वो पांच प्रसंग जब हमारा सिनेमा बड़ा हो रहा था : सिनेमा 2016

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‘बॉलीवुड’ कहा जाने वाला मुख्यधारा हिन्दी सिनेमा हमेशा से मेरे लिए एक बहुवचन रहा है. कई नितांत भिन्न, आपस में टकराती पहचानों को साथ संभालने की कोशिश करता माध्यम. आैर फिर सिनेमा तो ठहरा भी सामुदायिक कला. इसलिए कोई फिल्म अकेली नहीं होती. दरअसल वह कितने ही भिन्न समुच्चयों का सामंजस्य होती है. सदा बहुवचन होती है. ऐसे में, मेरे लिए हमेशा ही साल के अन्त में ‘पसन्दीदा फिल्म’ छांटने से ज़्यादा दिलचस्प ‘पसन्दीदा प्रसंग’ छांटना रहा है. ऐसे मौके, जहां मेरी नज़र में हमारे सिनेमा ने कुछ भिन्न किया, या कुछ निडरता दिखाई. मुझे डूबने का मौका दिया, या मुझे चौंकाया.

तो सदी के इस सोलहवें बसंत में, ऐसे ही पांच मौके मेरी पसन्द के, जहां हमारा सिनेमा कुछ ‘बड़ा’ होता है.

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“हम चीज़ों को भूलने लगते हैं, अगर हमारे पास कोई होता नहीं उन्हें बताने के लिए” : दि लंचबॉक्स

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“हम चीज़ों को भूलने लगते हैं, अगर हमारे पास कोई होता नहीं उन्हें बताने के लिए”

स्थापत्यकार राहुल महरोत्रा समकालीन मुम्बई शहर की विरोधाभासी संरचना को केन्द्र बनाकर लिखे गए अपने चर्चित निबंध में शहर की संरचना को दो हिस्सों में विभाजित कर उन्हें ‘स्टेटिक सिटी’ तथा ‘काइनैटिक सिटी’ का नाम देते हैं। वे लिखते हैं, “आज के भारतीय शहर दो हिस्सों से मिलकर बनते हैं, जो एक ही भौतिक स्पेस के भीतर मौजूद हैं। इनमें पहली औपचारिक नगरी है जिसे हम ‘स्टेटिक सिटी’ कह सकते हैं। ज़्यादा स्थायी सामग्री जैसे कंक्रीट, स्टील और ईंटों द्वारा निर्मित यह शहर का हिस्सा शहर के पारम्परिक नक्शों पर द्विआयामी जगह घेरता है और अपनी स्मारकीय उपस्थिति दर्ज करवाता है। दूसरा शहर, शहर का अनधिकृत या कहें अनौपचारिक हिस्सा है जिसे हम ‘काइनैटिक सिटी’ कह सकते हैं। इसे द्विआयामी सांचे में बाँधकर समझना असंभव है। यह सदा गतिमान शहर है – जिसका निर्माण शहर में बढ़ती हुई वैकासिक त्रिआयामी गतिविधियों द्वारा होता है।”[1] काइनैटिक सिटी अपने स्वभाव में ज़्यादा अस्थायी और गतिमान होती है और यह निरंतर खुद में सुधार करती रहती है और खुद को बदलती रहती है। काइनैटिक सिटी शहर के स्थापत्य में नहीं है। यह तो निरंतर बदलती शहरी ज़िन्दगियों की आर्थिक, साँस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में निवास करती है।

इस काइनैटिक सिटी का उदाहरण गिनाते हुए महरोत्रा मुम्बई की मशहूर डब्बावाला संस्कृति को शहर के इन दो हिस्सों − स्टेटिक सिटी और काइनैटिक सिटी के मध्य संबंध के सबसे प्रतिनिधि उदाहरण के रूप में याद करते हैं। वे लिखते हैं कि मुम्बई के डिब्बावाले शहर के इन दो हिस्सों, स्टेटिक सिटी और काइनैटिक सिटी के मध्य, औपचारिक और अनौपचारिक शहर के मध्य संबंध का सबसे बेहतर उदाहरण हैं। यह टिफिन सेवा शहर के मध्य यातायात के लिए मुम्बई की लोकल ट्रेन सेवा पर निर्भर रहती है और अपने ग्राहक को औसतन महीने का 200 रुपया खर्चे की पड़ती है। इसके महीने का टर्नओवर तक़रीबन पाँच करोड़ रुपये तक का हो जाता है। एक अनुमान के अनुसार तक़रीबन 4,500 डिब्बेवाले शहर में रोज़ 2 लाख से ज़्यादा खाने के डिब्बों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने का काम करते हैं।[2]

