Spoilers ahead…
सुनील खिलनानी अपनी मील का पत्थर पुस्तक ‘दी आइडिया ऑफ़ इंडिया’ में नई दिल्ली शहर की बसावट को लेकर मुख्य स्थापत्यकार एडविन लुटियंस और उनके चीफ़ असिस्टेंट हरबर्ट बेकर के बीच हुई एक बहुत दिलचस्प बहस का ज़िक्र करते हैं। इस तीखी बहस के केंद्र में था एक सवाल, कि रायसीना की पहाड़ी पर वायसरॉय हाउस ठीक-ठीक कहाँ बनाया जाए। लुटियंस ने उसके लिए रायसीना के टीले की सबसे ऊंची जगह तय की थी, जिससे पूरी नई दिल्ली की संरचना में राष्ट्र के ‘सर्वोच्च शासक’ का घर भौगोलिक रूप से भी सर्वोच्च स्थान पर हो। यह नगर की भौतिक संरचना में सामाजिक स्तरीकरण का बुलन्द उद्घोष था।
लेकिन दिक्कत ये थी कि अगर वायसरॉय हाउस को टीले पर पीछे सबसे उच्च स्थान पर लेकर जाया जाएगा, तो नीचे इंडिया गेट के पास राजपथ से वो दिखना ही बंद हो जाएगा। बेकर इसी के चलते अपनी असहमति दर्ज करवा रहे थे, कि अगर ‘प्रजा’ अपने राजा को सीधे देख भी ना पाए तो ऐसी भव्य संरचना का उद्देश्य असफ़ल हो जाता है। तनाव इतना बढ़ा कि दोनों में लंबे समय तक बोलचाल भी बंद रही। खैर, अन्ततः लुटियंस साहब की चली और वायसरॉय हाउस रायसीना पहाड़ी के सबसे ऊंचे स्थान पर ही बना। इसका नतीजा ये है कि आज भी नीचे इंडिया गेट के आगे राजपथ से खड़े होकर देखें तो राष्ट्रपति भवन का सिर्फ़ गुम्बद ही नज़र आएगा, पूरा राष्ट्रपति भवन नहीं।
मैं जब इस किस्से को अपने बीए के दिनों में पहली बार पढ़ रहा था, तो दक्षिण राजस्थान के उदयपुर नामक छोटे से पुराने शहर में रहता था। आपमें से बहुत लोग परिचित होंगे, पुराना उदयपुर मेवाड़ राजघराने की लंबे समय तक राजधानी रहा सामन्ती परिवेश का शहर है। और आज भी रोज़गार के लिए पर्यटन व्यवसाय पर निर्भरता के चलते उदयपुर अपनी पारंपरिक धरोहर पहचान को बचाकर रखने की कोशिश करता है। ऐसे में दिलचस्प संयोग यह था कि शहरी स्थापत्य में जिस स्तरीकरण की बात मैं आधुनिक यूरोपियन मूल्यों पर रची गई नई दिल्ली के सन्दर्भ में पढ़ रहा था, वैसी ही बसावट मैं अपने शहर में उदयपुर की सामंती राजव्यवस्था द्वारा निर्मित नगर संरचना में देख पा रहा था।
राजाजी का महल (आजकल जिसे सिटी पैलेस के नाम से जानते हैं) चारदीवारी के भीतर उदयपुर में सबसे ऊंचे स्थान पर बनी संरचना है। इसका नतीजा है कि पुराने शहर में आप किसी भी पोल (दरवाज़े) से प्रवेश कर सिटी पैलेस की दिशा में बढ़ें, तो ऐसा अहसास होगा कि जैसे आप किसी चढ़ाई पर चढ़ रहे हैं। इस संरचना में महल सबसे ‘ऊपर’ है, जैसे किसी चोटी पर खड़ा। ठीक नई दिल्ली के ‘वायसरॉय हाउस की तरह। शहर के हर हिस्से से देखो तो ‘ऊपर’ की ओर ही नज़र आता है। और वहाँ महल से ‘नीचे’ किसी भी ओर देखने पर शहर की ‘रैय्यत’ के छोटे-छोटे आशियानों का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।
क्या चमत्कार है, सामन्ती व्यवस्था पूंजीवाद से गुपचुप गठजोड़ कर अपनी गैरबराबरियाँ उसे उत्तराधिकार में सौंप देती है और मध्यकालीन समाज व्यवस्था द्वारा रचा गया स्तरीकरण आधुनिक शहर की संरचना से एकाकार हो जाता है।
