कल शहर में कदम रखते ही पहले अॉटोवाले ने मीटर से चलने से इनकार किया. अौर अाज सुबह फिर टैक्सी वाले ने चलने से ही इनकार कर दिया. राखी-वरुण का कहना है कि हम दिल्लीवाले अपने साथ दिल्ली के अॉटो-टैक्सीवालों को भी उनके भले शहर में ले अाये हैं. इस बीच मैं मुम्बई में ‘अॉथेंटिक’ वड़ा पाव की तलाश में दो अौर तरह के पाव (दाबेली पाव, मंचूरियन पाव) खा चुका हूँ अौर तयशुदा रूप से अभी दो-तीन तरह के अौर खाने वाला हूँ.
‘नेह का धागा’ (Matterhorn)
फिल्म का एक शुरुअाती प्रसंग है जहाँ हमारे कथानायक उमरदराज़ फ्रेड मौहल्ले में अौचक अा टपके थियो को पिछले दिन बोले झूठ के बदले सज़ा के एवज़ में एक अनोखा सा काम करने देते हैं. उनके घर के बाहर बागीचे में जड़े पत्थरों के बीच उग अाई बेतरतीब घास को खोदकर निकालने का काम. इस प्रसंग में पूरी फिल्म का रूपक छिपा है मेरे लिए. मुझे ‘पाश’ याद अाते हैं. अवतार सिंह ‘पाश’ की एक कविता है ‘घास’ जिसकी शुरुअाती पंक्तियाँ हैं, “मैं घास हूँ, मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा”. यूरोपियन सिनेमा की नयनाभिराम खूबसूरती से अपना सफ़र अारंभ करती डच फ़िल्म ‘मैटरहॉर्न’ में ऐन इसी घास उखाड़ने वाले प्रसंग से जन्मते एक अपरिभाषित रिश्ते की नरमाई व्यवस्था के पत्थरों के बीच की रूख़ी दरारों में यूँ ही बेतरतीब उग अाती है. थियो जबसे अाया है, फ्रेड की सुनसान स्टेशन सी ज़िन्दगी में जैसे मोगरे का फूल खिल उठा है, जो रह-रहकर महकता है. यह सामाजिक परिभाषाअों की कसौटी पर अस्वीकार्य रिश्ता है, लेकिन प्रेम किताबें पढ़कर कहाँ हुअा है कभी. फ्रेड, जिसकी पत्नी कई साल पहले किसी सड़क हादसे में मारी गई, अब अपने साथी थियो के साथ उसी मैटरहॉर्न पहाड़ी की तलहटी तक जाना चाहता है जिसके अागोश में उसने अपनी मृत पत्नी को पहली बार प्रणय प्रस्ताव दिया था.
‘मैटरहॉर्न’ के पुरुष व्यवस्था के पालक हैं, करीने की ज़िन्दगी जीने वाले. लेकिन वही यहाँ उस व्यवस्था के शिकार भी हैं. लगता है कि फ्रेड की कहानी का विलेन उसका खाप पंचायती पड़ौसी है, लेकिन यहाँ सिर्फ व्यवस्था द्वारा पूर्वनिर्धारित भूमिकाअों से निकल भागने को तैयार पुरुष हैं. उन्हें उस नेह की डोर की तलाश है जो शायद धर्म-समाज अौर कायदों की पाबंदियाँ उनसे छीन लेती हैं. गुलज़ार वाली ‘परिचय’ के प्राण से हमारे कथानायक फ्रेड को यहाँ वही नेह का धागा ‘थियो’ की निष्छलता में मिलता है अौर उसी के सहारे वो अपनी दुनिया को मटियामेट कर निकल जाता है. यही धागा उसके लिए पुराने टूटे रिश्तों के तार खोलता है अौर उसे वो रास्ता सुझाता है जिससे होकर वो कभी अपने त्याग दिये गये बेटे का पक्ष भी देख पाये. अौर काफ़ी ‘फिल्मी’ अन्त के बीच भी मुझे यह अच्छा लगा कि फिल्म फ्रेड द्वारा अपने बेटे को अपना लिये जाने की पारिवारिक तस्वीर पर ख़त्म नहीं होती, बल्कि वो खत्म होती है फ्रेड अौर थियो के साथ, हाथों में हाथ थामें असली मैटरहॉर्न की तलहटी में पहुँचने पर. नेह का यह रिश्ता यहाँ परिवार की सदा से गैर-बराबर रही सँस्था पर विजय पाता है, यही फिल्म को फिर संजोने लायक बनाता है.
