘हैव नॉट्स’ के बीच बंटी दुनिया। सच्चाई यह है कि इस ‘एक प्रतिशत’ अकल्पनीय संपन्नता और बहुमत निम्नमध्यम वर्गीय कामकाजी आबादी की विपरीत जोड़ियों के सभ्य दायरे से बाहर एक तीसरा वर्ग भी मौजूद है − ‘आउटकास्ट्स’ का। जिन्हें इंसानी समाज ने अपनी सभ्यता के दायरों से बाहर कर दिया है। अब यह उनके लिए नागरिक नहीं, उदार पूंजीवाद का अपशिष्ट हैं।

पार्क परिवार के तहखाने की वीभत्स उपस्थितियों से आँखें मत फेरिये। आज यह क्रूर कल्पना जीते-जागते रूप में हमारे देश भारत के उन ‘डिटेंशन कैम्पों’ में रची जा रही है, जिनके बारे में हमारे माननीय प्रधानमंत्री लाखों की भीड़ के सामने सार्वजनिक घोषणा कर चुके हैं कि वे ‘झूठ हैं, झूठ हैं, झूठ हैं’। गौर से देखिये, यही ‘पैरासाइट’ का वो अदृश्य तहखाना है, जहाँ दुनिया की इस सबसे पुरानी गौरवशाली नागर सभ्यता ने नागरिकता के सबसे प्राथमिक नियम भी स्थगित कर दिये हैं।

मुझे कबीर याद आते हैं, जिन्होंने अपनी उलटबाँसियों में पानी के ‘औलोती से बरंडे’ की ओर उल्टा चढ़ जाने की असंभव कल्पना की थी। कबीर की उलटबाँसी में भी यह असंभव कल्पना एक ऐसे दिवास्वप्न का प्रतीक थी जहाँ एक दिन समाज से यह पानी की गति की तरह ही ‘स्वाभाविक’ मान ली गई गैर-बराबरी खत्म हो जाएगी। निर्देशक बोंग जून-हो यहाँ कबीर जैसी असंभव कल्पना रचते हुए पानी की ‘स्वाभाविक गति’ के माध्यम से बताते हैं कि कबीर का स्वप्न आज भी अधूरा है। और उस स्वप्न का संधान पूंजीवाद के इस रूप तो क्या, किसी रूप में संभव नहीं।

‘पैरासाइट’ के अन्त को लेकर बहुत तरह की व्याख्याएं और बहसें मौजूद हैं। मेरी नज़र में निर्देशक बोंग जून-हो हिंसा और उदासी से भरे काव्यात्मक अन्त में पहली बार निम्नमध्यमवर्गीय कामकाजी पहचान को इस दूसरी आउटकास्ट बना दी गई श्रमिक पहचान के आमने-सामने बनाम नहीं, साझेदारी में खड़ा कर एक स्पष्ट स्टेटमेंट देते हैं। स्टेटमेंट, कि एका के बिना मुक्ति नहीं। कि हमारे लिए कोई खड़ा नहीं होगा, अन्तत: खुद हमें ही एक-दूसरे के सम्मान के लिए खड़ा होना होगा। मेरे लिए यहाँ उनकी आत्मघाती हार महत्वपूर्ण नहीं, उनमें पहली बार उभरी साझेदारी की चेतना महत्वपूर्ण है।

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~ साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में मार्च महीने में प्रकाशित कॉलम ‘आराम नगर’ से

“हम चीज़ों को भूलने लगते हैं, अगर हमारे पास कोई होता नहीं उन्हें बताने के लिए” : दि लंचबॉक्स

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“हम चीज़ों को भूलने लगते हैं, अगर हमारे पास कोई होता नहीं उन्हें बताने के लिए”

स्थापत्यकार राहुल महरोत्रा समकालीन मुम्बई शहर की विरोधाभासी संरचना को केन्द्र बनाकर लिखे गए अपने चर्चित निबंध में शहर की संरचना को दो हिस्सों में विभाजित कर उन्हें ‘स्टेटिक सिटी’ तथा ‘काइनैटिक सिटी’ का नाम देते हैं। वे लिखते हैं, “आज के भारतीय शहर दो हिस्सों से मिलकर बनते हैं, जो एक ही भौतिक स्पेस के भीतर मौजूद हैं। इनमें पहली औपचारिक नगरी है जिसे हम ‘स्टेटिक सिटी’ कह सकते हैं। ज़्यादा स्थायी सामग्री जैसे कंक्रीट, स्टील और ईंटों द्वारा निर्मित यह शहर का हिस्सा शहर के पारम्परिक नक्शों पर द्विआयामी जगह घेरता है और अपनी स्मारकीय उपस्थिति दर्ज करवाता है। दूसरा शहर, शहर का अनधिकृत या कहें अनौपचारिक हिस्सा है जिसे हम ‘काइनैटिक सिटी’ कह सकते हैं। इसे द्विआयामी सांचे में बाँधकर समझना असंभव है। यह सदा गतिमान शहर है – जिसका निर्माण शहर में बढ़ती हुई वैकासिक त्रिआयामी गतिविधियों द्वारा होता है।”[1] काइनैटिक सिटी अपने स्वभाव में ज़्यादा अस्थायी और गतिमान होती है और यह निरंतर खुद में सुधार करती रहती है और खुद को बदलती रहती है। काइनैटिक सिटी शहर के स्थापत्य में नहीं है। यह तो निरंतर बदलती शहरी ज़िन्दगियों की आर्थिक, साँस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में निवास करती है।

इस काइनैटिक सिटी का उदाहरण गिनाते हुए महरोत्रा मुम्बई की मशहूर डब्बावाला संस्कृति को शहर के इन दो हिस्सों − स्टेटिक सिटी और काइनैटिक सिटी के मध्य संबंध के सबसे प्रतिनिधि उदाहरण के रूप में याद करते हैं। वे लिखते हैं कि मुम्बई के डिब्बावाले शहर के इन दो हिस्सों, स्टेटिक सिटी और काइनैटिक सिटी के मध्य, औपचारिक और अनौपचारिक शहर के मध्य संबंध का सबसे बेहतर उदाहरण हैं। यह टिफिन सेवा शहर के मध्य यातायात के लिए मुम्बई की लोकल ट्रेन सेवा पर निर्भर रहती है और अपने ग्राहक को औसतन महीने का 200 रुपया खर्चे की पड़ती है। इसके महीने का टर्नओवर तक़रीबन पाँच करोड़ रुपये तक का हो जाता है। एक अनुमान के अनुसार तक़रीबन 4,500 डिब्बेवाले शहर में रोज़ 2 लाख से ज़्यादा खाने के डिब्बों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने का काम करते हैं।[2]

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मामी – एक

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कल शहर में कदम रखते ही पहले अॉटोवाले ने मीटर से चलने से इनकार किया. अौर अाज सुबह फिर टैक्सी वाले ने चलने से ही इनकार कर दिया. राखी-वरुण का कहना है कि हम दिल्लीवाले अपने साथ दिल्ली के अॉटो-टैक्सीवालों को भी उनके भले शहर में ले अाये हैं. इस बीच मैं मुम्बई में ‘अॉथेंटिक’ वड़ा पाव की तलाश में दो अौर तरह के पाव (दाबेली पाव, मंचूरियन पाव) खा चुका हूँ अौर तयशुदा रूप से अभी दो-तीन तरह के अौर खाने वाला हूँ.

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अपने अपने रिचर्ड पारकर

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कुछ महीने पहले ‘चकमक’ के दोस्तों के लिए यह परिचय लिखा था ‘Life Of Pi’ किताब/ फिल्म का. साथ ही किताब से मेरा पसन्दीदा अंश, यात्रा बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब के हिन्दी अनुवाद ‘पाई पटेल की अजब दास्तान’ से साभार यहाँ.