बोंग जून-हो की ‘पैरासाइट’ दो परिवारों की कहानी है। समाज के स्तरीकरण के दो प्रतिलोम पर खड़े परिवार, लेकिन यह पूरी तरह विलोम में बंटे शहर की कहानी भी है। सामाजिक स्तरीकरण को अपनी फ़िल्मों में कुशलता से फ़िल्माने वाले निपुण निर्देशक इसे दर्शाने के लिए यहाँ शहरी स्थापत्य से लेकर हवा, पानी और ज़मीन से उपजे बिम्बों और ध्वनि तथा कैमरा गति तक का उपयोग करते हैं। फ़िल्म का पहला ही दृश्य हमें किम परिवार के घर में ले जाता है। पूंजीवाद की अंतिम सीढ़ी से कुछ ही ऊपर खड़े निम्नमध्यमवर्गीय किम परिवार का घर एक लम्बी ढलान के अंतिम कोने पर बना है और आधे से ज़्यादा सड़क के नीचे है, जिसमें सिर्फ़ रौशनदान से ही प्रकाश भीतर आता है।
‘आर्किटेक्चरल डाइज़ेस्ट’ को दिये अपने एक साक्षात्कार में निर्देशक ने इस घर की संरचना में छिपे प्रतीक अर्थों पर बात करते हुए बताया था,
“यह घर दरअसल अपनी संरचना में किम परिवार की मानसिकता को दर्शाता है। आप ज़मीन से कुछ ऊपर हैं और यह एहसास आपको सुकून देता है कि चलो, कम से कम आप सूरज की रौशनी तो देख पा रहे हैं। आप पूरी तरह ज़मीदोज़ तो नहीं हुए। यह उम्मीद के साथ ऐसे डर का अजब सा घालमेल है, जिसमें लगता है कि कहीं आप और नीचे ना गिर जायें। यही किम परिवार का भी सबसे आधारभूत भय है, उनके मनोभावों का सच्चा प्रतिनिधि।”
यह कुछ-कुछ गले तक पानी में डूबे होने जैसा एहसास है। गौर कीजिए कि इस पहले ही दृश्य में कैमरे की गति ‘ऊपर से नीचे’ की ओर है। इस प्रयोग को बोंग जून-हो ने आगे कई बार दोहराया है।
इसके विपरीत पूंजीवादी संपन्नता के दूसरे छोर पर खड़े पार्क परिवार के घर तक पहुँचने के लिए हमें साक्षात ऊपर की ओर चढ़ना होता है। यह उर्ध्वाधर गति भौतिक धरातल पर ही नहीं, इसके गहरे सामाजिक अर्थ हैं। किम परिवार के कोलाहल से भरे पड़ोस, जहाँ एक दारूबाज़ हर दूसरे दिन उनके घर के ऊपर रौशनदान पर ही पेशाब करने आ जाता है, के विपरीत यहाँ नीरव शांति है। किम परिवार के छोटे से सेमी-बेसमेंट घर के विपरीत यहाँ घर के चारों सदस्यों का अपना विशाल निजी स्पेस है। निजता है तो अकेलापन भी है। बोंग जून-हो यहाँ इट्रोडक्शन सीन में स्लो मोशन में ‘नीचे से ऊपर’ की ओर कैमरा गति का प्रयोग करते हैं। इसके साथ पहले ही दृश्य में घर के पीछे से निकलती सूरज की सीधी किरणें इस घर की केन्द्रीयता और सर्वोच्चता को बखूबी स्थापित करती हैं। पार्क परिवार का घर यहाँ शहर के उस हिस्से का प्रतीक है, जो ‘आम जनता’ की पहुँच से बाहर है।
