पंजाब से अाया बुलावा अजय की फिल्मों को देखने अौर उन पर बात करने का था। अजय भारद्वाज की पंजाब की पृष्ठभूमि पर बनी दो वृत्तचित्र फिल्में ‘रब्बा हुणं की करिये’ अौर ‘मिलांगे बाबे रतन ते मेले ते’ साथ देखना अौर साथी कॉमरेडों से बातचीत मेरे लिए एक नए अनुभव का हिस्सा थी। इससे पहले अजय पंजाब की ही पृष्ठभूमि पर वृत्तचित्र ‘कित्थे मिल वे माही’ भी बना चुके हैं अौर इन तीन फिल्मों को साथ उनकी पंजाब-पार्टीशन ट्रिलॉजी के रूप में देखा जा सकता है। जहाँ ‘रब्बा हुणं की करिये’ रौशन बयानों से मिलकर बनती फिल्म है वहीं ‘मिलांगे बाबे रतन ते मेले ते’ जैसे अपना कैनवास बड़ा कर लेती है अौर उसमें पंजाब का तमाम खालीपन अौर उस खालीपन में गहरे पैठा सूफ़ी संगीत शामिल होकर हमारे सामने अाज के पंजाब की प्रचलित तस्वीरों के मुकाबले एक निहायत ही भिन्न तस्वीर पेश करता है।
डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म
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एक बुढ़ाता सेल्समैन और हक़ मांगती सत्रह लड़कियाँ
फ़िल्म महोत्सवों में सदा विचारणीय आदिम प्रश्न यह है कि आखिर पांच समांतर परदों पर रोज़ दिन में पांच की रफ़्तार से चलती दो सौ से ज़्यादा फ़िल्मों में ’कौनसी फ़िल्म देखनी है’ यह तय करने का फ़ॉर्म्यूला आख़िर क्या हो? अनदेखी फ़िल्मों के बारे में देखने और चुनाव करने से पहले अधिक जानकारी जुटाना एक समझदारी भरा उपाय लगता है लेकिन व्यावहारिकता में देखो तो इसमें काफ़ी पेंच हैं. जैसे आमतौर पर अमेरिकी और यूरोपीय मुख्यधारा से इतर सिनेमा के बारे में जानकारियाँ हम तक पहली दुनिया के चश्मे से छनकर आती हैं. इन जानकारियों पर अति-निर्भरता नज़रिया सीमित कर सकती है. फ़ेस्टिवल कैटेलॉग पर भी ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता, कई बार तो यही दस्तावेज़ सबसे भ्रामक साबित होता है. इन्हें तैयार करने वाले बहुधा ऐसे प्रशिक्षु सिनेमा विद्यार्थी होते हैं जिन्होंने खुद भी इनमें से कम ही फ़िल्में देखी हैं.
बड़े नामों या निर्देशकों के पीछे अपना पैसा लगाने वाले हमेशा उस खूबसूरत सिनेमा अनुभव को खो बैठते हैं जिसकी सुंदरता अभी वृहत्तर सिने-समाज द्वारा रेखांकित की जानी बाक़ी है. और फिर प्रतिष्ठित सिनेमा महोत्सव में, जहाँ सिनेमा का स्तर इस क़दर ऊँचा हो कि हर देखी फ़िल्म के साथ समांतर चलती और हाथ से छूटने वाली फ़िल्मों के लिए अफ़सोस गहराता ही चला जाए, किसी फ़िल्म का ’प्लॉट’ भर जान लेना आख़िर कहाँ पहुँचाएगा?
सबसे ऊपर और सबसे महत्वपूर्ण यह कि एक अनजाने से देश से आई किसी नई फ़िल्म को देखने से जुड़ा वो अनछुआ अहसास इन तमाम जानकारियों की भीड़ में कुचल जाता है. हमारे नज़रिए का कोरापन पहले ही नष्ट हो चुका होता है और सिनेमा अपना इत्र खो देता है. सूचना विस्फोट के इस अराजक समय में बिना किसी पूर्व निर्मित कठोर छवि के एक नई, कोरी फ़िल्म को देखने का विकल्प तो जैसे हमसे छीन ही लिया गया है.
हमारे दोस्त वरुण ग्रोवर इस मान्य विचार को चुनौती देने का प्रण करते हैं. वो अपनी बनते किसी फ़िल्म के बारे में कोई पूर्व जानकारी हासिल नहीं करते और उनके synopsis तो भूलकर भी नहीं पढ़ते. कुछ भरोसेमंद दोस्तों की सलाह पर हम किसी अनदेखी फ़िल्म के लिए थिएटर में घुस जाते हैं. और तभी हाल में अंधेरा होने से ठीक पहले परदे के सामने एक कमउमर लड़का आता है और पहले अपने सिनेमा अध्ययन करवाने वाले संस्थान का नाम ऊंचे स्वर में बताकर बतौर परिचय फ़िल्म की कहानी सुनाने लगता है. मैं वरुण की ओर देखता हूँ. वरुण अपने कानों में उंगलियाँ दिए बैठे हैं और माइक पर आती उसकी बुलन्द आवाज़ को अनसुना करने की भरसक, लेकिन असफ़ल कोशिश कर रहे हैं. मेरे सामने फिर एक बार यह साबित होता है कि इस सूचना विस्फोट के युग में जहाँ अनचाही सूचना का अथाह समन्दर सामने हिलोरें मारता है, हमारे भविष्यों में सिर्फ़ डूबना ही बदा है.
The Turin Horse
Bela Tarr, Hungary, 2011.
भागते हुए सिनेमा हाल के गलियारों में पहुँचे और हम सीधे धकेल दिए जाते हैं बेला टार के विज़ुअल मास्टरपीस ’द तुरिन हॉर्स’ के सामने. सिर्फ़ विज़ुअल, क्योंकि परदे पर आवाज़ तो है लेकिन सबटाइटल्स गायब हैं. लेकिन बिना शब्दों का ठीक-ठीक अर्थ जाने भी यह अनुभव विस्मयकारी है. एक तक़रीबन घटना विरल कथा में परदा श्वेत-श्याम दृश्य गढ़ रहा है. मैं देखने लगता हूँ. अन्दर तक भर जाता हूँ, साँस फूलने लगती है, लेकिन दृश्य में ’कट’ नहीं होता. धीरे-धीरे इन फ्रेम दर फ्रेम चलते अनन्त के साधक, सघन दृश्यों के ज़रिए वह सारा वातावरण और उसकी सारी ऊब, थकान मेरे भीतर भरती जाती है. मैंने अपने सम्पूर्ण जीवन में सिनेमा के उस विशाल परदे पर ऐसा विस्मयकारी कुछ होता कम ही देखा है.
