पिछले एक महीने से मैं ख़ामोश हूँ. सिनेमा का पर्दा भी रुका हुआ है. देश की राजनीति भी चुनाव नतीजों के साथ ही तमाम अटकलों के विपरीत और तमाम अप्रत्याशित को धता बताते हुए तयशुदा रास्तों की तरफ़ जा रही है. क्या ये एंटी-क्लाईमैक्स का दौर है? और तो और T20 भी शुरुआती आतिशबाज़ी को लांघते हुए अब धीरे-धीरे गहरे पैठ रही है. कैलिस और कुम्बले आखिर अपनी तय जगह पा रहे हैं और साथ ही धोनी और युवराज अपना नियत स्थान. संगीत में हिमेश रेशमिया का अंधड़ नहीं है और टी.वी. पर केकता कपूर के सास-बहू सीरियलों से आगे की राह तलाशी जा रही है.
क्या यह घटना विहीन दौर है?
फिर इतिहास. बीस के दशक में गांधी ने असहयोग आन्दोलन वापिस लेने के बाद कांग्रेसजनों को अपने-अपने इलाकों में लौट जाने को कहा था. हिन्दुस्तान अभी आज़ादी के लिए तैयार नहीं. साथ ही ये भी कहते हुए कि वही असली रणक्षेत्र है जहाँ से चीज़ें बदलेंगी. दिल्ली से कुछ नहीं बदलता. जाओ, गाँवों में जाओ, देखो कि वहाँ एक गरीब दलित मज़दूर की क्या हालत है. देखो कि इस देश के गाँव-देहातों में आज भी लड़कियों की शिक्षा संभव क्यों नहीं है. जाओ और जो बदलना चाहिए उसे खुद जाकर बदलो. ये चीज़ें राजनीतिक आज़ादी से ज़्यादा ज़रूरी हैं. यही असली आज़ादी हैं. यही वो दौर है जब कुछ नौजवानों ने इस राजनीतिक समर के ठहरे हुए पानी में पत्थर मारने का फैसला किया था और भगत सिंह का जन्म हुआ. यही वो दौर है जब इस देश की दो आधारभूत विचारधारा आधारित पार्टियों ने अपना शुरुआती रूप ग्रहण किया. बीस का दशक ऊपर से देखने पर आज़ादी की लड़ाई का सबसे शांत हिस्सा नज़र आता है लेकिन इतिहास हमेशा ऊपर से देखने पर सच नहीं कहता. यह दौर मूलभूत परिवर्तनों का दौर है. ऐसे परिवर्तन जिनकी पहचान बहुत आगे जाकर होती है.
समाज इतिहास में आप जब भी शांति देखें तो उसे नज़रअन्दाज़ न करें. ये ऊपरी सन्नाटा इस बात का द्योतक है कि सतह से नीचे बड़े परिवर्तन जारी हैं. मूलभूत बदलाव जिनका असर दूर तक महसूस किया जाएगा.
इस महीने मेरे वेबलॉग ’आवारा हूँ’ को अपने नए कलेवर में एक बरस पूरा होने वाला है. पिछले जून में जब मैं अपने घर बैठा अपनी ज़िन्दगी की सबसे उदास छुट्टियाँ मना रहा था तभी जय ने ये वेबलॉग का नया सुर्रा छोड़ा था. अपना नाम, अपना पता, अपनी पसन्द और वर्डप्रेस के साथ साइबर दुनिया में आज़ादी का विचार. आगे भी जय ने ही सब रास्ते तलाशे. सच कहूँ तो मैं अभी भी FOSS के दोस्तों और उनकी बातों को पूरा-पूरा नहीं समझ पाता हूँ लेकिन धीरे-धीरे इतना तो समझने ही लगा हूँ कि चाहे बात कला-संस्कृति की हो चाहे तकनीकी जगत की, हम एक ही धारा के लोग हैं. एकरूपता और एकाधिकारवाद का विरोध और बहुरंगेपन का समर्थन हमेशा लोकतंत्र की पहली सीढ़ी है. तो ’आवारा हूँ’ के पहले जन्मदिन के उपलक्ष्य में हम नए कलेवर के साथ आप सब दोस्तों से रू-ब-रू होने वाले हैं. वैसे इस कलेवर के भी चाहनेवाले बहुत हैं और इसे ’एतिहासिक थीम’ से लेकर ’सूर्यमुखी थीम’ तक नाम मिले लेकिन अब बदलाव होना भी लाज़मी है. और इसीलिए इस कलेवर में मेरी ये आखिरी पोस्ट इस सर पर ताज धारण किए नवाबी ठाठ वाले थीम की याद में है. फिर मिलेंगे दोस्त. मैं वादा करता हूँ कि तुम्हें भूलूंगा नहीं और आगे किसी डिजिटल मोड़ पर तुम दिखे तो तुरन्त पहचान जाऊँगा. और इस बदलाव के लिए एक बार फिर एक बार श्रेय सारा जय का. वो जिस तेज़ी से आगे बढ़ रहा है उसका ये ब्लॉग छोटा सा उदाहरण है.