पिछले दिनों जब लंदन से लौटी हमारी दोस्त हमारे लिए मशहूर जासूस शरलॉक होम्स के बहुचर्चित घर ‘221-बी, बेकर स्ट्रीट’ वाले म्यूज़ियम से उनकी यादगार सोवेनियर लाईं, तो इसमें पहली नज़र में कुछ भी अजीब नहीं था। शरलॉक होम्स की कहानियाँ पढ़ते तो हम बड़े हुए हैं अौर उनके देस से उनकी याद साथ लाना एक मान्य चलन है। ख़ास तरह की माचिस की डिब्बी, जैसी शरलॉक इस्तेमाल करते थे। विशेष तौर पर तैयार करवाया गया चमड़े का बुकमार्क, जिसपर शरलॉक की एक मशहूर उक्ति लिखी है, “Life is infinitely stranger than the mind of man could invent”.

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नर्तकियाँ और पृथ्वियाँ

और फिर हमने ’पीना’ देखी. जैसे उमंग को टखनों के बल उचककर छू दिया हो. धरती का सीना फाड़कर बाहर निकलने की बीजरूपी अकुलाहट. ज़िन्दगी की आतुरता. जैसे किसी ने सतरंगी नृत्यधनुष हमारी चकराई आँखों के सामने बिखेर दिया हो. उसी रात मैंने जागी आँखों से तकते यह लिखा,

Pina (3D)
Wim Wenders, Germany, 2011.

pina image“रस भी अर्थ है, भाव भी अर्थ है, परन्तु ताण्डव ऐसा नाच है जिसमें रस भी नहीं, भाव भी नहीं. नाचनेवाले का कोई उद्देश्य नहीं, मतलब नहीं, ’अर्थ’ नहीं. केवल जड़ता के दुर्वार आकर्षण को छिन्न करके एकमात्र चैतन्य की अनुभूति का उल्लास!” – ’देवदारु’ से.

जब Pina Bausch के नर्तकों की टोली रंगमंच की तय चौहद्दी से बाहर निकल शीशे की बनी ख़ाली इमारतों, फुटपाथों, सार्वजनिक परिवहन, कॉफ़ी हाउस और औद्योगिक इकाइयों को अपनी काया के छंद की गिरफ़्त में ले लेती है, मुझे आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का निबंध ’देवदारु’ याद आता है. यह जीवन रस का नृत्य रूप है. आचार्य द्विवेदी के शब्दों में, यह नृत्य ’जड़ता के दुर्वार आकर्षण को छिन्न’ करता है. निरंतर एक मशीनी लय से बंधे इस समय में किताबों की याद, कविताओं की बात, कला का आग्रह.

कॉफ़ी हाउस की अनगिनत कुर्सियों के बीच अकेले खड़े दो प्रेमी एक-दूसरे को बांहों में भर लेते हैं. लेकिन व्यवस्था का आग्रह है कि उनका मिलन तय सांचों में हो. उनके प्रतिकार में छंद है, ताल है, लय है. यहाँ नृत्य जन्म लेता है. पीना बाउश के रचे नृत्यों में विचारों का विहंगम कोलाहल है. उनके रचना संसार में मनुष्य प्रकृति का विस्तार है. इसलिए उनके नृत्यों में यह दर्ज़ कर पाना बहुत मुश्किल है कि कहाँ स्त्री की सीमा ख़त्म होती है और कहाँ प्रकृति का असीमित वितान शुरु होता है.

वे नाचते हैं. नदियों में, पर्बतों पर, झरनों के साथ. वे नाचते हैं. शहर के बीचोंबीच. जैसे शहर के कोलाहल में राग तलाशते हैं. यह रंगमंच की चौहद्दी से बाहर निकल शहर के बीचोंबीच कला का आग्रह आज के इस एकायामी बाज़ार में खड़े होकर विचारों के बहुवचन की मांग है. विम वेंडर्स का वृत्तचित्र ’पीना’ सिनेमाई कविता है. किसी तरुण मन स्त्री की कविता. उग्र, उद्दाम, उमंगों से भरी.”

’पीना’ पहली बार हमें थ्री-डी में छिपी असल संभावनाओं और उसके सही रचनात्मक इस्तेमाल का रास्ता भी दिखाती है. बे-सिर-पैर की फ़िल्मों पर अंधाधुंध हो रहे इसके इस्तेमाल ने बीते दिनों में मुख्यधारा सिनेमा का वही हाल किया है जो आई.पी.एल. नामक असाध्य रोग ने मेरे प्रिय खेल क्रिकेट का किया. इसके उलट ’पीना’ ने थ्री-डी तकनीक के माध्यम से रंगमंच द्वारा सिनेमा की ओर सदा उठाए जाते उस आदिम सवाल का मुकम्मल जवाब दिया है. रंगमंच वाले सदा कहते आए कि हमारे पास तीसरा आयाम है, गहराई है, depth of field. जबकि सिनेमा का परदा सपाट है और चाहकर भी वो गहराई पाना उसके लिए संभव नहीं. यहीं सिनेमा पिछड़ जाता था. लेकिन अब विम वेंडर्स ने ’पीना’ में थ्री-डी तकनीक के माध्यम से वही रंगमंच की गहराई को सिनेमा के परदे पर जीवित कर दिया है. यह थ्री-डी के माध्यम से पैदा किया गया कोई ’गिमिक’ नहीं, बल्कि सिनेमा से छूटे हुए जीवन यथार्थ को फिर से पाने सरीखा है. यही थ्री-डी तकनीक के लिए भविष्य की राह भी है, अगर हमारी मुख्यधारा समझना चाहे.

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इस बीच एक मज़ेदार घटना हुई. पता हो कि अब कोरियन थ्रिलर में कल्ट का दर्जा पा चुकी 2008 की फ़िल्म ’द चेज़र’ के निर्देशक Hong-Jin-Na इस साल फ़ेस्टिवल जूरी में थे और उनके प्रेमी हमारे कई दोस्त उद्घाटन वाले दिन ही उनसे बात-मुलाकात कर चुके थे. इस बीच इस तथ्य को जानकर सबमें कोफ़्त का भाव भी था कि उनकी क्लासिक फ़िल्म की एक घटिया नकल ’मर्डर 2’ नाम से बनाने वाले हमारे मुकेश भट्ट साहब भी समारोह की एक समांतर जूरी में मौजूद थे.

उनकी नई फ़िल्म ’द येलो सी’ की स्क्रीनिंग वाले दिन उन्हें सीढ़ियों से उतरता देख हमारे दो मित्रों सुधीश कामत और मेरे ’नेमसेक’ मिहिर फड़नवीस ने एक पुण्य कार्य करने का मन बनाया. उन्होंने बड़ी इज़्ज़त से जाकर Hong-Jin-Na साहब से पहले पूछा कि क्या उन्हें अपनी फ़िल्म की हिन्दुस्तान में बनी भौंडी नकल ’मर्डर 2’ के बारे में खबर है. जैसी उम्मीद थी, निर्देशक साहब ने अनभिज्ञता जताई. जानकर सुधीश और मिहिर ने तुरंत यह महती कार्य किया कि सामने वाली डीवीडी शॉप से ’मर्डर 2’ की नई डीवीडी खरीदकर लाए और उसे निर्देशक साहब को गिफ़्ट कर दिया. आखिर हमारे ’बॉलीवुड’ के यह अजब कारनामे दुनिया भी तो जाने. इस पुण्य कार्य के बाद मुख्यधारा फॉर्म्यूला हिन्दी सिनेमा की ख्याति सात समन्दर पार फ़ैलाने में उनका योगदान सुनहरे अक्षरों में दर्ज किया जाएगा!

