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आनंद पटवर्धन की क्लासिक डॉक्यूमेंट्री ‘राम के नाम’ (1992) अपनी आँखों के सामने इतिहास को घटते देखने का शानदार उदाहरण है। उत्तर भारत में रामजन्मभूमि आन्दोलन के हिंसक उबाल को पटवर्धन का कैमरा लाइव दर्ज कर रहा था। यह भारत के इतिहास में एक निर्णायक क्षण है, जब हमारा वर्तमान हज़ार दिशाअों में खींचा जा रहा था। यहाँ कैमरा अनुपस्थित नहीं, बल्कि किसी गवाह की तरह घटनास्थल पर मौजूद है। वह खुद कोई कहानी नहीं रच रहा, बल्कि वर्तमान की सबसे महत्वपूर्ण कहानी के गर्भगृह में आपको खड़ा कर देता है। फ्रांस से निकली यह ‘सिनेमा वेरिते’ तकनीक दर्शक को निर्णय की एजेंसी प्रदान करती है, मुझे यह बहुत ही सम्माननीय बात लगती है।

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पिछले शुक्रवार सिनेमाघरों में लगी दो नौजवानों खुशबू रांका आैर विनय शुक्ला की डॉक्यूमेंट्री ‘एन इनसिग्निफिकेंट मैन’ इस ‘सिनेमा वेरिते’ स्टाइल आॅफ़ फ़िल्ममेकिंग का रोमांचक नया अध्याय है। इसलिए भी कि यह भारतीय दर्शक के मन में डॉक्यूमेंट्री सिनेमा को लेकर बने कई भ्रमों – कि वो बोरिंग होता है, बस जानकारी हासिल करने का माध्यम भर होता है, मनोरंजक नहीं होता, को तोड़ती है।

‘आम आदमी पार्टी’ के निर्माण के पहले दिन से खुशबू आैर विनय ने उन्हें फ़िल्माना शुरु किया आैर ज़रा भी निर्णयकारी हुए बिना – यहाँ कोई पॉइंट-टू-कैमरा साक्षात्कार नहीं हैं, कोई वॉइस-आेवर नहीं, सूत्रधार नहीं, यह फ़िल्म किसी बॉलीवुड थ्रिलर सा मज़ा देती है।

संयोग नहीं कि एक ताज़ा साक्षात्कार में निर्देशकद्वय ने अपने प्रिय फ़िल्मकारों में आनंद पटवर्धन का नाम सबसे पहले लिया है। क्योंकि इक्कीसवीं सदी की इस दूसरी दहाई के ये कुछ शुरुआती साल भारतीय राजनीति आैर समाज के लिए कुछ वैसे ही युगांतकारी साल होने जा रहे हैं, जैसा समय पिछली शताब्दी में नब्बे के उत्तरार्ध में हमने देखा था। यहाँ समाज को बदल देने के सपने हैं, तो विघटनकारी राजनीति का बीज भी यहीं पड़ रहा है। नब्बे के परिवर्तनकारी पदबंध ‘मंडल’ आैर ‘कमंडल’ दोनों लौटकर इस भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाते हैं, पर भिन्न मुखौटों के साथ।

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बॉलीवुड की चकाचौंध में हमारे दर्शकवर्ग ने डॉक्यूमेंट्री सिनेमा को अनदेखा किया। जबकि अस्सी के दशक से ही स्वतंत्र फ़िल्मकारों की एक सुदीर्घ परम्परा रही है भारतीय वृत्तचित्र की दुनिया में, जिनमें महिलाअों की मज़बूत उपस्थिति है। दीपा धनराज, मधुश्री दत्ता, रीना मोहन, पारोमिता वोरा, सबा दीवान जैसे प्रतिष्ठित नाम हैं। लेकिन बीते कुछ सालों में भारतीय युवा के लिए विश्व सिनेमा का नया दरवाज़ा खुला है, जहाँ उसने डॉक्यूमेंट्री फॉर्म का यह नया रोमांचकारी चेहरा देख लिया है।