लेकिन ठीक वहीं, हमें अभिभूत अवस्था में छोड़ फ़िल्म दोबारा न शुरु होने के लिए रोक दी जाती है. वादा किया जाता है रात का, लेकिन रात आती है उसी फ़िल्म के किसी घटिया डीवीडी प्रिंट के साथ. मैं पहले पन्द्रह मिनट की फ़िल्म देखकर उठ जाता हूँ. वह सुबह का उजला अनुभव अब भी मेरे पास है, मैं उसे यूं मैला नहीं होने दे सकता.
The Salesman
Sebastien Pilote, Canada, 2011.
यह हमारे वक़्तों का सिनेमा है. एक कस्बा है और उसके केन्द्र में उसकी तमाम अर्थव्यवस्था का सूत्र संचालक एक संयंत्र है. एक संयंत्र जो मंदी की ताज़ा मार में घायल है और अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है. यह उस संयंत्र की तालेबन्दी के बाद के कुछ निरुद्देश्य असंगत दिनों की कथा है. लेकिन यहाँ एक पेंच है. यहाँ कथा जिस व्यक्ति के द्वारा कही जाती है वह एक बुढ़ाता कार सेल्समैन है जिन्हें बीते खुशहाल सालों में अपने काम में सर्वश्रेष्ठ होने के कई तमगे मिले हैं. लेकिन आज कस्बे में मरघट सा सन्नाटा है और संयंत्र बंद होने के बाद अब उससे जुड़ी तमाम उम्मीदें भी धीरे-धीरे कर दम तोड़ रही हैं. संकट यह है कि सेल्समैन को आज भी अपना काम करना है. सच-झूठ कैसे भी हो, उस शोरूम में खड़ी नई-नवेली कार का सौदा पटाना है.
मुझे सीन पेन की क्लासिक फ़िल्म ’दि असैसिनेशन ऑफ़ रिचर्ड निक्सन’ याद आती है. यह एक ऐसी पूंजीवादी व्यवस्था के बारे में बयान है जिसमें इंसान का दोगलापन उसका तमगा और उसकी ईमानदारी उसके करियर के लिए बाधा समान है. यहाँ इंसान को आगे बढ़ने के लिए पहले अपने भीतर की इंसानियत को मारना पड़ता है. व्यवस्था बदली नहीं है, बस हुआ यह है कि इस वैश्विक महामंदी ने इस व्यवस्था के दोगले मुखौटे को उतार दिया है. अगर आप सुनने की चाहत रखते हों तो इस फ़िल्म के मंदीमय बर्फ़ीले सन्नाटे में भविष्य में होनेवाले ’ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट’ की आहटें सुन सकते हैं.
Michael
Markus Schleinzer, Austria, 2011.
पहले ही बता दिया गया था कि यह फ़िल्म इस समारोह की बहुप्रतिक्षित ’डार्क हॉर्स’ है. निर्देशक मार्कस तोप जर्मन निर्देशक माइकल हेनेके के लम्बे समय तक कास्टिंग डाइरेक्टर रहे हैं और ’दि व्हाइट रिबन’ के लिए तमाम बच्चों की चमत्कारिक लगती कास्टिंग उन्हीं का करिश्मा थी. ’माइकल’ का प्लॉट विध्वंसक है. यह फ़िल्म घर के तहखाने में कैद किए एक बच्चे और उसके यौन शोषक नियंता की दैनंदिन जीवनी को किसी रिसर्च जर्नल की तरह निरपेक्ष भाव से दर्ज करती अंत तक चली जाती है.
’माइकल’ का चमत्कार उसकी निर्लिप्त भाव कहन में है. फ़िल्म कहीं भी निर्णय नहीं देती. कहीं भी फ़ैसला सुनाने की मुद्रा में नहीं आती और यथार्थ को इस हद तक निचोड़ देती है कि परिस्थिति का ठंडापन भीतर भर जाता है. असहज करती है, लेकिन किसी ग्राफ़िकल दृश्य से नहीं, बल्कि अपने कथानक के ठंडेपन से. घुटन महसूस करता हूँ, मेरा अचानक बीच में खड़े होकर चिल्लाने का मन करता है. कहीं यह हेनेके की शैली का ही विस्तार है. ’माइकल’ एक सामान्य आदमी है. नौकरीपेशा, छुट्टियों में दोस्तों के साथ हिल-स्टेशन घूमने का शौकीन, त्योंहार मनाने वाला. दरअसल उसका ’सामान्य’ होना ही सबसे बड़ा झटका है, क्योंकि हम ऐसे अपराधियों की कल्पना किसी विक्षिप्त मनुष्य के रूप में करने के आदी हो गए हैं. निर्देशक मार्कस उसे यह सामान्य चेहरा देकर जैसे हमारे बीच खड़ा कर देते हैं. सच है, यह यथार्थ है. और यह भयभीत करता है.
Toast
J S Clarkson, UK, 2011.
ब्रिटिश फ़िल्म ’टोस्ट’ की शुरुआत मुझे रादुँगा प्रकाशन, मास्को से आई हमारे घर के बच्चों की खानदानी किताब ’पापा जब बच्चे थे’ की किसी कहानी की याद दिलाती है. लेकिन अंत में नीति कथा बन जाती उन स्वभाव से उद्दंड रूसी बाल-कथाओं से उलट ’टोस्ट’ सदा उस बच्चे के नज़रिए से कही गई कथा ही बनी रहती है. इसे देखते हुए लगातार विक्रमादित्य मोटवाने की ’उड़ान’ याद आती है और मैंने इसे कुछ सोचकर ’फ़ीलगुड’ उड़ान का नाम दिया. कहानी में कायदा सिखाने वाले, बाहर से सख़्त, भीतर से नर्म पिता हैं. ममता की प्रतिमूर्ति साए सी माँ हैं, और हमारा कथानायक आठ-दस साल का नाइज़ेल है. और सबसे महत्वपूर्ण यह कि रोज़ नाइज़ेल के सामने घर का डब्बाबंद खाना है जिसे अधूरा छोड़ वह असली, लजीज़ पकवानों के ख्वाब देखा करता है.
