in films

स्त्री = इज्ज़त

स्त्री की इज्ज़त = परिवार की इज्ज़त

परिवार की इज्ज़त = समुदाय की इज्ज़त

इस तरह के सूत्रों के सहारे हमारे समाज में ‘व्यवस्था’ की स्थापना की जाती है अौर कई बार इनके सहारे ही समाज में स्त्री के सम्मान का बख़ान भी किया जाता है. लेकिन साम्प्रदायिक हिंसा के हर दौर में यही सूत्र एक विध्वंसक पलटवार करता है. यहाँ विरोधी समुदाय की ‘इज्ज़त’ लूटने का सबसे सीधा अौर अासान ज़रिया समुदाय की स्त्री पर हमला बन जाता है. साम्प्रदायिक हिंसा का यौनिक विश्लेषण बताता है कि इस हिंसा की एक बड़ी वजह उसी सम्मानित सूत्र में छिपी है जिसमें स्त्री बराबरी पर खड़ी सामान्य इंसान न रहकर वंश की, समुदाय की ‘इज्ज़त’ का पर्याय बन जाती है. कभी वोदूसरे समुदाय का ‘शीलभंग’ करने के लिए मारी जाती है,तो कभी वो अपने ही पिता-भाई-बेटे द्वारा स्वयं के अौर समुदाय के ‘सम्मान की रक्षा’ के नाम पर क़त्ल की जाती है, अौर उस हत्या को ‘शहीद’ से लेकर ‘जौहर’ तक न जाने कितने नाम दिये जाते हैं. समानता एक ही है, कि होती वो हमेशा अौरत ही है.

Qissa

अनूप सिंह की पँजाबी फिल्म ‘किस्सा’ के पहले ही दृश्य में हम बँटवारे के ठीक पहले के पाकिस्तानी हिस्से वाले पँजाब में बसे एक ऐसे गाँव से मुख़ातिब हैं जिसने इसी सामुदायिक ‘इज़्ज़त’ की रक्षा के लिए गाँव की तमाम स्त्रियों का तात्कालिक परित्याग कर दिया है. अपनी ही नहीं, ‘समुदाय की इज़्ज़त’ की रक्षा के लिए गाँव के बाहर किसी रेगिस्तानी टीले के पीछे छिपी इन स्त्रियों में एक सरदार अम्बेर सिंह (इरफ़ान ख़ान) की गर्भवती पत्नी (टिस्का चोपड़ा) भी है, जिसने उसी अंधेरी रात संतान को जन्म दिया है. सुबह जब गाँव के मर्द वापस अाते हैं, अम्बेर सिंह यह जानकर कि लड़की हुई है, उसका मुँह देखे बिना ही वापस लौट जाते हैं. अम्बेर पिता है, लेकिन उससे पहले वो पुरुष है. अौर यह पुरुष की अपना वंश बढ़ता देखने की चाह भर नहीं. यह बँटवारे के वीभत्स हिंसा वाले दौर में ‘रक्षक’ की चाह है, अौर समाज की मानक व्यवस्था यह तय करती है कि वो रक्षक सिर्फ अौर सिर्फ ‘पुरुष’ ही होगा.

‘क़िस्सा’ बँटवारे को सीधे नहीं दिखाती, बल्कि यह उस मानसिकता से गुत्थमगुत्था होती है जिसे बँटवारे अौर उसमें हुए वृहत जनसंहार की स्याह स्मृतियाँ गढ़ती हैं. पूरी-की-पूरी अाबादी के मानस पटल पर दूर तक, सालों-दशकों तक अंकित रही अबोली स्मृतियाँ. अौर कैसे यह स्मृतियाँ पुरुष के मन में स्त्री का अस्वीकार रचती हैं. यह ‘क़िस्सा’ उस पुरुष मन के बारे में है. ऐसा अस्वीकार जहाँ घर का मुखिया पुरुष स्वयँ अपनी संतान की असल पहचान को स्वीकारने से इनकार कर देता है. विमर्श के स्तर पर ‘क़िस्सा’ जेंडर के कुछ सबसे अाधारभूत सवाल उठाती है. यह नैसर्गिक प्रकृति के विरुद्ध समाज प्रदत्त अनुकूलन को खड़ा करती है अौर विमर्श को उस सिरे तक लेकर जाती है जहाँ अनुकूलन प्रकृति पर हावी हो जाता है.