कुछ साल पहले माइकल मूर की ‘फ़ेरनहाइट 9/11’ देखकर उसने जॉर्ज बुश की अमेरिकी सत्ता का युद्धपिपासू चेहरा भी पहचाना, आैर नागरिक समाज का निडर विरोध भी। वैश्विक आर्थिक संकट की पोल खोलती चार्ल्स फर्ग्यूसन की ‘दि इनसाइड जॉब’, वेस्टइंडीज़ टीम की तेज़ गेंदबाज़ी का स्वर्णिम इतिहास दर्ज करती ‘फ़ायर इन बेबीलोन’, आसिफ़ कपाड़िया की आत्महंता व्यक्तित्वों पर ‘सेन्ना’ आैर ‘एमी’ जैसी फ़िल्में भारतीय दर्शक के लिए नॉन-फिक्शन सिनेमा की विहंगम दुनिया में प्रवेश है। नेटफ़्लिक्स पर ‘मेकिंग ए मर्डरर’ खूब लोकप्रिय हुआ।

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हाल के सालों में विश्व सिनेमा परिदृश्य पर मेरी सबसे पसन्दीदा दोनों फ़िल्में – लॉरा पॉइट्रास की व्हिसिलब्लोवर एडवर्ड स्नोडन को केन्द्र में रख बनायी सिनेमा वेरिते स्टाइल ‘सिटिज़नफोर’ आैर एवा डुवर्ने निर्देशित ‘थर्टीन्थ’ जो अमेरिकी कानून व्यवस्था के ब्लैक आबादी के प्रति संस्थानिक भेदभाव को सबूत सहित प्रस्तुत करती है, संयोग नहीं की दोनों ही वृत्तचित्र हैं।

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जो दुनिया के लिए सच है, वही भारतीय सिनेमा के लिए सच है। यहाँ बीते सालों में ‘सुपरमैन आॅफ़ मालेगाँव’, ‘दि वर्ल्ड बिफोर हर’, ‘कटियाबाज़’, ‘फ़ायर इन दि ब्लड’, ‘गुलाबी गैंग’ आैर ‘दि सिनेमा ट्रैवलर्स’ ने वृत्तचित्रों को देखे जाने का नज़रिया ही बदल दिया है। यह पूर्ववर्ती कुछ वृत्तचित्रों की तरह किसी ख़ास विचार को परोसने भर का प्रॉपगेंडा नहीं हैं, बाकायदा मनोरंजन की कसौटी पर कसी जाने योग्य शानदार फ़िल्में हैं।

इनमें घोर भावनात्मक उबाल है, लेकिन लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा की कई बेसिरपैर ब्लॉकबस्टर्स की तरह यह अपने दर्शक को मूर्ख नहीं समझतीं, बल्कि उन्हें एक विचारशील प्राणी की तरह ट्रीट करती हैं।

ऐसे दौर में, जब टेलीविज़न पर मनोरंजक चैनलों के धारावाहिकों से ज़्यादा रोमांच न्यूज़ चैनलों के प्राइम टाइम पैदा कर रहे हों, नॉन-फिक्शन की ताक़त पर आैर उसके विजुअल इंपैक्ट पर शक को फ़ौरन ख़त्म हो जाना चाहिए। आैर फिर आज हर हाथ में मोबाइल है आैर हर मोबाइल में कैमरा। हमारा वर्तमान शब्दों में नहीं, विज़ुअल में रिकॉर्ड किया जा रहा है। यह सच्चाई नॉन-फिक्शन को हमारे समय का सबसे प्रासंगिक सिनेमा बना देती है। इसे एक नौजवान मुल्क के आर्गुमेंटेटिव इंडियन का सिनेमा होना है। भविष्य नॉन-फिक्शन सिनेमा का है। बस, हमें इसके आगमन के लिए एक निर्भीक माहौल खड़ा करना होगा।
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इस आलेख का किंचित संशोधित संस्करण समाचार पत्र ‘प्रभात खबर’ के राष्ट्रीय संस्करण के सिनेमा कॉलम में 26 नवम्बर 2017 को प्रकाशित हुआ।

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