आगे कहानी में माँ की मौत से लेकर सौतेली माँ तक के तमाम ट्विस्ट हैं. स्त्रियों का वही परम्परा से चला आया स्टीरियोटाइप चित्रण है जो खड़ूस सौतेली माँ की भूमिका में हेलेना कार्टर की अद्भुत अदाकारी की वजह से और उभरकर सामने आता है. ’टोस्ट’ कथा धारा के परम्परागत ढांचे को तोड़ती नहीं है. लेकिन उसे एक मुकम्मल कथा की तरह ज़रूर कहती है. हाँ, बचपन में नाइज़ेल के उस दोस्त का किरदार कमाल का है जो उसे हमेशा ज्ञान देता रहता है. सच कहूँ, यह भी एक स्टीरियोटाइप ही है लेकिन ऐसा जिसका सच्चाई से सीधा वास्ता है. मुझे अपने बचपन का साथी दीपू याद आता है जो मुझसे एक साल सीनियर हुआ करता था और मुझे हर आनेवाली क्लास के साथ अगली क्लास की अभेद्य चुनौतियों के बारे में बताया करता था. यहाँ भी उसका दोस्त वक़्त-बेवक़्त ’नॉर्मल फ़ैमिलीज़ आर टोटली ओवररेटेड’ जैसे वेद-वाक्य सुनाता चलता है. कथा का अंत फिर इसे ’उड़ान’ से कहीं गहरे जोड़ता जाता है.
The Ides of March
George Clooney, USA, 2011.
यह वो महत्वाकांक्षी हॉलीवुड थ्रिलर है जिसके लिए स्क्रीन के बाहर लम्बी लाइनें लगीं और संभवत: जिस फ़िल्म की गूंज आप आनेवाले ऑस्कर पुरस्कारों में सुनेंगे. सत्ता है, हत्या है, महत्वाकांक्षाएं हैं, फ़रेब है, ऊपर दिखती खूबसूरती है, बदनुमा अतीत है. लेकिन जॉर्ज क्लूनी निर्देशित ’द आइड्स ऑफ़ मार्च’ की जान फ़िल्म के नायक रेयान गॉसलिंग हैं. पता हो, यह लड़का पिछले साल ’ब्लू वेलेंटाइन’ जैसी घातक रूप से अच्छी फ़िल्म दे चुका है. जॉर्ज क्लूनी और मेरे पसन्दीदा फ़िलिप सिमोर हॉफ़मैन जैसे खेले-खाए अदाकारों के सामने इस तीस साल के लड़के की धमक सुनने लायक है. अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से ठीक पहले डेमोक्रेटिक उम्मीदवार के चुनाव के लिए मतदान के दौरान की इस कथा में हमारे समय के हालिया वर्तमान से निकले अनेक स्वर सुनाई देते हैं. किसी पर्फ़ेक्ट राजनैतिक थ्रिलर की तरह कथा आपको बांधे रखती है और जहाँ होना चाहिए वहाँ मोहभंग भी होता है, लेकिन परेशानी यही है कि फ़िल्म जहाँ बनती है ठीक वहीं ख़त्म हो जाती है.
इस बीच दोस्तों की चर्चाओं में लौट-लौटकर ’माइकल’ आती रही. एक दोस्त ने कहा कि वह अपराधी का मानवीकरण है. मुझे याद आया कि ’सत्या’ के बाद उसे भी स्थापित करते हुए आलोचकों ने यही कहा था कि यहाँ पहली बार एक ’डॉन’ का मानवीकरण होता है, उसके भी बीवी-बच्चे हैं. वो दोस्त की शादी की बरात में नाचता है. वो भी चाहता है कि उसकी बच्ची स्कूल में अंग्रेज़ी पोएम सीखे. तो क्या ’माइकल’ भी ’सत्या’ की तरह अपराधी का मानवीकरण करती है? यह भी एक नज़रिया है जिससे मैं असहमत हूँ. उसकी निर्पेक्षता मेरे भीतर और ज़्यादा सिहरन भर देती है. यह अहसास कि एक भयानक अपराधी भी कितने ही मामलों में ठीक हमारे जैसा है, उसके और हमारे बीच की दूरी एकदम कम कर देता है. और सच्चाई यह है कि इस दूरी के मिटने से ज़्यादा डरावना किसी भी ’सभ्य समाज’ के नागरिक के लिए कुछ और नहीं हो सकता.
Tabloid
Errol Morris, USA, 2010.
यह संयोग ही था कि हम एरॉल मोरिस की डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ’टैबलॉयड’ देखने घुसे. और यह फ़िल्म तुरंत इस साल देखे गए कुछ दुर्लभ वृत्तचित्रों की लम्बी होती लिस्ट में शामिल हो गई. बहुत की रोचक अंदाज़ और आर्ट डिज़ाइन के साथ बनाई गई इस फ़िल्म की असल तारीफ़ इस बात में छिपी है कि निर्देशक ने कैसे मामूली से दिखते एक ’अखबारी कांड’ में इस गैर-मामूली फ़िल्म को देखा और बनाया. कैसे किसी की व्यक्तिगत ज़िन्दगी को मौका आने पर पीत-पत्रकारिता सरेराह उछालती है और खुद ही न्यायाधीश बन फ़ैसले करती है. और ब्रिटेन के टैबलॉयड जर्नलिज़्म को समझने के लिए यह फ़िल्म दस्तावेज़ सरीख़ी है. इसके तीस साल पुराने घटनाचक्र में आप आज बन्द हुए ’न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड’ की तमाम कारिस्तानियाँ सुन सकते हैं.
17 Girls
Muriel Coulin and Delphine Coulin, France, 2011.
ये कुछ ऐसा था जैसे सत्रह लड़कियाँ आकर हमारे समाज से अपना शरीर, उस पर उनका अपना हक़ हमसे वापस मांगे. दोनों निर्देशक बहनों ने फ़िल्म से पहले आकर बताया था कि यह घटना भले ही कहीं और घटी और उन्होंने इसका ज़िक्र उड़ता हुआ अखबार के किसी पिछले पन्ने पर पढ़ा था, लेकिन कहानियाँ वे अपने घर, अपने कस्बे की ही सुनाती हैं. कैसे खुद उनके लड़कपन उन सीखों से भरे हुए थे जो लड़कियों को हमारे इन ’सभ्य’ समाजों में विरासत में मिलती हैं और कैसे वे नया जानने की, कुछ कर गुज़रने की बेचैनी से भरी थीं.