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Another Earth
Mike Cahill, USA, 2011.

another earthअमेरिका से आई स्वतंत्र फ़िल्मों की परम्परा में एक और नया नाम ’अनॉदर अर्थ’ बीते सालों में आई ’प्राइमर’, ’मून’, ’द डार्क नाइट’ और मेरी पसन्दीदा ’डिस्ट्रिक्ट नाइन’ जैसी फ़िल्मों की परम्परा को आगे बढ़ाती फ़िल्म है. दूसरी पीढ़ी की ये साइंस फ़िक्शन फ़िल्में अन्य मुख्यधारा sci-fi फ़िल्मों की तरह तकनीकी चमत्कार पर कम, दार्शनिकता की ओर जाते अनन्तिम सवालों की खोज पर ज़्यादा केन्द्रित होती हैं. कहने को साइंस फ़िक्शन, लेकिन किसी हार्डकोर ड्रामा की तरह कहानी कहना. ठीक इसी वक़्त दूसरी स्क्रीन पर लार्स वॉन ट्रायर की ’मैलेंकॉलिया’ दिखाई जा रही थी जो इसी परम्परा की एक ज़्यादा जटिल और थोड़ी ज़्यादा दार्शनिक फ़िल्म है.  कहना न होगा कि यह मेरा लगातार आती इन फ़िल्मों के साथ पसन्दीदा जॉनर बनता जा रहा है. ’अनॉदर अर्थ’ में भी स्पेशल इफ़ेक्ट के नाम पर बस आकाश में सदा टंगी दिखाई देती एक और हूबहू पृथ्वी है, अनॉदर अर्थ.

एक और खूबसूरत कथा आधारित साइंस फ़िक्शन फ़िल्म ’द मैन फ्रॉम अर्थ’ की तरह ’अनॉदर अर्थ’ भी अनेक विस्मयकारी किस्से अपने भीतर समेटे है और वही किस्से इस फ़िल्म के सबसे खूबसूरत हिस्से हैं. जैसे उस पहले रूसी अंतरिक्षयात्री का किस्सा कौन भूल सकता है जिसे व्योम में निरंतर होती ’ठक-ठक’ ने पागल कर दिया था. अपनी ही तरह की अन्य फ़िल्मों की तरह ’अनॉदर अर्थ’ भी उसी पल बड़ी फ़िल्म बनती है जहाँ इसकी फंतासी यथार्थ के लिए रचे गए एक प्रतीक में बदल जाती है. एक झटके में अचानक समझ आता है कि कोई दूसरी हूबहू पृथ्वी नहीं, यह अपना ही अक्स है जिसे पहचानना लगातार असंभव हुआ जाता है.

“इस बात की कल्पना करना भी मुश्किल है कि ’मैं वहाँ हूँ’. क्या मैं वहाँ जाकर उस ’मैं’ से मिल सकता हूँ. और क्या वो ’मैं’, इस मैं से बेहतर होगा. क्या मैं उस दूसरे ’मैं’ से सीख सकता हूँ. क्या उस दूसरे ’मैं’ ने भी वही गलतियाँ की होंगी जो मैंने की हैं. क्या मैं उस दूसरे ’मैं’ के साथ बैठकर तसल्ली से बातें कर सकता हूँ? क्या यह मज़ेदार होगा? वैसे एक और सच्चाई यह है कि हम यह रोज़ करते हैं. लोग बस इसे समझते नहीं या स्वीकार नहीं करना चाहते. सच यह है कि लोग रोज़-ब-रोज़ खुद से बातें करते हैं. “देखो वो क्या कर रहा है”, “उसने ऐसा क्यों किया”, “वो मेरे बारे में क्या सोचती है”, “क्या मैंने सही कहा” जैसे सवाल. इस मामले में बस एक और ’मैं’ आपके पीछे है.”

और किसी भी अच्छी विज्ञान फंतासी की तरह यह फ़िल्म भी अपने अंत को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की व्याख्याओं के लिए खुला छोड़ती है.

समारोह अपने अंत की ओर बढ़ रहा था और हमने तमाम विदेशी फ़िल्मों की छटाओं के बीच बुद्धवार दो पुरानी हिन्दुस्तानी फ़िल्मों को देना तय किया. सुधीर मिश्रा की पहली फ़िल्म ’ये वो मंज़िल तो नहीं’ और शाजी करुण की ’पिरावी’ दो ऐसी कलाकृतियाँ हैं जिनको असली 35mm प्रिंट पर सिनेमा हाल के अंधेरे में देख पाना दुर्लभ ही कहा जाएगा. अनुराग कश्यप ने अगले ही दिन रात के खाने पर बताया था कि उनके मुताबिक ’ये वो मंज़िल तो नहीं’ आज भी सुधीर मिश्रा की सबसे ईमानदार फ़िल्म है. कथा संरचना के स्तर पर यही वो फ़िल्म है जिससे आगे चलकर ’रंग दे बसन्ती’ और ’लव आजकल’ जैसी फ़िल्मों ने प्रेरणा पाई. अस्सी के दशक का मोहभंग जिसे हम ’जाने भी दो यारों’ से लेकर ’न्यू डेल्ही टाइम्स’ तक उस दौर की तमाम फ़िल्मों में देखते हैं, वही सुधीर की इस पदार्पण फ़िल्म का मूल स्वर है. दिल किसी दिन इस फ़िल्म और साथ उस पूरे दौर पर लम्बी चर्चा करने का होता है, करूँगा किसी अगले अंक में. हाँ, ’पिरावी’ देखते हुए रह रहकर गोविन्द निहलाणी की महाश्वेता देवी के उपन्यास पर बनी फ़िल्म ’हज़ार चौरासी की माँ’ याद आती रही. वहाँ माँ थीं, यहाँ पिता हैं. एक जवान पीढ़ी है जिसका अस्तित्व सत्ता मिटा देती है और रह जाती है कुछ बूढ़ी आँखें, इंतज़ार करती हुईं.

Once Upon a Time In Antolia
Nuri Bilge Ceylan, Turkey, 2011.

समारोह समाप्ति पर था और हम फिर एक लम्बी लाइन में थे. यह लाइन थी ’थ्री मंकीज़’ के निर्देशक की नई फ़िल्म देखने के लिए जिसने इस साल कान फ़िल्म समारोह का प्रतिष्ठित ’ग्रैंड-प्रिक्स’ सम्मान हासिल किया है. और अगर आपको केयलान का सिनेमा पसन्द है तो फिर यह फ़िल्म आपके ही लिए है. लम्बे पसरे बियाबान में एक अपराधी जोड़े को लेकर घूमती पुलिस और सरकारी अधिकारियों की एक टोली के साथ जैसे आप भी सशरीर एंटोलिया पहुँचा दिए जाते हैं. केयलान की फ़िल्मों का सबसे बड़ा कारक है उनका माहौल. यह माहौल की सही स्थापना और फिर उनमें कुछ चुने हुए किरदारों के साथ कुछ दुर्लभ से दिखते क्षणों की पहचान के सहारे ही अपनी कथा कहती हैं. किरदारों की कथाएं आपस में टकराती हैं. आत्म-स्वीकार हैं और आत्म साक्षात्कार भी हैं. जैसा हमारे दोस्त और केयलान की फ़िल्मों के अनन्य प्रशंसक नीरज घायवन ने कहा, ’वन्स अपॉन ए टाइम इन एंटोलिया’ सिनेमाई संचरण है. एक ऐसा अनुभव जिसे बोलकर नहीं बताया जा सकता, सिर्फ़ स्वयं अनुभव किया जा सकता है. या जैसा मेरे पिता मुहावरे में कहते हैं, “आप मरे से ही स्वर्ग दीखता है.”

वैसे क्या यह किसी भी अच्छे सिनेमा की पहली पहचान नहीं कि उसे पूर्णत: पाने के लिए खुद ही ’मरना’ पड़ता है!