कहानी की शुरुआत में ही संयोग से मिला मौका किम परिवार के एक युवा सदस्य को पार्क परिवार के आलीशान घर में एंट्री देता है, और कहानी अपना पहला दिलचस्प मोड़ लेती है। फूंक-फूंककर कदम रखते हुए किम परिवार के चारों सदस्य एक-एक कर पार्क परिवार में विभिन्न किस्म की नौकरियाँ हासिल कर लेते हैं और इस तरह यह दोनों विपरीत ध्रुवों पर खड़े परिवार अचानक एक ही भौतिक स्पेस में आ खड़े होते हैं। ठीक आमने-सामने। पार्क परिवार धनवान है, लेकिन हृदयहीन नहीं है। उनके भोलेपन पर हँसता, उनकी सहृदयता को सराहता किम परिवार जैसे इस सहारे ज़मीन से बाहर निकलकर सूरज की सीधी रौशनी में आ रहा है।
एक दिन पार्क परिवार की अनुपस्थिति में किम परिवार के चारों सदस्य घर की संपन्नता को भोग रहे हैं। यह जैसे ‘वर्जित फ़ल’ चखने का अहसास है। सेंसुअल, विस्मयकारी, रोमांचकारी। शहर के विपरीत छोर पर खड़े इस आलीशान मकान में बैठे वे अपनी पहुँच से बहुत-बहुत दूर के सपने शायद पहली बार देखने की हिम्मत कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि वे तर जायेंगे।
यही निर्णायक मौका है। पूंजीवाद की असली सफ़लता यह नहीं है कि वह समाज के चुनिंदा ‘एक प्रतिशत’ एलीट को अकल्पनीय संपन्नता देता है। पूंजीवाद की असली सफ़लता इसमें है कि वह इस चुनिंदा ‘एक प्रतिशत’ के मुकाबले कहीं बड़ी निम्नमध्यमवर्गीय आबादी को यह विश्वास दिलवाने में सफ़ल रहता है कि वह उसके शोषण का यंत्र नहीं, ‘मुक्ति’ का रास्ता है। कि अन्तत: उन्हें भी मौका मिलेगा और अन्तत: वे भी तर जायेंगे।
‘पानी पे लिखा’
और उसी निर्णायक मौके पर, जहाँ सामाजिक स्तरीकरण के दो छोरों पर खड़े पार्क और किम परिवार शायद एक दूसरे के सबसे नज़दीक हैं और लगता है कि जैसे बस अब ये गैर-बराबरी का झीना परदा गिर जायेगा और दोनों एक-दूसरे को छू लेंगे, मिल जायेंगे… घनघोर बरसात आती है। बोंग जून-हो पानी के मैटाफ़र का चमत्कारिक इस्तेमाल करते हुए उसकी द्वैध उपस्थिति के माध्यम से पूंजीवादी सपने द्वारा गढ़ी जा रही इस छद्म बराबरी के सारे काल्पनिक महल गिरा देते हैं। पूरब की सभ्यताओं में जलप्लावन का प्रतीक बहुत गहरे पैठा है, और बोंग जून-हो यहाँ जैसे हमारे अवचेतन के उसी भय को ज़िन्दा कर देते हैं।
पानी किसी के लिए रूमानियत है। पानी किसी के लिए तबाही है। पर सच्चाई यही है कि हमारी नागर सभ्यता के तमाम बराबरी हासिल करने के वादे एक घनघोर बरसात में बदबू से बजबजाती नाली के गंदे पानी में बह जाते हैं। यही आज की दिल्ली की सच्चाई है, यही सिओल की। मुझे यहाँ विशाल भारद्वाज की कमाल के मैटाफ़र्स से भरी फ़िल्म ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ याद आती है। एक ओर मूसलाधार बरसात में नवधनाड्य वर्ग मगन ‘रेन डांस’ कर रहा है, वहीं दूसरे ही दृश्य में किसान अपनी खड़ी खेती बह जाने से खून के आँसू रो रहा है। ‘बादल उठ्या री सखी…’
‘पैरासाइट’ के आभासी सीढ़ियों में बंटे शहर की जीती-जागती सीढ़ीनुमा भौतिक संरचना उस आधी रात की मूसलाधार बरसात में पार्क परिवार के आलीशान घर से किम परिवार की वापस अपने दड़बेनुमा घर की ओर अंतहीन पैदल यात्रा में खुलकर सामने आ जाती है। यह वापस ‘ऊपर से नीचे’ की ओर यात्रा है। अभिधा में भी, व्यंजना में भी। उनका अप्राप्य को पाने का सपना डूब रहा है, उनका अपना घर डूब रहा है।