मेरी राय में ’17 गर्ल्स’ के कथाकेन्द्र में मौजूद ’गर्भधारण’ सिर्फ़ एक कथायुक्ति भर है. इसकी जगह कोई और युक्ति भी होती, अगर इतनी ही कारगर तो भी यह कथा संभव थी. क्योंकि यह मातृत्व के बारे में नहीं है. न ही यह सेक्स लिबरेशन जैसे किसी विचार के बारे में है. दरअसल यह कथा सामूहिकता के बारे में है. उस युवता के बारे में है जो जब साथ होती है तो दुनिया बदलने की बातों वाले किस्से अच्छे लगते हैं, सच्चे लगते हैं. आकाश के सितारे कुछ और पास लगते हैं. हमउमर साथ खड़े होते हैं, बाहें फ़ैलाते हैं और एक दूसरे को अपनी बाहों में समेट लेते हैं. बस, फिर किसी और पीढ़ी की, उनकी सीखों की, उनकी समझदारियों की ज़रूरत नहीं रहती. अजीब लगेगा, लेकिन इस फ़िल्म को देखते हुए मुझे भगतसिंह और उनके साथी याद आते हैं. उनकी तरुणाई और उनके अदम्य स्वप्न याद आते हैं. आज यह ’व्यक्तिगत ही राजनैतिक’ है वाला ज़माना है और इन लड़कियों की आँखों में भी मुझे वही सुनहले सपने दिखाई देते हैं.
दर्जन से ज़्यादा किशोरवय लड़कियों का सामुहिक गर्भधारण का यह फ़ैसला उनके घरवालों को, स्कूल को हिला देता है. उनके लिए इसे समझ पाना मुश्किल है. वाजिब है, उन्हें ’नैतिकता’ खतरे में दिखाई देती है. लेकिन उन लड़कियों के लिए यह मृत्यु ज्यों शान्ति से भरे उस कस्बे के ठंडे पानी में एक पत्थर मारने सरीख़ा है. यह उन तमाम परम्पराओं का अस्वीकार है जिन्हें हमारे स्कूलों में बड़े होते नागरिकों पर एक अलिखित ’नैतिक शिक्षा’ के नाम पर थोपा जाता है. एक पिता के झिड़ककर कहने पर कि “तुम्हें क्या लगता है तुम दुनिया बदल सकती हो?” उसकी बेटी जवाब में कहती है, “कम से कम हम कोशिश तो कर ही सकती हैं.”
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साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के दिसम्बर अंक में प्रकाशित
Pina
“रस भी अर्थ है, भाव भी अर्थ है, परन्तु ताण्डव ऐसा नाच है जिसमें रस भी नहीं, भाव भी नहीं. नाचनेवाले का कोई उद्देश्य नहीं, मतलब नहीं, ’अर्थ’ नहीं. केवल जड़ता के दुर्वार आकर्षण को छिन्न करके एकमात्र चैतन्य की अनुभूति का उल्लास!” – ’देवदारु’ से.
जब Pina Bausch के नर्तकों की टोली रंगमंच की तय चौहद्दी से बाहर निकल शीशे की बनी ख़ाली इमारतों, फुटपाथों, सार्वजनिक परिवहन, कॉफ़ी हाउस और औद्योगिक इकाइयों को अपनी काया के छंद की गिरफ़्त में ले लेती है, मुझे आचार्य द्विवेदी याद का निबंध ’देवदारु’ याद आता है. यह जीवन रस का नृत्य रूप है. आचार्य द्विवेदी के शब्दों में, यह नृत्य ’जड़ता के दुर्वार आकर्षण को छिन्न’ करता है. निरंतर एक मशीनी लय से बंधे इस समय में किताबों की याद, कविताओं की बात, कला का आग्रह.
कॉफ़ी हाउस की अनगिनत कुर्सियों के बीच अकेले खड़े दो प्रेमी एक-दूसरे को बांहों में भर लेते हैं. लेकिन व्यवस्था का आग्रह है कि उनका मिलन तय सांचों में हो. उनके प्रतिकार में छंद है, ताल है, लय है. यहाँ नृत्य जन्म लेता है. पीना बाउश के रचे नृत्यों में विचारों का विहंगम कोलाहल है. उनके रचना संसार में मनुष्य प्रकृति का विस्तार है. इसलिए उनके नृत्यों में यह दर्ज कर पाना बहुत मुश्किल है कि कहाँ स्त्री की सीमा ख़त्म होती है और कहाँ प्रकृति का असीमित वितान शुरु होता है.
वे नाचते हैं. नदियों में, पर्बतों पर, झरनों के साथ. वे नाचते हैं. शहर के बीचोंबीच. जैसे शहर के कोलाहल में राग तलाशते हैं. यह रंगमंच की चौहद्दी से बाहर निकल शहर के बीचोंबीच कला का आग्रह आज के इस एकायामी बाज़ार में खड़े होकर विचारों के बहुवचन की मांग है.
Wim Wenders का वृत्तचित्र ’पीना’ सिनेमाई कविता है. किसी तरुण मन स्त्री की कविता. उग्र, उद्दाम, उमंगों से भरी.
वीडियोवाला
“हमारी फ़िल्में यहाँ आएंगी. जब भी हम अच्छी फ़िल्में बनायेंगे, वो आएंगी. ऐसा नहीं है कि हमारे मुल्क में अच्छे फ़िल्मकार नहीं हैं. असली वजह है निर्माताओं का न होना. मान लीजिए मैं कोई फ़िल्म बनाना चाहता हूँ. लेकिन योजना बनते ही बहुत सारी चिंताएं उसके साथ पीछे-पीछे चली आती हैं. कैसे बनेगी, पैसा कहां से आएगा, पैसा वापस आएगा कि नहीं. यही सब लोगों के कदम पीछे ले जाता है. सच्चे अर्थों में जिसे स्वतंत्र सिनेमा कहा जा सके, ऐसा सिनेमा तो हमारे देश में बस अभी बनना शुरु ही हुआ है. ऐसी फ़िल्में जिन्हें बहुत ही कम निर्माण लागत पर बनाया जा रहा है. लेकिन अभी तो यह फ़िल्में भी निर्माताओं और वितरकों तक नहीं पहुँच पा रही हैं. एक डॉक्यूमेंट्री ’वीडियोकारन’, जो आजकल हिन्दुस्तान में इंटरनेट पर चर्चा का विषय बनी हुई है, सिर्फ़ इसलिए प्रदर्शित नहीं हो पा रही क्योंकि उसके निर्देशक के पास उसमें दिखाई गई दूसरी फ़िल्मों के कुछ अंशों के अधिकार खरीदने के पैसे नहीं हैं. वो डॉक्यूमेंट्री हिन्दी सिनेमा के बारे में कहीं बेहतर बयान है और अगर आप सच में ’बॉलीवुड’ के बारे में बात करना चाहते हैं तो वही फ़िल्म है जिसे इस फ़ेस्टिवल (कांस) में दिखाया जाना चाहिए.”