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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के जनवरी अंक में प्रकाशित

एक बुढ़ाता सेल्समैन और हक़ मांगती सत्रह लड़कियाँ

फ़िल्म महोत्सवों में सदा विचारणीय आदिम प्रश्न यह है कि आखिर पांच समांतर परदों पर रोज़ दिन में पांच की रफ़्तार से चलती दो सौ से ज़्यादा फ़िल्मों में ’कौनसी फ़िल्म देखनी है’ यह तय करने का फ़ॉर्म्यूला आख़िर क्या हो? अनदेखी फ़िल्मों के बारे में देखने और चुनाव करने से पहले अधिक जानकारी जुटाना एक समझदारी भरा उपाय लगता है लेकिन व्यावहारिकता में देखो तो इसमें काफ़ी पेंच हैं. जैसे आमतौर पर अमेरिकी और यूरोपीय मुख्यधारा से इतर सिनेमा के बारे में जानकारियाँ हम तक पहली दुनिया के चश्मे से छनकर आती हैं. इन जानकारियों पर अति-निर्भरता नज़रिया सीमित कर सकती है. फ़ेस्टिवल कैटेलॉग पर भी ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता, कई बार तो यही दस्तावेज़ सबसे भ्रामक साबित होता है. इन्हें तैयार करने वाले बहुधा ऐसे प्रशिक्षु सिनेमा विद्यार्थी होते हैं जिन्होंने खुद भी इनमें से कम ही फ़िल्में देखी हैं.

बड़े नामों या निर्देशकों के पीछे अपना पैसा लगाने वाले हमेशा उस खूबसूरत सिनेमा अनुभव को खो बैठते हैं जिसकी सुंदरता अभी वृहत्तर सिने-समाज द्वारा रेखांकित की जानी बाक़ी है. और फिर प्रतिष्ठित सिनेमा महोत्सव में, जहाँ सिनेमा का स्तर इस क़दर ऊँचा हो कि हर देखी फ़िल्म के साथ समांतर चलती और हाथ से छूटने वाली फ़िल्मों के लिए अफ़सोस गहराता ही चला जाए, किसी फ़िल्म का ’प्लॉट’ भर जान लेना आख़िर कहाँ पहुँचाएगा?

सबसे ऊपर और सबसे महत्वपूर्ण यह कि एक अनजाने से देश से आई किसी नई फ़िल्म को देखने से जुड़ा वो अनछुआ अहसास इन तमाम जानकारियों की भीड़ में कुचल जाता है. हमारे नज़रिए का कोरापन पहले ही नष्ट हो चुका होता है और सिनेमा अपना इत्र खो देता है. सूचना विस्फोट के इस अराजक समय में बिना किसी पूर्व निर्मित कठोर छवि के एक नई, कोरी फ़िल्म को देखने का विकल्प तो जैसे हमसे छीन ही लिया गया है.

हमारे दोस्त वरुण ग्रोवर इस मान्य विचार को चुनौती देने का प्रण करते हैं. वो अपनी बनते किसी फ़िल्म के बारे में कोई पूर्व जानकारी हासिल नहीं करते और उनके synopsis तो भूलकर भी नहीं पढ़ते. कुछ भरोसेमंद दोस्तों की सलाह पर हम किसी अनदेखी फ़िल्म के लिए थिएटर में घुस जाते हैं. और तभी हाल में अंधेरा होने से ठीक पहले परदे के सामने एक कमउमर लड़का आता है और पहले अपने सिनेमा अध्ययन करवाने वाले संस्थान का नाम ऊंचे स्वर में बताकर बतौर परिचय फ़िल्म की कहानी सुनाने लगता है. मैं वरुण की ओर देखता हूँ. वरुण अपने कानों में उंगलियाँ दिए बैठे हैं और माइक पर आती उसकी बुलन्द आवाज़ को अनसुना करने की भरसक, लेकिन असफ़ल कोशिश कर रहे हैं. मेरे सामने फिर एक बार यह साबित होता है कि इस सूचना विस्फोट के युग में जहाँ अनचाही सूचना का अथाह समन्दर सामने हिलोरें मारता है, हमारे भविष्यों में सिर्फ़ डूबना ही बदा है.

The_Turin_HorseThe Turin Horse
Bela Tarr, Hungary, 2011.

भागते हुए सिनेमा हाल के गलियारों में पहुँचे और हम सीधे धकेल दिए जाते हैं बेला टार के विज़ुअल मास्टरपीस ’द तुरिन हॉर्स’ के सामने. सिर्फ़ विज़ुअल, क्योंकि परदे पर आवाज़ तो है लेकिन सबटाइटल्स गायब हैं. लेकिन बिना शब्दों का ठीक-ठीक अर्थ जाने भी यह अनुभव विस्मयकारी है. एक तक़रीबन घटना विरल कथा में परदा श्वेत-श्याम दृश्य गढ़ रहा है. मैं देखने लगता हूँ. अन्दर तक भर जाता हूँ, साँस फूलने लगती है, लेकिन दृश्य में ’कट’ नहीं होता. धीरे-धीरे इन फ्रेम दर फ्रेम चलते अनन्त के साधक, सघन दृश्यों के ज़रिए वह सारा वातावरण और उसकी सारी ऊब, थकान मेरे भीतर भरती जाती है. मैंने अपने सम्पूर्ण जीवन में सिनेमा के उस विशाल परदे पर ऐसा विस्मयकारी कुछ होता कम ही देखा है.

लेकिन ठीक वहीं, हमें अभिभूत अवस्था में छोड़ फ़िल्म दोबारा न शुरु होने के लिए रोक दी जाती है. वादा किया जाता है रात का, लेकिन रात आती है उसी फ़िल्म के किसी घटिया डीवीडी प्रिंट के साथ. मैं पहले पन्द्रह मिनट की फ़िल्म देखकर उठ जाता हूँ. वह सुबह का उजला अनुभव अब भी मेरे पास है, मैं उसे यूं मैला नहीं होने दे सकता.

The Salesman
Sebastien Pilote, Canada, 2011.

यह हमारे वक़्तों का सिनेमा है. एक कस्बा है और उसके केन्द्र में उसकी तमाम अर्थव्यवस्था का सूत्र संचालक एक संयंत्र है. एक संयंत्र जो मंदी की ताज़ा मार में घायल है और अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है. यह उस संयंत्र की तालेबन्दी के बाद के कुछ निरुद्देश्य असंगत दिनों की कथा है. लेकिन यहाँ एक पेंच है. यहाँ कथा जिस व्यक्ति के द्वारा कही जाती है वह एक बुढ़ाता कार सेल्समैन है जिन्हें बीते खुशहाल सालों में अपने काम में सर्वश्रेष्ठ होने के कई तमगे मिले हैं. लेकिन आज कस्बे में मरघट सा सन्नाटा है और संयंत्र बंद होने के बाद अब उससे जुड़ी तमाम उम्मीदें भी धीरे-धीरे कर दम तोड़ रही हैं. संकट यह है कि सेल्समैन को आज भी अपना काम करना है. सच-झूठ कैसे भी हो, उस शोरूम में खड़ी नई-नवेली कार का सौदा पटाना है.

मुझे सीन पेन की क्लासिक फ़िल्म ’दि असैसिनेशन ऑफ़ रिचर्ड निक्सन’ याद आती है. यह एक ऐसी पूंजीवादी व्यवस्था के बारे में बयान है जिसमें इंसान का दोगलापन उसका तमगा और उसकी ईमानदारी उसके करियर के लिए बाधा समान है. यहाँ इंसान को आगे बढ़ने के लिए पहले अपने भीतर की इंसानियत को मारना पड़ता है. व्यवस्था बदली नहीं है, बस हुआ यह है कि इस वैश्विक महामंदी ने इस व्यवस्था के दोगले मुखौटे को उतार दिया है. अगर आप सुनने की चाहत रखते हों तो इस फ़िल्म के मंदीमय बर्फ़ीले सन्नाटे में भविष्य में होनेवाले ’ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट’ की आहटें सुन सकते हैं.

michaelMichael
Markus Schleinzer, Austria, 2011.

