इंडियन ओशियन हिन्दुस्तान का नामी-गिरामी म्यूजिक बैंड है. न सिर्फ़ नामी-गिरामी, इसके संगीत की विविधता इसे हिन्दुस्तान जैसे महादेश का प्रतिनिधि चरित्र भी बनाती है. इनके संगीत में ठेठ राजस्थानी लोकसंगीत की खनक है तो कश्मीर की ज़मीन से आए बोलों की गमक भी. इनके गीतों में कबीर की उलटबांसियाँ भी हैं और नर्मदा के जनांदोलन की अनुगूँज भी. पिछले दिनों जब आप-हम इनके गीत ’देस मेरा रंगरेज़ ये बाबू’ की धुन में खोये हुए थे, इसी इंडियन ओशियन ने एक अनूठा और मज़ेदार प्रयोग किया. इन्होंने अपने नए म्यूज़िक एलबम ’16/330, खजूर रोड’ को रिलीज़ करने और बाज़ार में बेचने के बजाए इसके गीतों को मुफ़्त जारी करने की घोषणा की.
इसके तमाम अर्थ समझने से पहले देखें कि यह होगा कैसे? इंडियन ओशियन हर महीने अपने एलबम का एक नया गाना mp3 फॉरमैट में अपनी वेबसाइट www.indianoceanmusic.com पर अपलोड करेगा. आप वहाँ बताई गई जगह पर क्लिक करें और अपना नाम, ई-मेल भरें. फिर आपको एक लिंक मेल किया जाएगा जिस पर क्लिक कर आप अपना गीत डाउनलोड कर पायेंगे. सारा कुछ बिलकुल मुफ़्त. यह सिलसिला पिछली 25 जुलाई से शुरु हुआ है और अब तक नए एलबम के दो गाने ’चांद’ और ’शून्य’ सुननेवालों तक सीधे पहुँच चुके हैं. हर महीने की पच्चीस तारीख़ को एक नए गाने के साथ यह सिलसिला आगे बढ़ता रहेगा और इस तरह कुछ महीनों के भीतर ही पूरा एलबम हमारे सामने होगा.
लेकिन ’कि पैसा बोलता है’ कहे जाने वाले इस दौर में मुफ़्त क्यों? दरअसल इंडियन ओशियन की यह कोशिश बाज़ार के मकड़जाल से निकलने का एक रास्ता है. ऐसा मकड़जाल जिसमें संगीत रचता है कोई और उस पर मुनाफ़ा कमाता है कोई और. बैंड अपनी वेबसाइट पर लिखता है, “बहुत से लोग यह जानने को उत्सुक हैं कि हम अपना संगीत मुफ़्त क्यों बाँट रहे हैं? इसकी पहली वजह तो ये कि इससे संगीत के रचयिता बैंड और उसे सुननेवाले के बीच की दूरी बहुत कम हो जाती है. आजकल ज़्यादातर नई उमर के लोग संगीत खरीदकर नहीं सुनते, बल्कि उसे इंटरनेट से मुफ़्त डाउनलोड ही करते हैं. तो ऐसे में हम उनका अपराधबोध कुछ कम ही कर रहे हैं. इसके साथ ही संगीत कम्पनियों से सौदेबाज़ी और कॉपीराइट के झंझट ख़त्म हो जाते हैं. इस बात की चिंता नहीं रहती कि हमारा संगीत सभी जगह तक पहुँच रहा है कि नहीं. और सच कहें, कोई हिन्दुस्तानी कलाकार रॉयल्टी के पैसे पर नहीं जीता. हमारी तक़रीबन सारी कमाई तो लाइव शो और फ़िल्मों के लिए म्यूज़िक बनाकर होती है. हमें उम्मीद है कि यह प्रयोग और हिन्दुस्तानी कलाकारों के लिए भी एक ज़रिया बनेगा उन्हें सुननेवाली जनता तक पहुँचने का.”
सच बात यही है कि हमारे देश में फ़िल्मी संगीत की आदमकद उपस्थिति के सामने गैर-फ़िल्मी संगीत हमेशा आर्थिक चुनौतियों से लड़ता रहा है. पहले भी बड़ी-बड़ी संगीत कम्पनियाँ मुनाफ़ा कमाती रहीं और कलाकार ख़ाली जेब घूमता रहा. अगर आपके पास बिक्री के सही रिकॉर्ड ही न हों तो आप कैसे मुनाफ़े में हिस्सा माँगेगे? और फिर डिस्ट्रीब्यूशन का सही चैनल इन्हीं कम्पनियों के पास रहा जिसके बगैर कलाकार लाचार था. इस दशक में इंटरनेट के साथ ’पब्लिक शेयरिंग’ और ’फ्री डाउनलोड’ कल्चर आने के साथ संगीत उद्योग का संकट और बढ़ गया है. इसका असर नज़र आता है. युवाओं में सबसे लोकप्रिय म्यूज़िक बैंड ’यूफ़ोरिया’ का सालों से कोई नया एलबम नहीं आया है. दलेर मेंहदी से लेकर अलीशा चिनॉय तक प्राइवेट एलबम्स की दुनिया के बड़े सितारे या तो हाशिए पर हैं या फ़िल्म संगीत की शरण में.
लेकिन इंडियन ओशियन ने संकट की वजह बनी इसी ’फ्री डाउनलोड’ की कल्चर को अपना हथियार बना लिया है अपने श्रोता तक सीधे पहुँचने का. बैंड का यह तरीका गैर-फ़िल्मी संगीत के लिए आगे बढ़ने का एक नया रास्ता हो सकता है. आज अगर श्रोता गाना पसंद करेगा तो कल पैसा भी देगा. शायद यहीं से कोई नई पगडंडी निकले मंज़िल की ओर.
मूलत: नवभारत टाइम्स के कॉलम ’रोशनदान’ में पाँच सितंबर को प्रकाशित.