पिता के अस्वीकार को निभाता, पुरुष के अवतार में बड़ा हुअा कंवर (तिलोत्तमा शोम) शायद इस फ़िल्म का सबसे जटिल अौर हिन्दुस्तानी सिनेमा के परदे पर अाये सबसे दुस्साहसी किरदारों में से एक है. उसका शरीर लड़की का है, लेकिन उसकी परवरिश घर के मुखिया पुरुष की तरह हुई है. उसका द्वंद्व भीतरी है. पहचान अौर समाज के बीच की लड़ाई कंवर जैसे अपने शरीर अौर मन में जी रहा है. अौर शायद यहीं फिल्म का मूल द्वंद्व भी अपने प्रतीक रूप में छिपा है. सिनेमा के दुर्लभ दृश्यों में से एक बनने की संभावना अौर क्षमता रखने वाले एक प्रसंग में यही किरदार पितृसत्ता अौर स्त्री की अात्मपहचान के बीच के जुनूनी संघर्ष का जीता-जागता स्मारक बन जाता है. उसका नग्न शरीर जैसे अपने ही भीतर बसे पुरुष के खिलाफ़ एक ‘बेशरम’ स्त्री द्वारा उठाया गया माँस का झंडा. तिलोत्तमा को इस किरदार के लिए हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतिहास में दूर तक याद रखा जाने वाला है.

‘क़िस्सा’ जैसे सवाल खड़े करती है, शायद हमारी मौजूदा व्यवस्था में उसके तार्किक जवाब संभव नहीं. अौर कहीं यह फिल्मकार की बहाद्दुरी भी है कि वो सुलझे हुए अौर अासानी से पाए जा सकने वाले अन्त की बजाए वह अन्त चुनता है जो इस एक ही समय में मौजूद दो भिन्न मानसिकताअों में फंसे इन्सानी जीवन की जटिलता को ज्यों का त्यों हमारे सामने रखे. जादुई यथार्थवाद का स्पर्श लिए ‘क़िस्सा’ का उत्तरार्ध मुझे दीपा मेहता की ‘हैवन अॉन अर्थ’ की याद दिलाता है, जिसमें एक शेषनाग चाँद के पति का रूप धरकर अाता था अौर जो प्रेम उसे कभी नसीब नहीं हुअा वो उसपर न्योंछावर करता था. ‘क़िस्सा’ में कौन मिथ्या है अौर कौन हक़ीकत, इस बहस को करते हुए हमें यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि स्मृतियाँ अगर समाज की सामूहिक हों तो निर्णय के क्षण वे कई बार जीती-जागती हक़ीकत पर भारी पड़ती हैं.

गौर से देखें तो क़िस्सा का भूत सदा एक ही है, वो पितृसत्तात्मक सोच जो सिर्फ पिता के जाने से जाती नहीं. क्योंकि वह पिता एक सोच बनकर सदा मौजूद है. समाज में, परिवार में अौर खुद कंवर में.  हाँ, नीली (रसिका दुग्गल) अौर कंवर के साथ बिताये पल उस सोच से लोहा लेते हैं. यहीं शायद यह मुश्किल फिल्म कुछ देर को हमें साँस लेने का मौका देती है, संगीत के सप्तम में खूबसूरती उस खंडहर हुए घर में दबे पाँव चली अाती है. लेकिन ‘क़िस्सा’ की दुनिया असुविधाजनक सच्चाई को अोझल नहीं होने देती. हाँ, पुरुषसत्ता है अौर उसे डिगाना मुश्किल है. लेकिन ‘क़िस्सा’ का अन्त यह भी कहता है कि अब अस्वीकार करने की बारी स्त्री की है. चयन अब उसका होगा, चाहे वह अस्वीकार मौत में ही क्यों ना बदा हो.

‘क़िस्सा’ का परिवेश, उसका संगीत, उसकी स्त्रियाँ प्रामाणिक देस अौर काल रचती हैं. उसके अदाकार सिनेमा को ज़िन्दगी जैसा ही दुरूह अौर जीवन्त बनाते हैं. यहाँ गौरव है, धोखा भी. पलायन है, तो भिड़ जाने का दुस्साहस भी. कुछ नष्ट होती कोमलता है तो कहीं साहस के बीज बोये जा रहे हैं. लेकिन सबसे अागे बढ़कर ‘क़िस्सा’ अपने समय अौर समाज के लिए एक दुस्साहसी फिल्म है, ऐसी फिल्म जो निर्भय होकर अपनी कथा बिना किसी समझौते के सुनाती है.

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सर्वप्रथम ‘न्यूज़यैप्स’ वेबसाइट पर प्रकाशित.

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आपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा,आपकी रचना बहुत अच्छी और यहाँ आकर मुझे एक अच्छे ब्लॉग को फॉलो करने का अवसर मिला. मैं भी ब्लॉग लिखता हूँ, और हमेशा अच्छा लिखने की कोशिश करता हूँ. कृपया मेरे ब्लॉग http://www.gyanipandit.org/ पर भी आये और मेरा मार्गदर्शन करें

Zabardast nichod !
gagar me sagar bhara hai Mihir ne, lekin ab ye film kahan se miley dekhne ko?

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