पहले ही बता दिया गया था कि यह फ़िल्म इस समारोह की बहुप्रतिक्षित ’डार्क हॉर्स’ है. निर्देशक मार्कस तोप जर्मन निर्देशक माइकल हेनेके के लम्बे समय तक कास्टिंग डाइरेक्टर रहे हैं और ’दि व्हाइट रिबन’ के लिए तमाम बच्चों की चमत्कारिक लगती कास्टिंग उन्हीं का करिश्मा थी. ’माइकल’ का प्लॉट विध्वंसक है. यह फ़िल्म घर के तहखाने में कैद किए एक बच्चे और उसके यौन शोषक नियंता की दैनंदिन जीवनी को किसी रिसर्च जर्नल की तरह निरपेक्ष भाव से दर्ज करती अंत तक चली जाती है.

’माइकल’ का चमत्कार उसकी निर्लिप्त भाव कहन में है. फ़िल्म कहीं भी निर्णय नहीं देती. कहीं भी फ़ैसला सुनाने की मुद्रा में नहीं आती और यथार्थ को इस हद तक निचोड़ देती है कि परिस्थिति का ठंडापन भीतर भर जाता है. असहज करती है, लेकिन किसी ग्राफ़िकल दृश्य से नहीं, बल्कि अपने कथानक के ठंडेपन से. घुटन महसूस करता हूँ, मेरा अचानक बीच में खड़े होकर चिल्लाने का मन करता है. कहीं यह हेनेके की शैली का ही विस्तार है. ’माइकल’ एक सामान्य आदमी है. नौकरीपेशा, छुट्टियों में दोस्तों के साथ हिल-स्टेशन घूमने का शौकीन, त्योंहार मनाने वाला. दरअसल उसका ’सामान्य’ होना ही सबसे बड़ा झटका है, क्योंकि हम ऐसे अपराधियों की कल्पना किसी विक्षिप्त मनुष्य के रूप में करने के आदी हो गए हैं. निर्देशक मार्कस उसे यह सामान्य चेहरा देकर जैसे हमारे बीच खड़ा कर देते हैं. सच है, यह यथार्थ है. और यह भयभीत करता है.

ToastToast
J S Clarkson, UK, 2011.

ब्रिटिश फ़िल्म ’टोस्ट’ की शुरुआत मुझे रादुँगा प्रकाशन, मास्को से आई हमारे घर के बच्चों की खानदानी किताब ’पापा जब बच्चे थे’ की किसी कहानी की याद दिलाती है. लेकिन अंत में नीति कथा बन जाती उन स्वभाव से उद्दंड रूसी बाल-कथाओं से उलट ’टोस्ट’ सदा उस बच्चे के नज़रिए से कही गई कथा ही बनी रहती है. इसे देखते हुए लगातार विक्रमादित्य मोटवाने की ’उड़ान’ याद आती है और मैंने इसे कुछ सोचकर ’फ़ीलगुड’ उड़ान का नाम दिया. कहानी में कायदा सिखाने वाले, बाहर से सख़्त, भीतर से नर्म पिता हैं. ममता की प्रतिमूर्ति साए सी माँ हैं, और हमारा कथानायक आठ-दस साल का नाइज़ेल है. और सबसे महत्वपूर्ण यह कि रोज़ नाइज़ेल के सामने घर का डब्बाबंद खाना है जिसे अधूरा छोड़ वह असली, लजीज़ पकवानों के ख्वाब देखा करता है.

आगे कहानी में माँ की मौत से लेकर सौतेली माँ तक के तमाम ट्विस्ट हैं. स्त्रियों का वही परम्परा से चला आया स्टीरियोटाइप चित्रण है जो खड़ूस सौतेली माँ की भूमिका में हेलेना कार्टर की अद्भुत अदाकारी की वजह से और उभरकर सामने आता है. ’टोस्ट’ कथा धारा के परम्परागत ढांचे को तोड़ती नहीं है. लेकिन उसे एक मुकम्मल कथा की तरह ज़रूर कहती है. हाँ, बचपन में नाइज़ेल के उस दोस्त का किरदार कमाल का है जो उसे हमेशा ज्ञान देता रहता है. सच कहूँ, यह भी एक स्टीरियोटाइप ही है लेकिन ऐसा जिसका सच्चाई से सीधा वास्ता है. मुझे अपने बचपन का साथी दीपू याद आता है जो मुझसे एक साल सीनियर हुआ करता था और मुझे हर आनेवाली क्लास के साथ अगली क्लास की अभेद्य चुनौतियों के बारे में बताया करता था. यहाँ भी उसका दोस्त वक़्त-बेवक़्त ’नॉर्मल फ़ैमिलीज़ आर टोटली ओवररेटेड’ जैसे वेद-वाक्य सुनाता चलता है. कथा का अंत फिर इसे ’उड़ान’ से कहीं गहरे जोड़ता जाता है.

ides-of-march-movieThe Ides of March
George Clooney, USA, 2011.

यह वो महत्वाकांक्षी हॉलीवुड थ्रिलर है जिसके लिए स्क्रीन के बाहर लम्बी लाइनें लगीं और संभवत: जिस फ़िल्म की गूंज आप आनेवाले ऑस्कर पुरस्कारों में सुनेंगे. सत्ता है, हत्या है, महत्वाकांक्षाएं हैं, फ़रेब है, ऊपर दिखती खूबसूरती है, बदनुमा अतीत है. लेकिन जॉर्ज क्लूनी निर्देशित ’द आइड्स ऑफ़ मार्च’ की जान फ़िल्म के नायक रेयान गॉसलिंग हैं. पता हो, यह लड़का पिछले साल ’ब्लू वेलेंटाइन’ जैसी घातक रूप से अच्छी फ़िल्म दे चुका है. जॉर्ज क्लूनी और मेरे पसन्दीदा फ़िलिप सिमोर हॉफ़मैन जैसे खेले-खाए अदाकारों के सामने इस तीस साल के लड़के की धमक सुनने लायक है. अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से ठीक पहले डेमोक्रेटिक उम्मीदवार के चुनाव के लिए मतदान के दौरान की इस कथा में हमारे समय के हालिया वर्तमान से निकले अनेक स्वर सुनाई देते हैं. किसी पर्फ़ेक्ट राजनैतिक थ्रिलर की तरह कथा आपको बांधे रखती है और जहाँ होना चाहिए वहाँ मोहभंग भी होता है, लेकिन परेशानी यही है कि फ़िल्म जहाँ बनती है ठीक वहीं ख़त्म हो जाती है.

इस बीच दोस्तों की चर्चाओं में लौट-लौटकर ’माइकल’ आती रही. एक दोस्त ने कहा कि वह अपराधी का मानवीकरण है. मुझे याद आया कि ’सत्या’ के बाद उसे भी स्थापित करते हुए आलोचकों ने यही कहा था कि यहाँ पहली बार एक ’डॉन’ का मानवीकरण होता है, उसके भी बीवी-बच्चे हैं. वो दोस्त की शादी की बरात में नाचता है. वो भी चाहता है कि उसकी बच्ची स्कूल में अंग्रेज़ी पोएम सीखे. तो क्या ’माइकल’ भी ’सत्या’ की तरह अपराधी का मानवीकरण करती है? यह भी एक नज़रिया है जिससे मैं असहमत हूँ. उसकी निर्पेक्षता मेरे भीतर और ज़्यादा सिहरन भर देती है. यह अहसास कि एक भयानक अपराधी भी कितने ही मामलों में ठीक हमारे जैसा है, उसके और हमारे बीच की दूरी एकदम कम कर देता है. और सच्चाई यह है कि इस दूरी के मिटने से ज़्यादा डरावना किसी भी ’सभ्य समाज’ के नागरिक के लिए कुछ और नहीं हो सकता.

TabloidTabloid
Errol Morris, USA, 2010.