— भूमध्यसागर के किनारे अनुपमा चोपड़ा के साथ बातचीत के दौरान अनुराग कश्यप.
“बीते सालों में हिन्दी सिनेमा में आया सबसे बड़ा बदलाव क्या है?”
अलग-अलग मंचों पर मुझसे यह सवाल कई बार पूछा गया है. लेकिन इसका कोई तैयार जवाब मेरे पास कभी नहीं रहा. ऐसा भी हुआ कि कई बार मैं तलाश में भटकता रहा. मंज़िल के पास से निकल गया और जिसकी चाहत थी उसकी परछाई भर दिखाई दी. क्या इसका कोई ’एक’ जवाब संभव है या फिर यह भी उन्हीं ’बहुवचन’ वाले जवाबों की फ़ेरहिस्त में आता है?
फिर एक दिन मैंने ’वीडियोकारन’ देखी. हिन्दी अनुवाद करूँ तो “वीडियोवाला”. जी हाँ, यही नाम है जगन्नाथन कृष्णन की बनाई डॉक्युमेंट्री फ़िल्म का. जैसा नाम से कुछ अंदाजा होता है, पहली नज़र में यह फ़िल्म एक रेखाचित्र खींचती है किरदार सेगई राज का. सेगई राज याने हमारा नायक, हमारा ’वीडियोवाला’. लेकिन सिर्फ़ इतना कहने से बस फ़िल्म का एक सिरा भर पकड़ में आता है. असल में सेगई राज की कहानी हमारे हिन्दुस्तानी सिनेमा को समझने के लिए एक ’माइक्रोकॉस्म’ का काम करती है. एक ऐसा प्रिज़्म जिसके सहारे हमारे सतरंगी मुख्यधारा सिनेमा के सातों रंग अलग चमकते देखे जा सकते हैं. धूसर भी, चमकीले भी. लेकिन साथ ही यह फ़िल्म उस आधारभूत परिवर्तन के ऊपर भी हाथ रखती है जिससे हिन्दी सिनेमा मेरे जीवनकाल में गुज़रा है. ऐसा परिवर्तन जिसके दुष्प्रभाव किसी गहरी खरोंच की तरह हिन्दी सिनेमा के चेहरे पर नज़र आ रहे हैं.
सेगई की कहानी अस्सी के दशक में हिन्दुस्तान के शहरों से लेकर धुर देहातों तक आई वीडियो क्रांति के बीच जन्म लेती है. ऐसा समाज जहाँ सिनेमा रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा है. सेगई बड़ा होकर खुद अपना वीडियो पार्लर खोलता है. जनता की मर्जी की फ़िल्में चलाता है, उन्हें पब्लिक की डिमांड के अनुसार बदलता है और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें मनमाफ़िक एडिट भी करता है. और फिर इसी दुनिया में उस वीडियो पार्लर को बुलडोज़र से टूटते भी देखता है. और यह सब कहानियाँ हम खुद सेगई के मुँह से ही सुन रहे हैं. सेगई बात करता जाता है और हम जानते हैं कि सेगई ने अपनी ज़िन्दगी के कुछ सबसे ज़रूरी पाठ उस सिनेमा से सीखे हैं जिसे हम समझदार दर्शक ’नकली, अयथार्थवादी, महा’ कहकर खारिज कर देते हैं. यह शहर के हाशिए पर आबाद एक ऐसी दुनिया की कहानियाँ हैं जहाँ मौत और ज़िन्दगी के बीच फ़ासला बहुत थोड़ा है.
मेरे पसंदीदा निबंधकार अमिताव कुमार अपने नए निबंध में लिखते हैं कि असल में वे खुद एक ऐसे गणतंत्र के नागरिक हैं जिसे हिन्दी के मुख्यधारा सिनेमा ने रचा है. मेरी नज़र में यह एक ऐसी आँखों से ओझल सच्चाई है जिसे हमारे मुल्क के सिनेमा समाज की सबसे आधारभूत विशेषता माना जाना चाहिए. एतिहासिक रूप से हमारा सिनेमा उसे देखने वाले एक बड़े वर्ग के लिए सिर्फ़ सिनेमा भर नहीं. यह उनकी ज़िन्दगी की मुख्य संरचना है, बहुत बार जिसके आगे असलियत धुंधली पड़ जाती है. सेगई राज इसी दुनिया का प्रतिनिधि चरित्र है. बातूनी, आत्मविश्वास से भरा और खुशमिजाज़. अद्भुत तर्क श्रंखला से बनते उसके जवाब सिनेमा की नई व्याख्याएं हमारे सामने खोलते हैं. फ़िल्म के एक शुरुआती प्रसंग में अमिताभ और रजनीकांत के दो प्रशंसकों के आपसी तर्क-वितर्क हमें हिन्दी सिनेमा और तमिल सिनेमा में पाए जाने वाले नायकत्व के उन भेदों से परिचित कराते हैं जिसे साबित करने के लिए कई मोटे अकादमिक अध्ययन नाकाफ़ी साबित हों. रेल की पटरियों के सहारे चलती इन हाशिए की ज़िन्दगियों में सिनेमा उस ’लार्जर-दैन-लाइफ़’ इमेज को घोलता है जिसे आप और मैं फ़र्जी कहते हैं, खारिज करते हैं.
सेगई सिर्फ़ दसवीं तक पढ़ा है. उसके दोस्तों में सबसे ज़्यादा. लेकिन वो आपको बता सकता है कि किसी नई रजनीकांत फ़िल्म के सिनेमाहाल में लगने पर पहले दिन के पहले, दूसरे, तीसरे शो की अलग-अलग ब्लैक टिकट रेट क्या होगी. या फिर यह कि थाईलैंड का कौनसा हीरो चेंबूर के इलाके में ’छोटा ब्रूस ली’ के नाम से जाना जाता है. या फिर यह कि तमिल सिनेमा में हीरो जब भी नाचता है तो उसके पीछे हमेशा पचास-साठ आदमियों की फ़ौज क्यों होती है. और यह भी कि पुलिस जब रिमांड पर लेकर ’थर्ड डिग्री’ का इस्तेमाल करे तो उससे बचने के लिए कौनसा तरीका सबसे कारगर है. सारे जवाब तार्किक (बेशक तर्क प्रणाली उसकी अपनी है) हैं और सबसे मज़ेदार बात यह है कि सारे जवाब उसने सिनेमा देखकर कमाए हैं. समझने की बात यह है कि हमारे लिए सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन का माध्यम हो सकता है लेकिन जिस समाज ने अपने जीने के तरीके इसी सिनेमा से कमाए हों, उसके लिए यह सिनेमा कहीं ज़्यादा बड़ी चीज़ है. और ऐसा इसलिए क्योंकि हमने समाज के इस बहुमत को वैधानिक तरीकों से ज़िन्दगी जीने का हक कभी दिया ही नहीं. पानी, बिजली, घर, नौकरी सभी कुछ तो हमारा रहा. जो और जितना कभी उनके हाथ आया भी, उसे हम संस्थागत तरीके से छीनते गए.