‘ज़िन्दगी बाथटब में’ (Blackfish)
जब फिल्म चली तो सिनेमा के परदे की वही हालत थी जैसी अपनी उमर के अन्तिम दिनों में हमारे पुराने क्राउन टीवी की हो गई थी. ऊपर को छँलांग मारती किलर व्हेल के साथ प्रोजेक्शन भी छलांग मारता था. इस चर्चित हो रहे वृत्तचित्र में जो-जितना देखा उसमें याद रहा कि कैसे स्वतंत्र प्रकृति का अनुकूलन करने के फेर में पूंजीपतियों के व्यवसायिक हित तो खूब सध रहे हैं, लेकिन उसके परिणाम कितने दूरगामी अौर कितने खतरनाक हो सकते हैं उसका अभी हमें ठीक से अन्दाज़ा भी नहीं. सर्कस के जमूरे की तरह इंसान के इशारों पर नाचती किलर व्हेल का स्वभाव बदलने की यह असली कोशिश कुछ-कुछ काल्पनिक फंतासी ‘जुरासिक पार्क’ के दादाजी रिचर्ड ऐटनबरो अौर उनके बड़बोले प्रयोग की याद दिलाती है. अौर साथ ही यह भी याद अाता है कि कैसे उस कथा में वो प्रयोग उनके ही सर के ऊपर अा गिरा था.
लेकिन वो असल ज़िन्दगी ही क्या जो कहानियों से सबक सीख ले. यहाँ तो सबक तभी सीखे जाते हैं जब ऐन जीवन के बीचोंबीच जीती-जागती मौत अपना सर उठाती है. अौर बहुत बार तो तब भी नहीं. यह वृत्तचित्र दिखाता है कि कैसे अस्सी के दशक में व्हेलों के वृहत समूहों में से छांटकर तरुण व्हेलों को कैद करने की अौर उन्हें लोहे के दड़बों में बन्द कर जमूरों से करतब सिखाने की नाजायज़ शुरुअात हुई. इसको अब पच्चीस साल से ऊपर बीत चुके हैं. अाप इसके परिणामों अौर इनकी गंभीरता को नहीं समझें तो अापको दो हज़ार दस में पालतू व्हेल द्वारा स्विमिंगपूल में हुई अपने ही सिखानेवाले की हत्या की घटना को देखना चाहिए. यह भी कि ये ऐसी कोई पहली घटना नहीं थी. वजह, पूछने के जवाब में एक शोधकर्ता महिला जो कहती है वही सबसे कीमती समझ मैं फिल्म से अपने साथ ले अाया हूँ, “अापको भी अगर बीस-बाइस साल सिर्फ एक बाथटब जितने पानी में कैद कर रखा जायेगा तो अाप भी कभी न कभी अपना अापा खो ही देंगे.” व्हेल के लिये बनाया गया वो स्टील का दड़बा जिसमें उसे पकड़े जाने के बाद अपनी बाक़ी की ज़िन्दगी कैद रखा जाता है, उनके लिए किसी बाथटब जितना ही बड़ा है.