यह संयोग ही था कि हम एरॉल मोरिस की डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ’टैबलॉयड’ देखने घुसे. और यह फ़िल्म तुरंत इस साल देखे गए कुछ दुर्लभ वृत्तचित्रों की लम्बी होती लिस्ट में शामिल हो गई. बहुत की रोचक अंदाज़ और आर्ट डिज़ाइन के साथ बनाई गई इस फ़िल्म की असल तारीफ़ इस बात में छिपी है कि निर्देशक ने कैसे मामूली से दिखते एक ’अखबारी कांड’ में इस गैर-मामूली फ़िल्म को देखा और बनाया. कैसे किसी की व्यक्तिगत ज़िन्दगी को मौका आने पर पीत-पत्रकारिता सरेराह उछालती है और खुद ही न्यायाधीश बन फ़ैसले करती है. और ब्रिटेन के टैबलॉयड जर्नलिज़्म को समझने के लिए यह फ़िल्म दस्तावेज़ सरीख़ी है. इसके तीस साल पुराने घटनाचक्र में आप आज बन्द हुए ’न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड’ की तमाम कारिस्तानियाँ सुन सकते हैं.

17 Girls
Muriel Coulin and Delphine Coulin, France, 2011.

ये कुछ ऐसा था जैसे सत्रह लड़कियाँ आकर हमारे समाज से अपना शरीर, उस पर उनका अपना हक़ हमसे वापस मांगे. दोनों निर्देशक बहनों ने फ़िल्म से पहले आकर बताया था कि यह घटना भले ही कहीं और घटी और उन्होंने इसका ज़िक्र उड़ता हुआ अखबार के किसी पिछले पन्ने पर पढ़ा था, लेकिन कहानियाँ वे अपने घर, अपने कस्बे की ही सुनाती हैं. कैसे खुद उनके लड़कपन उन सीखों से भरे हुए थे जो लड़कियों को हमारे इन ’सभ्य’ समाजों में विरासत में मिलती हैं और कैसे वे नया जानने की, कुछ कर गुज़रने की बेचैनी से भरी थीं.

17_fillesAमेरी राय में ’17 गर्ल्स’ के कथाकेन्द्र में मौजूद ’गर्भधारण’ सिर्फ़ एक कथायुक्ति भर है. इसकी जगह कोई और युक्ति भी होती, अगर इतनी ही कारगर तो भी यह कथा संभव थी. क्योंकि यह मातृत्व के बारे में नहीं है. न ही यह सेक्स लिबरेशन जैसे किसी विचार के बारे में है. दरअसल यह कथा सामूहिकता के बारे में है. उस युवता के बारे में है जो जब साथ होती है तो दुनिया बदलने की बातों वाले किस्से अच्छे लगते हैं, सच्चे लगते हैं. आकाश के सितारे कुछ और पास लगते हैं. हमउमर साथ खड़े होते हैं, बाहें फ़ैलाते हैं और एक दूसरे को अपनी बाहों में समेट लेते हैं. बस, फिर किसी और पीढ़ी की, उनकी सीखों की, उनकी समझदारियों की ज़रूरत नहीं रहती. अजीब लगेगा, लेकिन इस फ़िल्म को देखते हुए मुझे भगतसिंह और उनके साथी याद आते हैं. उनकी तरुणाई और उनके अदम्य स्वप्न याद आते हैं. आज यह ’व्यक्तिगत ही राजनैतिक’ है वाला ज़माना है और इन लड़कियों की आँखों में भी मुझे वही सुनहले सपने दिखाई देते हैं.

दर्जन से ज़्यादा किशोरवय लड़कियों का सामुहिक गर्भधारण का यह फ़ैसला उनके घरवालों को, स्कूल को हिला देता है. उनके लिए इसे समझ पाना मुश्किल है. वाजिब है, उन्हें ’नैतिकता’ खतरे में दिखाई देती है. लेकिन उन लड़कियों के लिए यह मृत्यु ज्यों शान्ति से भरे उस कस्बे के ठंडे पानी में एक पत्थर मारने सरीख़ा है. यह उन तमाम परम्पराओं का अस्वीकार है जिन्हें हमारे स्कूलों में बड़े होते नागरिकों पर एक अलिखित ’नैतिक शिक्षा’ के नाम पर थोपा जाता है. एक पिता के झिड़ककर कहने पर कि “तुम्हें क्या लगता है तुम दुनिया बदल सकती हो?” उसकी बेटी जवाब में कहती है, “कम से कम हम कोशिश तो कर ही सकती हैं.”

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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के दिसम्बर अंक में प्रकाशित

द आर्टिस्ट : ज़िन्दगी का गीत

The Artist movie posterकई दफ़े फ़िल्म के सिर्फ़ किसी एक दृश्य में इतना चमत्कार भरा होता है कि वो सम्पूर्ण फ़िल्म से बड़ा हो जाए. तक़रीबन दो घंटे लम्बी निर्देशक Michel Hazanavicius की फ्रांसीसी फ़िल्म ’द आर्टिस्ट’ जिसकी कहानी सन 1927 से शुरु होती है, में ध्वनियां और संवाद नहीं हैं ठीक उन्नीस सौ बीस के दशक की किसी फ़िल्म की तरह. प्रामाणिकता का आग्रह ऐसा कि फ़िल्म उन्हीं संवादपट्टों द्वारा बात करती है जिन्हें आप चार्ली चैप्लिन की फ़िल्मों में देखते थे. वो सिर्फ़ एक वाकया है जहां फ़िल्म में ध्वनि आपको सुनाई देती है, और मैं वादा करता हूँ कि वो क्षण आपको सालों याद रहने वाला है. किसी कविता की हद को छूता यह प्रसंग एक ख़त्म होते हुए दौर को आपके नंगा कर रख देता है और अचानक यह समझ आता है कि उस बीते कल की तमाम खूबियां, खूबसूरती और मासूमियत उस दौर के साथ ही चली गई हैं और अब कभी वापिस नहीं आयेंगी.

’द आर्टिस्ट’ का चमत्कार शायद उसकी कहानी में नहीं. यह मूक फ़िल्मों के दौर के एक ऐसे महानायक की कहानी है जिसे सवाक फ़िल्मों का नया दौर अचानक अप्रासंगिक बना देता है. साथ ही यह एक ऐसी प्रेम कहानी भी है जिसे सिनेमा में कई बार दोहराया गया है. लेकिन ’द आर्टिस्ट’ दरअसल हमें उस मासूमियत की याद दिलाती है जिसे हम मूक फ़िल्मों की तरह अपने विगत में कहीं भूल आए हैं. यह सिनेमा से प्रेम की कहानी है. ’सनसेट बुलिवार्ड’ का फ़ीलगुड वर्ज़न जिसे देखकर आपका मन चार्ली चैप्लिन की वो तमाम फ़िल्में फिर से देखने का करता है जिन्हें आपने ख़रीदने के बाद अपनी दराज़ के किसी निचले ख़ाने में धीरे से सरका दिया था.

और यह संयोग नहीं है कि ’द आर्टिस्ट’ देखते हुए चार्ली याद आते हैं. याद कीजिए उनकी आत्मकथा में आया ’सिटी लाइट्स’ वाला प्रसंग,

“किसी भी अच्छी मूक फ़िल्म में विश्वव्यापी अपील होती थी जो बुद्धिजीवी वर्ग और आम जनता को एक जैसे पसन्द आती थीं. अब ये सब खो जाने वाला था. लेकिन मैं इस बात पर अड़ा हुआ था कि मैं मूक फ़िल्में ही बनाता रहूंगा क्योंकि मेरा ये मानना था कि सभी तरह के मनोरंजन के लिए हमेशा गुंजाइश रहती है. इसके अलावा, मैं मूक अभिनेता, पेंटोमाइमिस्ट था और उस माध्यम में मैं विरल था और अगर इसे मेरी खुद की तारीफ़ न माना जाये तो मैं इस कला में सर्वश्रेष्ठ था. इसलिए मैंने एक और मूक फ़िल्म द सिटी लाइट्स के लिए काम करना शुरु कर दिया.”