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कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को, ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

Gulzar

वो मेरी जवानी का पहला प्रेम था. मैं उसे आज भी मेरी ज़िन्दगी की ’हेट्टी केली’ [1] कहकर याद करता हूँ. उस रोज़ उसका जन्मदिन था. मैं उसे कुछ ख़ास देना चाहता था. लेकिन अभी कहानी अपनी शुरुआती अवस्था में थी और मेरे भीतर भी ’पहली बार’ वाली हिचक थी इसलिए कुछ समझ न आता था. आख़िर कई दिनों की गहरी उधेड़बुन के बाद मैं तोहफ़ा ख़रीद पाया. लेकिन अब एक और बड़ा सवाल सामने था. तोहफ़ा तो मेरे मन की बात कहेगा नहीं, तो उसके लिए कोई अलग जुगत भिड़ानी होगी.

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पित्तृसत्ता का प्रेत : क़िस्सा

Qissa

स्त्री = इज्ज़त

स्त्री की इज्ज़त = परिवार की इज्ज़त

परिवार की इज्ज़त = समुदाय की इज्ज़त

इस तरह के सूत्रों के सहारे हमारे समाज में ‘व्यवस्था’ की स्थापना की जाती है अौर कई बार इनके सहारे ही समाज में स्त्री के सम्मान का बख़ान भी किया जाता है. लेकिन साम्प्रदायिक हिंसा के हर दौर में यही सूत्र एक विध्वंसक पलटवार करता है. यहाँ विरोधी समुदाय की ‘इज्ज़त’ लूटने का सबसे सीधा अौर अासान ज़रिया समुदाय की स्त्री पर हमला बन जाता है. साम्प्रदायिक हिंसा का यौनिक विश्लेषण बताता है कि इस हिंसा की एक बड़ी वजह उसी सम्मानित सूत्र में छिपी है जिसमें स्त्री बराबरी पर खड़ी सामान्य इंसान न रहकर वंश की, समुदाय की ‘इज्ज़त’ का पर्याय बन जाती है. कभी वोदूसरे समुदाय का ‘शीलभंग’ करने के लिए मारी जाती है,तो कभी वो अपने ही पिता-भाई-बेटे द्वारा स्वयं के अौर समुदाय के ‘सम्मान की रक्षा’ के नाम पर क़त्ल की जाती है, अौर उस हत्या को ‘शहीद’ से लेकर ‘जौहर’ तक न जाने कितने नाम दिये जाते हैं. समानता एक ही है, कि होती वो हमेशा अौरत ही है.

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हम के ठहरे अजनबी इतनी मुलाकातों के बाद

Garam Hawa

सथ्यू साहेब की ‘गरम हवा’ का यह परिचय दो महीने पहले हुए पहले ‘उदयपुर फिल्म फेस्टिवल’ के पहले अाई फेस्टिवल स्मारिका लिए लिखा था, जहाँ की यह समापन फिल्म थी. 

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मामी – एक

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कल शहर में कदम रखते ही पहले अॉटोवाले ने मीटर से चलने से इनकार किया. अौर अाज सुबह फिर टैक्सी वाले ने चलने से ही इनकार कर दिया. राखी-वरुण का कहना है कि हम दिल्लीवाले अपने साथ दिल्ली के अॉटो-टैक्सीवालों को भी उनके भले शहर में ले अाये हैं. इस बीच मैं मुम्बई में ‘अॉथेंटिक’ वड़ा पाव की तलाश में दो अौर तरह के पाव (दाबेली पाव, मंचूरियन पाव) खा चुका हूँ अौर तयशुदा रूप से अभी दो-तीन तरह के अौर खाने वाला हूँ.

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सुंदर का स्वप्न : शिप ऑफ़ थिसियस

Ship Of Theseus

शायद किराये के मकानों में ऐसा अक्सर होता है। जिस घर में हम रहने आये, उसकी दीवारों पर पिछले रहनेवालों के निशान पूरी तरह मिटे नहीं थे। ख़ासकर बच्चों की उपस्थिति के निशान। कमरे की दीवारों पर रंग बिरंगी पेंसिल की कलाकारियाँ और अलमारियों पर सांता क्लाज़ के स्टिकर। उससे भी कमाल था बाथरूम की एक अलमारी पर अनगिनत स्टिकर से बना एक कोलाज जिसमें एक बच्चे की कल्पना की उड़ान में आनेवाली तमाम तरह की चीज़ें थीं। नए रंग रोगन ने दीवार की कलाकारियों को तो मिटा दिया। लेकिन अलमारी का कोलाज हमने उतारा नहीं। एक स्कूलबस, कुछ जोड़ी जूते, एक लम्बी दूरबीन, बहुत सारी मछलियाँ। थोड़ा सा उन अनदेखे बच्चों को वहाँ रहने दिया। शायद थोड़ा खुद को। अपना बचपन भी तो मैं शहरी आबादी से बहुत दूर एक बड़े से चौक वाले मकान के किसी शांत कोने में छोड़ आया था किन्हीं और अनदेखे लोगों द्वारा संभाले जाने के लिए।

