फिर एक नया साल दरवाज़े पर है अौर हम इस तलाश में सिर भिड़ाए बैठे हैं कि इस बीते साल में ‘नया’ क्या समेटें जिसे अागे साथ ले जाना ज़रूरी लगे। फिर उस सदा उपस्थित सवाल का सामना कि अाखिर हमारे मुख्यधारा सिनेमा में क्या बदला?
क्या कथा बदली? इसका शायद ज़्यादा ठीक जवाब यह होगा कि यह कथ्य में पुनरागमन का दौर है। ‘पान सिंह तोमर’ देखते हुए जिस निस्संगता अौर बेचैनी का अनुभव होता है, वह अनुभव गुरुदत्त की ‘प्यासा’ के एकालाप ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं’ तक जा पहुँचता है। ‘गैंग्स अॉफ वासेपुर’ की कथा में वही पुरानी सलीम-जावेद की उग्र भंगिमा है जिसके सहारे अमिताभ ने अपना अौर हिन्दी सिनेमा का सबसे सुनहरा दौर जिया। ‘विक्की डोनर’, ‘लव शव ते चिकन खुराना’, ‘अइय्या’, ‘इंग्लिश विंग्लिश’ अौर ‘तलाश’ जैसी फिल्में दो हज़ार के बाद की पैदाईश फिल्मों में नई कड़ियाँ हैं जिनमें अपनी अन्य समकालीन फिल्मों की तरह कुछ गंभीर लगती बातों को भी बिना मैलोड्रामा का तड़का लगाए कहने की क्षमता है। लेकिन अगर कथा नहीं बदली अौर न ही उसे कहने का तरीका थोड़े ताम-झाम अौर थोड़े मैलोड्रामा को कम करने के बावजूद ज़्यादा बदला, तो फ़िर ऐसे में अाखिर वो क्या बात है जो हमारे इस समकालीन सिनेमा को कुछ पहले अाए सिनेमा से भिन्न अनुभव बना रही है?