लेकिन चार्ली चैप्लिन को ’सिटी लाइट्स’ बनाने के दौरान सवाक फ़िल्मों की कठिन चुनौती का सामना करना पड़ा. उनकी आत्मकथा में उस दौरान हुए कई मज़ेदार अनुभवों की चर्चा है. सवाक फ़िल्में उस दौर का चढ़ता हुआ सूरज थीं और चार्ली धारा के विपरीत तैरने की कोशिश कर रहे थे. फ़िल्म के पहले प्रिव्यू शो को याद करते हुए चार्ली उसके लिए ’भयानक’ जैसा शब्द काम में लेते हैं. वे लिखते भी हैं कि वजह फ़िल्म खराब होना नहीं बल्कि देखनेवालों का ओरियंटेशन बदल जाना है. अब वे सिनेमा के परदे पर ड्रामा देखने आते हैं और मूक कॉमेडी उन्हें असहज कर देती है.


’द आर्टिस्ट’ में ऐसी तमाम रेखाएं हैं जो लौटकर आती हैं और अपना घेरा पूरा करती हैं. फ़िल्म के बीच में कहीं अचानक आपको उसका पहला दृश्य याद आता है और आप उसमें छिपे उस अद्भुत प्रतीक को समझ मन ही मन खिलखिलाते हैं. मूक फ़िल्मों का नायक हमेशा सीढ़ियां उतरता हुआ दिखाई देता है और सवाक फ़िल्मों की सितारा नायिका हमेशा सीढ़ियां चढ़ती हुई. और साथ में मौजूद कुत्ता अपनी सिर्फ़ एक अदा से आपको सितारों के अभिनय की तमाम ऊँचाइयाँ भुला देता है. ’द आर्टिस्ट’ ज़िन्दगी से प्यार की कहानी है और यहां आकर सिनेमा और ज़िन्दगी में फर्क बहुत कम रह जाता है.

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साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश‘ के नवम्बर अंक में आया.

सभ्यता का मर्दवादी किला

she_monkeysशी मंकीज़

लीज़ा अस्चान, स्वीडन, 2011.

दो घुड़सवार लड़कियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता और आकर्षण के इर्द-गिर्द घूमती इस स्वीडिश फ़िल्म की असल जान इसके द्वितीयक कथा सूत्र में छिपी है. सारा, जिसकी उमर अभी मुश्किल से सात या आठ होगी, यह फ़िल्म उस बच्ची की कुछ नितांत व्यक्तिगत और उतनी ही दुर्लभ दुश्चिंताओं को अपने भीतर समेटे है. छोटी सी बच्ची जिसे स्विमिंग पूल पर यह समझाया जा रहा है कि उसे अब पूरे कपड़े पहन पूल में उतरना चाहिए. गौर से देखिए, यही वो क्षण है जहां एक बच्ची को उसके स्त्री होने और उससे जुड़े ’कर्तव्यों’ का पहला पाठ पढ़ाया जा रहा है.

सबक बहुतेरे हैं. उसे मज़बूत होना है, दुनिया का सामना करना है. ठीक उस क्षण जब वह चीते से दिखने वाले अंत:वस्त्रों का जोड़ा पसन्द करती है और साथ में अपने चेहरे पर किसी चीते सी धारियां बना लेती है, ठीक उस क्षण हमारी सभ्यता का मर्दवादी किला भरभराकर ढह जाता है.

साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के नवम्बर अंक में प्रकाशित.

तारे ज़मीं पर : कान फ़िल्मोत्सव

कान फ़िल्मोत्सव का संक्षिप्त परिचय पत्र दोस्त दुष्यंत के आग्रह पर.
आज ही  सुबह डेली न्यूज़ के रविवारीय ’हम लोग’ में प्रकाशित हुआ.

Midnight_in_Parisवैसे तुलनाएं हमेशा ही नाजायज़ कोशिश होती हैं लेकिन फिर भी समझने के लिहाज से कहा जाए तो जैसे ऑस्कर विश्व सिनेमा के ’फ़िल्मफ़ेयर’ हैं वैसे ही कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल की जीत ’राष्ट्रीय पुरस्कार’ जैसे किसी सम्मान सरीख़ी है. ऑस्कर जहाँ मूलत: अमेरिकन पुरस्कार हैं और उनमें ज़्यादा बोलबाला हमेशा हॉलीवुड की फ़िल्मों का ही होता है, कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल हमारे सामने विश्व सिनेमा की विविधरंगी और कुछ ज़्यादा लोकतांत्रिक तस्वीर प्रस्तुत करता है. लेकिन कान फ़िल्मोत्सव का अर्थ सिर्फ़ इतना भर नहीं. यह सारे संसार की बहु-भाषा भाषी सिनेमाई दुनिया को एक मंच पर इकठ्ठा करता एक ऐसा बहुरंगी मेला है जिसका जोड़ कायनात में कहीं और मिलना मुश्किल है. फ्रांस के दक्षिणी किनारे पर बसे छोटे से शहर कान को हर साल मई के महीने में होने वाले इस अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह ने विश्व पटल पर अविस्मरणीय पहचान दिलवाई है. द्वितीय विश्व युद्ध के ख़ात्मे के साथ ही साल 1946 में इस सालाना समारोह की शुरुआत हुई थी और धीरे-धीरे इसने न केवल यूरोपीय सिनेमा जगत में बल्कि विश्व सिनेमा परिदृश्य पर अपनी अमिट जगह बनाई.

इस साल भी भूमध्यसागर किनारे सिनेमा का यह मेला अपनी पूरी रंगत बिखेरता चल रहा है. इस वर्ष मुख्य स्पर्धा के निर्णायक मंडल के अध्यक्ष रॉबर्ट डि नीरो हैं. प्रेम कहानियों के मास्टर वुडी एलन की ’मिडनाइट इन पेरिस’ से शुरु हुए इस सालाना जलसे में स्पेनिश पैद्रो अल्मोदोवार की ’द स्किन आई लिव इन’, लार्स वॉन ट्रायर की ’मैलेंकॉलिया’ तथा सीन पेन और ब्रैड पिट जैसे अभिनेताओं से सजी अमेरिकन फ़िल्म ’द ट्री ऑफ़ लाइफ़’ मुख्य स्पर्धा वर्ग में शामिल हैं. इनके अलावा कोरिया के जाने माने निर्देशक किम-की-डुक और अमेरिकन गस वान सांत की नई फ़िल्में Un Certain regard खंड में दिखाई जायेंगी. कान फ़िल्मोत्सव इस बार विशेष पहल के तहत उन दो ईरानियन फ़िल्मकारों को सम्मानित कर रहा है जिन्हें ईरान की सरकार ने एक तानाशाही फ़रमान सुनाकर कैद में डाल रखा है. इसी सम्मान के तहत जफ़र पनाही और मोहम्मद रसूलोव की फ़िल्में ’गुडबाय’ और ’दिस इज़ नॉट ए फ़िल्म’ महोत्सव में दिखाई जायेंगी. यह एक गैर लोकतांत्रिक सत्ता के विपक्ष को रचता कलात्मक प्रतिरोध है. यह याद दिलाता है 2004 की उस शाम की जब क्वेन्टिन टेरेन्टीनो की अध्यक्षता वाली निर्णायक समिति ने माइकल मूर की ’फ़ेरेनहाइट 9/11’ को समारोह की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म चुनकर तत्कालीन अमानवीय अमेरिकन सत्ता और उनके उदंड सिपहसालार को प्रतिरोध का रचनात्मक काला झंडा दिखाया था.

वैसे इस बार का समारोह एक बड़े विवाद के भी नाम रहा जब ’मैलेंकॉलिया’ के निर्देशक लार्स वॉन ट्रायर की हिटलर को लेकर कही गई कुछ विवादित टिप्पणियों ने उन्हें समारोह से निष्कासित करवा दिया. यह कान में अपनी तरह का पहला मामला है. हालांकि आयोजकों द्वारा कहा गया कि उनकी फ़िल्म मुख्य स्पर्धा में बनी रहेगी.