और अब हम बड़े ही संस्थागत तरीके से उनका मनोरंजन छीन रहे हैं. यह वीडियोक्रांति अब पुराने ज़माने की बात है. सेगई का वीडियो पार्लर भी बड़े ही संस्थागत तरीके से बुलडोज़र के नीचे कुचला गया और अब सेगई अपना फ़ोटो स्टूडियो चलाता है. अब भी याद करता है उन दिनों को जब वीडियो पार्लर था, दोस्तों का साथ था, रजनीकांत की फ़िल्में थीं.
मेरे सवाल का जवाब यहीं है. बीते सालों में हिन्दी सिनेमा में आया सबसे बड़ा बदलाव उसकी बदलती दर्शक दीर्घा में छिपा है. यह अपने आप में एक अद्भुत उदाहरण होगा जिसमें जनता की पसंद पर निर्भर एक उद्योग खुद अपना नाता जनता के बहुमत से काट लेना चाहता है. हिन्दी सिनेमा एक निरंतर चलते सचेत प्रयास के तहत अपने सबसे बड़े दर्शक वर्ग को अपने से बेदखल करने पर तुला हुआ है. हर दूसरे शहर में सिंगल स्क्रीन सिनेमाहाल बंद हो रहे हैं. पिछले महीने मेरे बड़े भाई ने फ़ेसबुक पर खबर दी कि उदयपुर का सबसे मशहूर ’चेटक’ सिनेमाहाल बंद हो गया. मैं आज जो कुछ सिनेमा पर लिखता-पढ़ता हूँ उसकी प्राथमिक कक्षा यही ’चेटक’ सिनेमाहाल था जिसके रात के नौ से बारह वाले शो में हमने मार तमाम फ़िल्में देखीं. आज यहाँ जयपुर में देखा कि मालिक लोग ’मोतीमहल’ को शादी-पार्टी के लिए किराए पर चलाने लगे हैं. बचपन में इस सिनेमाहाल के आगे निकली कांच की दीवार मुझे अंदर चलती फ़िल्म से भी ज़्यादा आकर्षित करती थी. आज उसमें दूर से ही सुराख़ नज़र आ रहे थे. इधर मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म के टिकटों की बढ़ती कीमतें हमें किसी दूसरी पीढ़ी की ’रियलिटी बेस्ड साइंस फ़िक्शन’ फ़िल्म में होने का अहसास करवाती हैं. मेरे शहर का एक मल्टीप्लैक्स आजकल फ़िल्म दिखाने के 950 रुपए लेता है. मुझे शक है कि कहीं उस मल्टीप्लैक्स में फ़िल्म का अंत दर्शक की मर्ज़ी पूछकर तो नहीं किया जाता? “आज हीरोइन को चाहने वाले बहुत हैं, उसका मरना कैंसल. उसके बजाए क्लाईमैक्स में माँ को मार दो.” टाइप कुछ?
अरे, आप हँस रहे हैं? सच मानिए, आज ज़्यादा बड़ा डर यह है कि जिस मज़ाक पर आज हम हँस रहे हैं कल कहीं वो सच्चाई न बन जाए. यह मानना कि सिनेमा का दर्शक वर्ग बदलना उसके कथ्य पर कोई असर नहीं डालेगा, अंधेरे में जीना है. हिन्दी सिनेमा की लोकप्रियता उसे ज़्यादा जनतांत्रिक बनाती है, आम आदमी के ज़्यादा नज़दीक लेकर आती है. और यह नया बदलाव उस विशेषता को ही छीन रहा है. मल्टीप्लैक्स में ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमाकर हमारा सिनेमा धनवान तो हो सकता है, समृद्ध नहीं.
यही कोई तकरीबन छ महीने पहले ’रवीश की रिपोर्ट’ वाले हमारे रवीश ने अपने ब्लॉग ’कस्बा’ पर एक दिलचस्प पोस्ट लगाई थी. शीर्षक था, “दस रुपए का चार सिनेमा”. दिल्ली की किसी पुनर्वास कॉलोनी में चलते एक वीडियो पार्लर पर. जगह का नाम उन्होंने नहीं बताया था नहीं तो अगले दिन पुलिस का छापा इस ’जनतांत्रिक जुगाड़’ को भी बंद करवा देता. सिर्फ़ एक सिफ़ारिश की थी, “आम आदमी को बाज़ार से निकाल कर बाज़ार बनाने वालों को समझ आनी चाहिए कि उनका सिनेमा मल्टीप्लेक्स से बेआबरू होकर उतरता है तो इन्हीं गलियों में मेहनत की कड़ी कमाई के दम पर सराहा जाता है. सरकार को कम लागत वाले ऐसे सिनेमा घरों को पुनर्वास कालोनियों में नियमित कर देना चाहिए. टैक्स फ्री.”
यहीं दो बातें उस ’रवीश की रिपोर्ट’ पर भी जिसे चैनल ने एक प्रशासनिक फ़ैसले के तहत बंद कर दिया है. ’रवीश की रिपोर्ट’ को हमारे टेलीविज़न न्यूज़ के निर्धारित मानकों पर परखना मुश्किल है. ऐसी रिपोर्ट जिसमें पत्रकार खुद अपनी समूची पहचान के साथ खबर में शामिल हो जाए, बहुत को अखर सकती है. इसीलिए मेरा हमेशा से मानना रहा है कि ’रवीश की रिपोर्ट’ को डॉक्युमेंट्री सिनेमा के मानदंडों पर परखा जाना चाहिए. हर आधे घंटे के एपीसोड में बाकायदा कथाधारा रचने वाले रवीश किसी वृत्तचित्र निर्देशक की तरह हैं. और उनके कथासूत्र भी शहर के उसी हाशिए से आते हैं जिन्हें हम उसके असली रूप में पहचानते तक नहीं. जिस दिल्ली शहर में रहते, पढ़ते मुझे छ साल हुए, रवीश उसी शहर से मेरा परिचय करवाते हैं, जैसे पहली बार. मेरे घर के आगे छोले-कुलचे बेचने वाला, मेरी फ़ैकल्टी के किनारे चाय का खोमचा लगाने वाला, वो कुम्हार जिससे मैं गर्मियों की शुरुआत में छोटी सुराही खरीद लाया हूँ. क्या मैं इन्हें पहचानता हूँ. नहीं. सच यह है कि मैं इनके केवल उसी रूप को पहचानता हूँ जिसे धरकर ये मेरे सामने उपस्थित होते हैं. शहर की किस खोह से निकलकर यह मेरे सामने आते हैं और शाम ढलते ही किस खोह में वापस समा जाते हैं, यह मैं कभी न जान पाता अगर ’रवीश की रिपोर्ट’ उस अंधेरी खोह में प्रवेश न करती. मायापुरी, लोनी बॉर्डर, कापसहेड़ा, नई सीमापुरी, गांव खोड़ा, नाम अनगिनत हैं.
