पिछले दिनों अपने शोध के सिलसिले में फ़िल्म दर फ़िल्म दिल्ली शहर की संरचना को परखते हुए रिल्के की कविताओं से मुलाकात हुई. साहित्य अकादेमी से प्रकाशित अपने अनुवाद में अनामिका उन्हें ’औरतों की मेज़ का कवि’ कहती हैं. यहाँ दर्ज कविता अब मेरे शोध प्रबंध का हिस्सा है. रिल्के का सौ साल पुराना शहरीकरण का यूरोपीय अनुभव आज हमारे लिए आईने सरीख़ा है. क्या मैं ठीक देख रहा हूँ… रिल्के भी इस यांत्रिक होते जा रहे अनुभव के ताप को उदास बच्चे और अकेली स्त्री के बिम्ब के माध्यम से ही क्यों पकड़ते हैं? क्या यह सच नहीं कि एक अमानवीय होते जा रहे शहर का वार सबसे पहले आबादी के पीछे छूटे हुए हिस्से पर ही पड़ता है…
‘बीत चुके हैं अब युग शहरों के’
और महान शहर, ऎ ईश्वर, वे क्या हैं?
विघटित और छूटी हुई जगहें.
जिस शहर को जानता हूँ मैं –
वह दीखता है –
आग से भागते हुए पशुओं-सा.
आश्रय
आश्रय नहीं रहा.
बीत चुके हैं अब युग शहरों के.
स्त्री-पुरुष वहाँ रहते हैं आक्रांत
अंधेरे कमरों में –
मानवीय उपक्रम से डरे हुए,
साल-भर के बछड़ो के झुंड से भी
कुछ ज़्यादा ही भयभीत.
अब भी आँखें खोलती है और भरती है साँस
तुम्हारी धरती –
पर उनको अहसास नहीं रहा धरती की साँसों का.
खिड़की पर ही बिता देता है बच्चा बचपन के साल,
छाया वहाँ भी बनाती है एक समान कोण हर रोज़.
उसे समझ ही नहीं आता कि सारे जंगली गुलाब
उसे ही पुकारते हैं हरदम- खुली-खुली जगहों,
खुशियों और हवाओं के दिन तक.
धीरे-धीरे एक दिन वह भी बन जाता है उदास बच्चा.
युवतियाँ खिलती हैं ऊर्ध्वमुखी –
अज्ञात की ओर.
बचपन की शांति मचलती है मन में तब चाहत-सी
हालाँकि जिसकी भी ख़ातिर मचलती है –
वह इस दुनिया में नहीं होता.
काँपता है बदन उसका –
जब वे ख़ुद को मूँदती हैं फिर एक बार.
माँ बनने के वे सब निराश साल
तो गुज़र जाते हैं – अँधियारे फ़्लैटों में.
रात-दर-रात नहीं जगती कामना कोई भी
और वे रोती रहती हैं.
ठंडे बरस गुज़रते हैं – अशक्त,
बिना किसी असल युद्ध के.
अँधेरे कमरे में,
करती है इंतज़ार
उनकी मृत्युशय्या,
और फिर वे चाहती हैं
घीरे-धीरे उसमें धँसना, बहुत देर लगाती हैं मरने में,
जैसे कि ज़ंजीरों में हों वे
और उन्हें मरना हो –
दूसरों पर निर्भर –
जैसे भिखारी.
~रिल्के. कविता का हिन्दी में अनुवाद अनामिका द्वारा किया गया है.