हिन्दुस्तानी सिनेमा विश्व पटल पर अब भी अपनी सही जगह और पहचान की तलाश में है, और कान फ़िल्मोत्सव भी इसका अपवाद नहीं है. लेकिन मज़ेदार बात यह जानना है कि कान फ़िल्मोत्सव के पहले ही साल भारतीय सिनेमा ने वहाँ अपनी धमक सुनवाई थी. ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी और चेतन आनंद द्वारा निर्देशित ’नीचा नगर’ को उन्नीस सौ छियालीस में हुए कान फ़िल्मोत्सव में ’ग्रैंड प्रिक्स’ पुरस्कार से नवाजा गया था. आगे भी सत्यजित राय और एम. एस. सथ्यू जैसे निर्देशकों ने सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म सम्मान के लिए नामांकन पाया, लेकिन ’पाल्म डे’ओर’ (Palme d’Or) या कहें गोल्डन पाल्म भारतीय निर्देशकों से कुछ दूरी पर ही रहा. वैसे कान के गोल्डन पाल्म का इतिहास सिनेमा के पुराने धुरंधरों फ़ेलिनी, कुरोसावा और कोपोला से लेकर आधुनिक सिनेमाई उस्तादों सोडरबर्ग, लार्स वॉन ट्रायर और माइकल हनेके के नामों से जगमगाता रहा है.

Piraviउन्नीस सौ अठत्तर में कान फ़िल्मोत्सव में एक नया वर्ग Un Certain regard नाम से शुरु किया गया. यह विश्व सिनेमा में हो रहे नए और चुनौतीपूर्ण काम को उत्सव के पटल पर रेखांकित करने का प्रयास था. इस वर्ग में हिन्दुस्तानी सिनेमा ने लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है. मणि कौल की फ़िल्म ’सतह से उठता आदमी’, मृणाल सेन की ’खंडहर’, शाजी करुण की ’पीरावी’ और ’वानप्रस्थम’, गौतम घोष की ’गुड़िया’ तथा पिछले साल आई विक्रमादित्य मोटवाने की ’उड़ान’ जैसी कई फ़िल्मों ने इस खंड में स्थान पाया.

कान जैसे उत्सवों में हिन्दुस्तानी सिनेमा अपनी ठोस पहचान क्यों नहीं बना पाता? अडूर गोपालकृष्णन (जिनकी फ़िल्म ’इलिप्पाथायम’ 1982 के कान फ़िल्मोत्सव के लिए चुनी गई थी) इस कथन को आलोचनात्मक नज़र से देखते हैं. उनका कहना है, “कान जैसे फ़िल्मोत्सव का सिनेमाई नज़रिया बड़ा यूरोपीय-अमेरिकी झुकाव वाला होता है जो हमारे सिनेमा से काफ़ी अलग है. न तो हम जापान जैसे ’सुदूर-पूर्व’ वाले देश हैं और न ही पश्चिम. हम कहीं बीच में अटके हैं उनकी नज़र में. हमारी संस्कृति की सही समझ पश्चिम में अब भी काफ़ी कम है. और सिनेमा की तारीफ़ तो उस देश की संस्कृति और लोगों के बारे में समझ से ही निकलती है.”

अनुराग कश्यप का कहना है कि विश्व सिनेमा पटल पर हिन्दी सिनेमा की ऐसी छवि बनी हुई है जैसे वो कोई मसखरा हो. लेकिन सच में ऐसा है नहीं. और अब हिन्दी सिनेमा भी केवल ’नाच-गाने’ वाला सिनेमा नहीं रहा. वैसे इस छवि को पोषित करने में कुछ गलती हमारी भी है. जैसे इस साल कान में दिखाई गई शेखर कपूर द्वारा बनाई फ़िल्म “बॉलीवुड : ग्रेटेस्ट लव स्टोरी एवर टोल्ड” हिन्दी सिनेमा की कुछ ऐसी ही स्टीरियोटाइप छवि प्रस्तुत करती है और इस वजह से उसे काफ़ी आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा है.

चपलताएं और ईमानदारियाँ : द व्हाइट बलून

The-White-Balloonयह एक छोटी बच्ची की नज़र से देखी गई दुनिया है. ईरानियन निर्देशक ज़फ़र पनाही की ’द व्हाइट बलून’ हमें अच्छाई में यकीन करना सिखाती है. ईरान से आयी इन फ़िल्मों में कोई ’विलेन’ नहीं होता. बस औसत जीवन की उलझनें होती हैं और उनसे निकली विडम्बनाएं. किसी मितकथा सी खुलती इस कहानी की नायिका एक सात साल की बच्ची है जिसका नाम है रज़िया. कहानी कहे जाने का दिन भी ख़ास है. ईरान में नया साल बस आने ही वाला है. रज़िया अपनी माँ के साथ बाज़ार आई है और यहीं उसका दिल दूर शीशे के पार तैरती एक सुनहरी मछली पर आ जाता है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि माँ को कैसे मनाया जाए? बाज़ार से घर तक वह रूठने-मनाने की सारी जुगत लगाती है, लेकिन माँ तो फिर माँ हैं. बड़ा भाई अली आता है और बहन की उदासी उससे देखी नहीं जाती. इस बीच वहीं-कहीं कुढ़ते-खीजते पिता भी हैं जो परदे पर कभी दिखते तो नहीं हैं लेकिन उनकी सत्ता घर के माहौल में घुली नज़र आती है.

खैर. माँ आखिर माँ हैं, मान जाती हैं. पैसा रज़िया के हाथ में थमाया जाता है और साथ हिदायतों की पोटली भी. और रज़िया फुदकती हुई दौड़ जाती है अपनी प्यारी मछली को अपना बनाने. लेकिन कमबख़्त रास्ते में एक भरा-पूरा ’बाज़ार’ पसरा है. भरमाता है, असल काम भुलाता है. बड़ों की दुनिया को रज़िया हैरत से देखती है. रुकती है, उलझ जाती है, फिर आगे बढ़ती है. समझ जाती है कि बड़ों की दुनिया में आपके पास ’पैसा होना’ सबसे ख़ास है. रज़िया अपनी प्यारी मछली तक पहुँचने की इस नाटकीय और कई दिलचस्प किरदारों से मिलकर बनती यात्रा में पैसा खोती भी है, पाती भी है. अंत तक आते हुए वह आप और हमें भी उसकी भोली उलझनों का साथी बना लेती है.

अब्बास किरोस्तामी के सहायक रहे ज़फ़र पनाही के कैमरा फ्रेम उनसे ज़्यादा चपल हैं. यह उनकी पहली ही फ़ीचर फ़िल्म है. यह ईरान की गलियाँ और चौक-चौबारे साथ कुछ यूँ दिखाते हैं जैसे उन्हें भी किरदारों सा महत्व देते हों. ’द व्हाइट बलून’ असल समय की रफ़्तार से चलती है. दो घंटे से भी कम के इस पूरे घटनाचक्र में लगातार आप नए साल के आने की आहट सुन सकते हैं. इस कारीगरी को और पुख़्ता करते हुए पनाही पहले ही दृश्य में फ़िल्म के तमाम मुख्य किरदारों की एक झलक दिखाते हैं. यहाँ सभी उन काम-धंधों की शुरुआत कर रहे हैं जिन्हें साथ लेकर वे आगे रज़िया की उलझनों से टकराएगें और अपनी बनते उसकी मदद भी करेंगे. फ़िल्म के माध्यम से हम ईरानी जीवन का एक औसत दिन बहुत नज़दीक से देख पाते हैं. रोज़ाना चलते कार्य-व्यापार, लेन-देन, बाज़ार की बहसबाज़ियाँ. एक पूरा दिन अपनी तमाम साधारणताओं के साथ, अपनी तमाम विलक्षणताओं के साथ.

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फ़िल्म का यह छोटा सा परिचय हाल ही में संपन्न हुए ’गोरखपुर फ़िल्म उत्सव’ की स्मारिका के लिए लिखा गया था.