वजह, उन्होंने सपनीले उदार पूंजीवाद के भयावह ज़िन्दा तहखाने अपनी आँखों से देख लिये हैं।
इस निर्णायक बारिश में ‘पैरासाइट’ के इस उर्ध्वाधर गति के सर्वोच्च शिखर पर स्थित संपन्नता के निर्जन टापूनुमा घर के तहखाने में छिपे कुरूप राज़ खुल जाते हैं। जिस पूंजीवादी सपने में सबके लिए ‘मौके’ का वादा था, उसकी असली क्रूर हकीकत जब खुलकर सामने आती है तो इंसान इस वीभत्स सच्चाई का सामना नहीं कर पाता। समाज के जिन दो विपरीत ध्रुवों की हमने ऊपर बात की − ‘हैव्स’ और ‘हैव नॉट्स’ के बीच बंटी दुनिया। सच्चाई यह है कि इस ‘एक प्रतिशत’ अकल्पनीय संपन्नता और बहुमत निम्नमध्यम वर्गीय कामकाजी आबादी की विपरीत जोड़ियों के सभ्य दायरे से बाहर एक तीसरा वर्ग भी मौजूद है − ‘आउटकास्ट्स’ का। जिन्हें इंसानी समाज ने अपनी सभ्यता के दायरों से बाहर कर दिया है। अब यह उनके लिए नागरिक नहीं, उदार पूंजीवाद का अपशिष्ट हैं।
पार्क परिवार के तहखाने की वीभत्स उपस्थितियों से आँखें मत फेरिये। आज यह क्रूर कल्पना जीते-जागते रूप में हमारे देश भारत के उन ‘डिटेंशन कैम्पों’ में रची जा रही है, जिनके बारे में हमारे माननीय प्रधानमंत्री लाखों की भीड़ के सामने सार्वजनिक घोषणा कर चुके हैं कि वे ‘झूठ हैं, झूठ हैं, झूठ हैं’। गौर से देखिये, यही ‘पैरासाइट’ का वो अदृश्य तहखाना है, जहाँ दुनिया की इस सबसे पुरानी गौरवशाली नागर सभ्यता ने नागरिकता के सबसे प्राथमिक नियम भी स्थगित कर दिये हैं।
मुझे कबीर याद आते हैं, जिन्होंने अपनी उलटबाँसियों में पानी के ‘औलोती से बरंडे’ की ओर उल्टा चढ़ जाने की असंभव कल्पना की थी। कबीर की उलटबाँसी में भी यह असंभव कल्पना एक ऐसे दिवास्वप्न का प्रतीक थी जहाँ एक दिन समाज से यह पानी की गति की तरह ही ‘स्वाभाविक’ मान ली गई गैर-बराबरी खत्म हो जाएगी। निर्देशक बोंग जून-हो यहाँ कबीर जैसी असंभव कल्पना रचते हुए पानी की ‘स्वाभाविक गति’ के माध्यम से बताते हैं कि कबीर का स्वप्न आज भी अधूरा है। और उस स्वप्न का संधान पूंजीवाद के इस रूप तो क्या, किसी रूप में संभव नहीं।
‘पैरासाइट’ के अन्त को लेकर बहुत तरह की व्याख्याएं और बहसें मौजूद हैं। मेरी नज़र में निर्देशक बोंग जून-हो हिंसा और उदासी से भरे काव्यात्मक अन्त में पहली बार निम्नमध्यमवर्गीय कामकाजी पहचान को इस दूसरी आउटकास्ट बना दी गई श्रमिक पहचान के आमने-सामने बनाम नहीं, साझेदारी में खड़ा कर एक स्पष्ट स्टेटमेंट देते हैं। स्टेटमेंट, कि एका के बिना मुक्ति नहीं। कि हमारे लिए कोई खड़ा नहीं होगा, अन्तत: खुद हमें ही एक-दूसरे के सम्मान के लिए खड़ा होना होगा। मेरे लिए यहाँ उनकी आत्मघाती हार महत्वपूर्ण नहीं, उनमें पहली बार उभरी साझेदारी की चेतना महत्वपूर्ण है।
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~ साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में मार्च महीने में प्रकाशित कॉलम ‘आराम नगर’ से