
एमए के दिनों की बात है। हम देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय में थे और यहाँ छात्रसंघ चुनावों में वाम राजनीति को फिर से खड़ा करने की एक और असफ़ल कोशिश कर रहे थे। उन्हीं दिनों पंजाब से आए उन साथियों से मुलाकात हुई थी। हिन्दी में कम, पंजाबी में ज़्यादा बातें करने वाले, हमारे तमाम जुलूसों में सबसे आगे रहने वाले उन युवाओं में गज़ब का एका था। उन दिनों पंजाब में उग्र वाम फिर से लौट रहा था और वहाँ एम-एल की छात्र इकाई सबसे मज़बूत हुआ करती थी। वे लड़के बाहर से शान्त दिखते थे, लेकिन उनका जीवट प्रदर्शनों में निकलकर आता था और उन्हें देखकर हम भी जोश से भर जाते थे। सलवार-कुरते वाली कई लड़कियाँ थीं जो हमसे कम और आपस में ज़्यादा बातें करती थीं लेकिन सार्वजनिक स्थान पर किसी भी तनावपूर्ण क्षण के आते ही सबसे आगे डटकर खड़ी हो जाती थीं और कभी नहीं हिलती थीं। उन्हीं के माध्यम से मैं जाना था कि हमारे पडौसी इस ’धान के कटोरे’ में कैसी गैर-बराबरियाँ व्यापी हैं और कैसे वहाँ के दलित अब अपने हक़ के लिए खड़े होने लगे हैं। इस राजनैतिक चेतना के प्रभाव व्यापक थे। जब शोषित अपने हिस्से का हक़ मांगता है तो पहले से चला आया गैरबराबरी वाला ढांचा चरमराता है और इससे तनाव की षृष्टि होती है। बन्त सिंह आपको याद होंगें। यह बन्त सिंह की राजनैतिक चेतना ही थी जिसने उन्हें अन्याय का प्रतिकार करना सिखाया और यही बात उनके गाँव के सवर्ण बरदाश्त न कर सके। उन्होंने बन्त के हाथ-पैर काट उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया। लेकिन न वो बन्त को खामोश कर पाए, न उनके क्रान्तिकारी लोकगीतों को।