बस देखते जाइए !
और इस बार हम पहली पोस्ट के रूप में एक नायाब चीज़ ला रहे हैं. बकौल सत्यजित राय मेरी ज़िन्दगी के ’रतन बाबू’ उर्फ़ वरुण ग्रोवर हमारे लिए हीरा निकालकर लाए हैं ! बेहतरीन नाटककार, अदाकार, गीतकार, संगीतकार, गायक, गुलाल फ़ेम पीयूष मिश्रा का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू. पृथ्वी थियेटर में की गई ये बातचीत लेफ़्ट की हालिया राजनीति से लेकर नाटककार की मौत तक अनेक असहज दायरों में घूमती है. और उनकी ये बातचीत न सिर्फ़ हम पढ़ पायेंगे बल्कि देख भी पायेंगे ! वरुण और जय की संयुक्त कोशिश से हम ब्लॉग पर इसका पूरा वीडियो अपलोड करने जा रहे हैं. इस पोस्ट के साथ ही पहली बार मैं अपने इस नितान्त व्यक्तिगत अड्डे में घुसपैठ का रास्ता खोल रहा हूँ. वरुण की पोस्ट इस नए विचार ’मेहमान का पन्ना’ की पहली कड़ी होगी (और क्या गज़ब की कड़ी होगी!) जिसमें आगे भी आप मेरे कुछ ख़ास दोस्तों का ख़ास हमारे लिए लिखा पढ़ते रहेंगे.
आरंभ है …
शुक्रिया हितेश. कई बार मैं लिखते हुए सोचता हूँ कि कहीं यह अकेलेपन का अन्त:प्रलाप तो नहीं. अापका लिखना ठीक वैसे ही मेरे लिए विश्वास जगाता है जैसे कभी मेरे लिखे ने अापके मन में जगाया होगा, रोहतक विश्वविद्यालय की उस लाइब्रेरी में.
मिहिर तुम से मुलाकातों का सिलसिला MDU ROHTAK यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में कथादेश पढने से आरम्भ हुवा था .फिल्म देखने के पैसे जेब में होते नहीं थे .तुम्हारी समीक्षाएं पढ़ के नई अन्तरदृष्टि आती है .शायद सिनेमा हॉल में फिल्म न देख पाने का मलाल .तुम्हारी समीक्षाएं दूर कर देती थी .मास कम्युनिकेशन deparment की खस्ता हालात से उपजा furstration भी इस से थोड़ी राहत पा लेता था .अपने लिखे में यदि थोड़ी सरलता और आ जाये तो और मजा आ जायेगा .बहरहाल तुम अपनी लेखन की पथ -यात्रा पर यू ही बढ़ते रहो .यही कामना दोस्त .
फॉन्ट के मामले में मैं वरुण की बात से सहमत हूँ, पढ़ने में काफी जोर पड़ता है जबकि दॉंई ओर वाला पढ़ने में दिक्कत नहीं होती शायद फॉन्ट बड़ा है. उसे देखना भी आसान है
ब्लॉग का नया लुक देखने में बहुत शानदार है…होम पेज फिल्म-स्ट्रिप की तरह लगता है…बहुत रोमांचक और inviting. पर एक दिक्कत है…जो मेरे हिसाब से बहुत बडी है और वो है font का रंग और साइज़. काले पर सफेद पढने में सबसे मुश्किल होता है (सिवाय स्कूल ब्लैकबोर्ड के)…बहुत चमकता है और आँख पर काफी ज़ोर पडता है. शब्दों के बीच की स्पेसिंग भी थोडी कम है अच्छी readability के लिए. font और background color का contrast जितना कम होगा उतना अच्छा. और साथ में अगर font size भी थोडा बढ जाए तो काफी दिक्कतें कम हो जाएँगीं.
‘आवारा हूँ’ लिखने का तरीका भी शायद पहले वाला बेह्तर था या हो सकता है मुझे उसकी आदत हो गई थी. ब्लॉग जितना serious है, font उतना वज़नदार नहीं लग रहा. overall look and feel के लिए काफी बेहतर है…पर details में जाएँ तो मुझे ये दिक्कतें लग रही हैं. देखते हैं बाकी लोगों को क्या लगता है.
uttam pahal… pratiksha rahegi