‘टूटना सितारे का’ (The Armstrong Lie)
इस शानदार वृत्तचित्र का अब अापको भी नाम डायरी में दर्ज कर इन्तज़ार करना चाहिए. मेरा इस पर विस्तार से लिखने का मन है. कैसे खेल उद्योग में बदलता है अौर कैसे खिलाड़ी ‘सेलिब्रिटी’ में, ‘दि अार्मस्ट्रॉग लाई’ इसकी कथा विस्तार में जाकर सुनाती है. यह भी कि जब बाज़ार हमारे नायक अौर उनकी सफ़लता की कथाएं गढ़ने लगता है तो फिर सच्चाई अौर खेलभावना का महत्व एक अकेले शब्द ‘जीत’ के मुकाबले कहीं छोटा अौर महत्वहीन रह जाता है. निन्यानवे में पहली बार ‘टूर दे फ्रांस’ जीतने वाले कैंसर से लड़कर अाये लांस अार्मस्ट्रॉग की कथा को कैसे बाज़ार पतित खेल को दर्शकों की नज़र में फिर से जिलाने का माध्यम बनाता है, अौर फिर कैसे खेल से जुड़ा एक समूचा उद्योग उस झूठ पर खड़ी सपनीली कथा से अरबों रुपया बनाता है, फिल्म इसे बखूबी हमारे सामने रखती है. अौर बाज़ार के इस प्रयोग की सफलता का इससे बेहतर सबूत अौर क्या होगा कि साइकिलिंग खेल के बारे में इससे पहले धेला ना जानने वाला मैं भी इतने सालों से इस लांस अार्मस्ट्रॉग नाम के खिलाड़ी का नाम बखूबी जानता हूँ. अाप भी याद करने की की कोशिश कीजियेगा कि इसके अलावा अापको अौर कितने साइकिलिंग विजेताअों के नाम याद हैं.
साफ़ है, यहाँ अाकर यह सिर्फ एक व्यक्ति की ईमानदारी भर का सवाल नहीं रह जाता. जब सिनेमा अापको बताता है कि कैसे अार्मस्ट्रॉग के साथ इतने सालों में तमाम पोडियम शेयर करने वाले खिलाड़ियों में हर एक का नाम प्रतिबंधित दवाअों के सेवन में अाता रहा, लेकिन फिर भी लांस की कहानी बची रही. यह सिनेमा हमें दरअसल सही सवाल पूछना सिखाता है, अौर जो ये है कि लांस अार्मसट्रॉग की सपनीली वापसी की कहानी के बने रहने से, बचे रहने से अाखिर सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा किसने कमाया? रोलरकॉस्टर राइड से सघन कथानक वाला यह नये पीढ़ी का वृत्तचित्र है जिसमें वृत्तचित्रकार खुद किरदार के तौर पर मौजूद है अौर वह मौका पड़ने पर वह स्वयं को भी अालोचना के दायरे में खींच लाता है. अौर यह फिल्म हमारे तब अौर ज़्यादा क़रीब अा जाती है जब इसके सीधे समांतर मुझे अपने मुल्क में चल रहे तमाशे में दिखाई देने लगते हैं. उस ‘क्रिकेट’ नामक खेल की भ्रष्टकथा में जो कभी एक खेल हुअा करता था.
‘वापसी’ (The Mute)
इस सूखे हास्य वाली रचना को देखते हुए उषा प्रियंवदा की ‘वापसी’ के स्टेशन मास्टर बाबू याद अाते हैं. ऊपरी अावरण से किसी थ्रिलर सी लगती यह फिल्म परिवार की विसंगतियों अौर संबंधों के बीच मौजूद परायेपन के बारे में है. लेकिन यह परायापन अौर निस्संगता यहाँ मैलोड्रामा नहीं रचती, बल्कि विरल संवादों अौर एकाकी कथा प्रसंगों से घिरी कथा भीड़ में निर्वात सा अहसास करवाती है. कथा का अन्त उसे पारंपरिक कथारूप व्यवस्था के बाहर नहीं जाने देता. घर के बाहर निकलने वाला दरवाज़ा जैसे फिर अतीत के अांगन में जा खुलता है.
लोखंडवाला से वापस अाते मैंने खुद को ही अॉटोवाले से दिशा निर्देश ‘अगले कट से बायें मारने का’ वाली भाषा में बोलते पाया. राखी-वरुण, शहर तुम्हारा जल्दी चढ़ता है.