रवीश हमारे ही शहर में मौजूद लेकिन अपरिचित होती गई इन दुनियाओं के हर पहलू को खोलते हैं. इसमें मनोरंजन से बेदखल किए जाते रेहड़ी-खोमचे वालों की वो दुनिया है जिसके बारे में हमने कभी सोचा ही नहीं. मुख्यधारा सिनेमा से बेदखल किए जाने पर यह जनता का बहुमत तो अपने लिए कोई नया रास्ता खोज लेगा, लेकिन इस बहुमत के बिना हमारा सिनेमा क्या अपना मूल चरित्र बचा पाएगा. सेगई की दुनिया में और रास्ते हैं, अगर न भी हुए तो वो नए रास्ते बनाएगा. सवाल अब हमारे सामने है और उसका कोई माकूल जवाब अब हमें खोजना है.
सेगई कभी मिलेगा तो बताऊँगा उसे. उस लड़कपन में उलझे शाहरुख के बाद ऐसा भावप्रवण और पारदर्शी चेहरा उसका ही देखा है मैंने. सेगई, मेरा हीरो तो अब तू ही है रे.
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’वीडियोकारन’ से हमारा परिचय करवाने का श्रेय मेरी ज़िन्दगी के ’रतन बाबू’ वरुण ग्रोवर को जाता है. वही थे जो किसी रैंडम फ़ेसबुक मैसेज पर इस फ़िल्म का प्रोमो देख इसकी पब्लिक स्क्रीनिंग में पहुँचे थे और हमें यह खज़ाना मिला. वरुण की लिखी फ़िल्म से जुड़ी आधारभूत पोस्ट आप यहाँ पढ़ सकते हैं. तमाम जानकारियाँ भी यहाँ उपलब्ध हैं. वे और उनके साथी मिलकर इस फ़िल्म को और आगे पहुँचाने की कोशिशों में लगे हैं. कोशिश यह भी है कि इसे इंटरनेट पर उपलब्ध करवाया जा सके. जैसे ही कोई इंतज़ाम हो पाएगा, हम अपने ब्लॉग पर इस बाबत सूचना देंगे. और तब तक चाहनेवाले इस बाबत मुझे परेशान कर सकते हैं.
(साहित्यिक पत्रिका ’कथादेश’ के जुलाई अंक में प्रकाशित)
बुला रहा है कोई मुझको, लुभा रहा है कोई.
बात पुरानी है, नब्बे का दशक अपने मुहाने पर था. अपने स्कूल के आख़िरी सालों में पढ़ने वाला एक लड़का राजस्थान के एक छोटे से कस्बे में कैसेट रिकार्ड करने की दुकान खोलकर बैठे दुकानदार से कुछ अजीब अजीब से नामों वाले गाने माँगा करता. जो उम्मीद के मुताबिक उसे कभी नहीं मिला करते. दुकानदार उसे गुस्सैल नज़रों से घूरता. इंडियन ओशियन और यूफ़ोरिया को मैं तब से जानता हूँ. उसे जयपुर शहर में (जहाँ वो अपनी छुट्टियों में जाया करता) अजमेरी गेट के पास वाली एक छोटी सी गली बहुत पसन्द थी. इसलिए क्योंकि ट्रैफ़िक कंट्रोल रूम ’यादगार’ से घुसकर टोंक रोड को नेहरू बाज़ार से जोड़ने वाली यह गली उसे उसकी पसन्दीदा तीन चीज़ें देती थी. एक – क्रिकेट सम्राट, दो – इंडियन ओशियन और यूफ़ोरिया की ऑडियो कैसेट्स और तीसरी गुड्डू की मशीन वाली सॉफ़्टी. और अगर कभी वो जयपुर न जा पाता तो वो अपनी माँ के जयपुर से लौटकर आने का इंतज़ार करता. और उसकी माँ उसे कभी निराश नहीं करतीं.
कितने दूर निकल आए हैं हम अपने-अपने घरों से. कल ओडियन, बिग सिनेमास में जयदीप वर्मा की बनाई ’लीविंग होम – लाइफ़ एंड म्यूज़िक ऑफ़ इंडियन ओशियन’ देखने हुए मुझे यह अहसास हुआ. ’लीविंग होम’ देखते हुए मैंने यह लम्बा सफ़र एक बार फिर से जिया. (और फ़िल्म के इंटरवल में आए ’वीको टरमरिक’ के विज्ञापन तो इसमें असरदार भूमिका निभा ही रहे थे!) और सच मानिए, मैं उल्लासित था. पहली बार अपने बीते कल को याद कर नॉस्टैल्जिक होते हुए भी मैं उदास बिलकुल नहीं था, प्रफ़ुल्लित हो रहा था. और यह असर था उस संगीत का जिसे सुनकर आप भर उदासी में भी फिर से जीना सीख सकते हैं. सीख सकते हैं छोड़ना, आगे बढ़ जाना. सीख सकते हैं भूलना, माफ़ करना. सीख सकते हैं खड़े रहना, आख़िर तक साथ निभाना.