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साझी विरासत का दोअाबा

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पंजाब से अाया बुलावा अजय की फिल्मों को देखने अौर उन पर बात करने का था। अजय भारद्वाज की पंजाब की पृष्ठभूमि पर बनी दो वृत्तचित्र फिल्में ‘रब्बा हुणं की करिये’ अौर ‘मिलांगे बाबे रतन ते मेले ते’ साथ देखना अौर साथी कॉमरेडों से बातचीत मेरे लिए एक नए अनुभव का हिस्सा थी। इससे पहले अजय पंजाब की ही पृष्ठभूमि पर वृत्तचित्र ‘कित्थे मिल वे माही’ भी बना चुके हैं अौर इन तीन फिल्मों को साथ उनकी पंजाब-पार्टीशन ट्रिलॉजी के रूप में देखा जा सकता है। जहाँ ‘रब्बा हुणं की करिये’ रौशन बयानों से मिलकर बनती फिल्म है वहीं ‘मिलांगे बाबे रतन ते मेले ते’ जैसे अपना कैनवास बड़ा कर लेती है अौर उसमें पंजाब का तमाम खालीपन अौर उस खालीपन में गहरे पैठा सूफ़ी संगीत शामिल होकर हमारे सामने अाज के पंजाब की प्रचलित तस्वीरों के मुकाबले एक निहायत ही भिन्न तस्वीर पेश करता है।

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पान सिंह तोमर वाया साहिब, बीवी अौर गैंग्स्टर

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ज़्यादा पुरानी बात नहीं है। ‘पान सिंह तोमर’ बनकर तैयार थी अौर उसे मठाधीशों द्वारा सार्वजनिक प्रदर्शन के अयोग्य ठहराकर डिब्बे में बंद किया जा चुका था। निर्देशक तिग्मांशु धूलिया अंतिम उम्मीद हारकर अब नए काम की तलाश में थे अौर नायक इरफ़ान, फिल्म के लेखक संजय चौहान के शब्दों में रातों को फोन पर रोया करते थे अौर कहते थे कि कैसे भी करो यार, लेकिन अपनी यह फिल्म रिलीज़ करवाअो। इस फिल्म से उम्मीद खोकर अाखिर फिल्म के लेखक-निर्देशक ने कोई नई फिल्म पर काम शुरु करने की सोची। ऐसी फिल्म जिसका कैनवास ‘पान सिंह तोमर’ से छोटा हो, अौर जिसे रिलीज़ करवाने में शायद इतनी मशक्कत न करनी पड़े। अौर ऐसे ‘साहेब, बीवी अौर गैंगस्टर’ अस्तित्व में अाई। फिल्म बनती है अौर रिलीज़ होती है। याद होगा, मैंने लिखा था इस फिल्म के लिए कि क्यों यह फिल्म मुझे पसन्द अाती है, “क्योंकि यह छोटे वादे करती है अौर उन्हें पूरा करती है”।

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अपने अपने रिचर्ड पारकर

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कुछ महीने पहले ‘चकमक’ के दोस्तों के लिए यह परिचय लिखा था ‘Life Of Pi’ किताब/ फिल्म का. साथ ही किताब से मेरा पसन्दीदा अंश, यात्रा बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब के हिन्दी अनुवाद ‘पाई पटेल की अजब दास्तान’ से साभार यहाँ.

पिछले दिनों जब लंदन से लौटी हमारी दोस्त हमारे लिए मशहूर जासूस शरलॉक होम्स के बहुचर्चित घर ‘221-बी, बेकर स्ट्रीट’ वाले म्यूज़ियम से उनकी यादगार सोवेनियर लाईं, तो इसमें पहली नज़र में कुछ भी अजीब नहीं था। शरलॉक होम्स की कहानियाँ पढ़ते तो हम बड़े हुए हैं अौर उनके देस से उनकी याद साथ लाना एक मान्य चलन है। ख़ास तरह की माचिस की डिब्बी, जैसी शरलॉक इस्तेमाल करते थे। विशेष तौर पर तैयार करवाया गया चमड़े का बुकमार्क, जिसपर शरलॉक की एक मशहूर उक्ति लिखी है, “Life is infinitely stranger than the mind of man could invent”.

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