’लीविंग होम’ किरदारों की कहानी नहीं है. यह उन किरदारों द्वारा रचे संगीत की कहानी है. इंडियन ओशियन के द्वारा रचित हर गीत का अपना व्यक्तित्व है, अपना स्वतंत्र अस्तित्व है. इसीलिए फ़िल्म के लिए नए लेकिन बिलकुल माफ़िक कथा संरचना प्रयोग में निर्देशक जयदीप वर्मा इसे इंडियन ओशियन की कहानी द्वारा नहीं, उनके द्वारा रचे गीतों की कहानी से आगे बढ़ाते हैं. तो यहाँ जब ’माँ रेवा’ की कहानी आती है तो हम उस गीत के साथ नर्मदा घाटी के कछारों पर पहुँच जाते हैं और उस लड़के की शुरुआती कहानी से परिचित होते हैं जिसे आज पूरी दुनिया राहुल राम के नाम से जानती है. ’डेज़र्ट रेन’ की कहानी के साथ सुश्मित की कहानी खुलती है जो हमेशा से इंडियन ओशियन का आधार स्तंभ रहा है. ’कौन’ की कहानी एक नौजवान कश्मीरी लड़के की कहानी है. एक पिता हमें बात बताते हैं उन दिनों की जब एक पूरी कौम को उनके घर से बेदखल कर दिया गया था. और इसीलिए जब अमित किलाम कहते हैं कि मैं इसीलिए शुक्रगुज़ार हूँ भगवान का कि इतना सब होते हुए भी मेरे भीतर कभी वो साम्प्रदायिक विद्वेष नहीं आया, हमें भविष्य थोड़ा ज़्यादा उजला दिखता है. आगे जाकर ’झीनी’ की कथा है और अशीम अपने बचपन के दिनों के अकेलेपन को याद करते धूप के चश्मे के पीछे से अपनी नम आँखें छुपाते हैं. सुधीर मिश्रा कहते हैं कि अशीम को सुनते हुए मुझे कुमार गंधर्व की याद आती है. संयोग नहीं है कि इन दोनों ही गायकों ने कबीर की कविता को ऐसे अकल्पनीय क्षेत्रों में स्थापित किया जहाँ उनकी स्वीकार्यता संदिग्ध थी. निर्गुण काव्य की ही तरह, इंडियन ओशियन भी एक खुला मंच है संगीत का. जहाँ विश्व के किसी भी हिस्से के संगीत की आमद का स्वागत होता है.
यह फ़िल्म डॉक्यूमेंट्री के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण एंगल के साथ आई है. आमतौर पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में मूलत: अपने निर्देशक के दिमाग में आए एक अदद ख़पती विचार की उपज होती हैं. और ऐसे में निर्देशक ही कहानी को विभिन्न तरीकों से आगे बढ़ाते हैं. लेकिन ’लीविंग होम’ की ख़ास बात है कि निर्देशक यहाँ सायास लिए गए फ़ैसले के तहत खुद पीछे हट जाता है और अपनी कहानी को बोलने देता है. न ख़ुद बीच में कूदकर कथा सूत्र को आगे बढ़ाने की कोई कोशिश है और न ही कोई वॉइस-ओवर. यहाँ तक की व्यक्तिगत बातचीत भी इस तरह एडिट की गई है कि सवाल पूछने वाला कभी नज़र नहीं आता. बेशक यह सायास है. जैसा दिबाकर बनर्जी की हालिया फ़िल्म में एक किरदार का संवाद है, “डाइरेक्टर को कभी नहीं दिखना चाहिए, डाइरेक्टर का काम दिखना चाहिए.” जयदीप वर्मा का काम बोलता है.
हाँ, एक छोटी सी नाराज़गी भी है मेरी. जिस तरह शुरुआत में फ़िल्म दिल्ली की सड़कों पर आम आदमी की तरह घूमती, उसकी नज़र से शहर को देखती करोलबाग की ओर बढ़ती है, वह मुझे बाँध लेता है. इंडियन ओशियन से हमारी पहली मुलाकात होती है. लेकिन फिर फ़िल्म के शुरुआती हिस्से में ही हम दिल्ली के कई नामी चेहरों को इंडियन ओशियन की तारीफ़ करते (जैसे उन्हें सर्टिफ़िकेट देते) देखते हैं. उनमें से कई बाद में फ़िल्म में लौटकर आते हैं, कई नहीं. यह शुरुआती मिलना-मिलाना मुझे अखरा. हम इंडियन ओशियन को सीधे जानना ज़्यादा पसन्द करेंगे (या कहें जानते हैं) या फिर उनके संगीत के माध्यम से, जो आगे फ़िल्म करती है. न कि किसी और ’सेलिब्रिटी’ के माध्यम से. इंडियन ओशियन को अपने चाहने वालों के बीच (जो इस फ़िल्म के संभावित दर्शक होने हैं) आने के लिए मीडिया या सिनेमा के सहारे की कोई ज़रूरत नहीं है. हो सकता है शायद यह उन लोगों को फ़िल्म से जोड़ने का एक प्रयास हो जो सीधे इंडियन ओशियन के संगीत से नहीं बँधे हैं. अगर ऐसा है तो मैं भी इस प्रयोग के सफल होने की पूरी अभिलाषा रखता हूँ. लेकिन एक पुराना इंडियन ओशियन फ़ैन होने के नाते फ़िल्म की ठीक शुरुआत में हुए इस ’सेलिब्रिटी समागम’ पर मैं अपनी छोटी सी नाराज़गी यहाँ दर्ज कराता हूँ.
फ़िल्म की जान हैं वो लाइव रिकॉर्डिंग्स जिन्हें यह फ़िल्म अपने मूल कथा तत्व की तरह बीच-बीच में पिरोए हुए है. सिनेमा हाल में इस संगीत के मेले का आनंद उठाने के बाद इन्हीं रिकॉर्डिंग्स की वजह से अब मैं इस फ़िल्म की अनकट डीवीडी के इंतज़ार में हूँ. सच है कि इंडियन ओशियन का संगीत ऐसे ही अच्छा लगता है. अपने मूल रूम में, बिना किसी मिलावट, एकदम रॉ. मैं वापस आकर अपनी अलमारी में से उनकी दो पुरानी ऑडियो कैसेट्स निकालता हूँ, धूल पौंछकर उनमें से एक को अपने कैसेट प्लेयर में डालता हूँ. अब कमरे में ’डेज़र्ट रेन’ का संगीत गूँज रहा है. मैं बत्ती बुझा देता हूँ. कुछ देर से बाहर मौसम ने अपना रुख़ पलट लिया है. मैं खिड़की पूरी खोल देता हूँ. बारिश…
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जयदीप सिर्फ़ कमाल की फ़िल्में ही नहीं बनाते हैं, वे लिखते भी कमाल का हैं. इस फ़िल्म की सम्पूर्ण कथानुमा यात्रा आप तीन पोस्टों में – पहली यहाँ, दूसरी यहाँ और तीसरी यहाँ पढ़ सकते हैं. मेरी पोस्ट की तरह यह भी फ़िल्म देखने के बाद पढ़ेंगे तो और मज़ा आएगा. फ़िल्म कनॉट प्लेस के ओडियन में चल रही है और ऐसे ही शायद पांच-छ शहरों के कुछ चुनिंदा सिनेमाघरों में. और कम से कम इस हफ़्ते तो है ही.