” बड़ी प्रार्थना होती है। जमाखोर अौर मुना़फाखोर साल-भर अनुष्ठान कराते हैं। स्मगलर महाकाल को नरमुण्ड भेंट करता है। इंजीनियर की पत्नी भजन गाती हैं – ‘प्रभु कष्ट हरो सबका’। भगवन्, पिछले साल अकाल पड़ा था तब सक्सेना अौर राठौर को अापने राहत कार्य दिलवा दिया था। प्रभो, इस साल भी इधर अकाल कर दो अौर ‘इनको’ राहत कार्य का इंचार्ज बना दो। तहसीलदारिन, नायबिन, अोवरसीअरन सब प्रार्थना करती हैं। सुना है विधायक-भार्या अौर मंत्री-प्रिया भी अनुष्ठान कराती हैं। जाँच कमीशन के बावजूद मैं ऐसा पापमय विचार नहीं रखता। इतने अनुष्ठानों के बाद इन्द्रदेव प्रसन्न होते हैं अौर इलाके के तरफ से नल का कनेक्शन काट देते हैं।
हर साल वसन्त !
हर साल शरद !
हर साल अकाल ! ” — हरिशंकर परसाई, ‘अकाल-उत्सव’ से।
‘मटरू की बिजली का मंडोला’ का सारा शास्त्र उल्टा है। कबीर की उलटबांसियों की तरह वे यथार्थ को उसके सर के बल खड़ा कर देते हैं। अपने ही नाम पर बसे गाँव का अाततायी शासक यहाँ दारू के नशे में पलटकर खुद इंसाफ का मसीहा बन जाता है अौर अपने ही होश-अो-हवास में दिए फरमानों खिलाफ गाँववालों को सशस्त्र विद्रोह करने के लिए उकसाता है। यहाँ समकालीन इतिहास की जनगणनाअों में सबसे विषम स्री-पुरुष अनुपात वाले राज्यों में गिने गए हरियाणा में एक लड़की तालाब से नहाकर निकलती है अौर उसे निहारता पूरा गाँव खुश होकर तालियाँ बजाता है। खड़ी फसलों को गिराने के लिए केमिकल हमला होते देख गाँववाले उसका जवाब गोबर के हमले से देते हैं अौर सफलता पाते हैं। यहाँ तक कि एक सामन्ती शासक के भ्रष्ट उद्योगपति बनने के ‘लोकपाली सपनों’ की छाया जब खेतिहर किसानों की खड़ी गेहूँ की फसलों पर पड़ती है तो हमारा नायक उससे निपटने का हमारी देखी-जानी दुनिया का सबसे अयथार्थवादी उपाय तलाशता है, एक मल्टीनेशनल कंपनी के सहारे किसानों का उद्धार। बेटी के अनचाहे ब्याह पर अपने भविष्य का महल खड़ा करने वाले पिता का अन्त में एक गुलाबी भैंस देखकर हृदय परिवर्तन हो जाता है अौर वह दुष्ट राजनेता अौर उसके सरकारी पिट्ठुअों को खुद मार भगाता है। यही नहीं, वो अपनी बेटी की शादी स्वयं अागे बढ़ अपने सुयोग्य नौकर से तय करवाता है अौर कहानी के सुखद अन्त में तीनों खुशी-खुशी समस्त गाँववालों के साथ नाचते-गाते दिखाई देते हैं।
इन तमाम यथार्थ से कोसों दूर खड़ी लगती उलटबांसियों से गुज़रते हुए ऐसे सैंकड़ों क्षण अाते हैं जहाँ हम फिल्म को वाहियात कहकर खारिज कर सकते हैं। शायद हम यह करते भी हैं। लेकिन हमने इन्हीं पन्नों पर पहले भी यह बात की है कि कई बार रचना की चाबी कहीं अौर होती है अौर वह हमसे यह उम्मीद करती है कि उसका दर्शक उस चाबी तक अपनेे अनुभव के रास्ते खुद पहुँचे। उस चाबी का इस्तेमाल कर ही इस सर पर खड़ी यथार्थ की उलटबांसी को अपनी बदरंग असलियत सहित समझा जा सकता है। जैसे पहले की लोककथाअों में मायावी दानव अपनी जान दूर देस में किसी पिंजरे में बन्द गोरैया में रख देते थे, वैसे ही यथार्थ से मीलों दूर लगती इन फंतासी कथाअों की चाबी किसी एक प्रसंग, किसी एक दृश्य अौर कभी कभी तो किसी एक अदना से लगते प्रतीक भर में बन्द होती हैं। मुझे तो कई बार वे चाबियाँ संदर्भित फिल्मों के बाहर मेरे अपने अनुभव संसार में भी मिलती रही हैं। अौर उन्हें जानना, उनका असल अर्थ जानना ही वह दुर्लभ क्षण होता है जिसके बाद इस ‘थियेटर अॉफ एबसर्ड’ में कुछ भी पहले जैसा नहीं रह जाता।
जहाँ पाई पटेल उन बीमा कम्पनीवालों की एक ज़्यादा विश्वसनीय कथा पाने की ज़िद पर उस अात्मकथा में से अदम्य रॉयल बंगाल टाइगर ‘रिचर्ड पारकर’ को बाहर करता है, वही दुर्लभ क्षण है जहाँ येन मार्टेल की ‘लाइफ अॉफ पाई’ अपनी कथा के असल अर्थ हमारे सामने खोलती है अौर हम बौराये से देखते हैं। एक लड़के अौर एक शेर की नाव पर साथ बिताये समय की वो कथा उस दुर्लभ क्षण से साक्षात्कार के बाद हमारे लिए कभी वो नहीं रह जाती जो पहले थी। यूँ ही अनुषा अौर महमूद की ‘पीपली लाइव’ में निरंतर चलते मीडिया सर्कस के बीच एक किसान ‘होरी महतो’ है जिसका मिट्टी ढोते-ढोते जैसे अपनी ही कब्र खोदना अौर एक दिन उसी में गिरकर मर जाना सिवाए रिपोर्टर राकेश के शायद किसी को भी नहीं दीखता। लेकिन यही ‘होरी महतो’ की कथा ‘पीपली लाइव’ को समझने की चाबी बनती है हमारे लिए, यही कथाचाबी उस सामान्य व्यंग्य फिल्म को उठाकर हमारे समयों का सामाजिक दस्तावेज़ बनाती है।
जब मंडोला अपने सपने की कथा परदे पर पहली बार इन शब्दों में सुनाते हैं, “जब भी मैं इन बदसूरत खेतों की बदमस्त फसलों को झूमते हुए देखता हूँ, तो मेरा सपना मेरी पलकें नोंचने लगता है। मेरा सपना, बड़ी-बड़ी दैत्याकार मशीनें, बुलडोज़र्स, स्टोनक्रशर्स, इंडस्ट्रियल क्रेन, हवाअों में उड़ता सूखा सीमेंट, हज़ारों की तादाद में मज़दूर, बादल उड़ाते कारखाने, भभकती हुई भट्टियाँ, धधकती हुई चिमनियाँ, यहाँ इधर बाईं तरफ वर्कर्स का हाउसिंग प्रोजेक्ट, अौर उधर दाईं तरफ धूप उछालती, रौशनियों में नहाई ऊँची-ऊँची शॉपिंग माल्स। मल्टिप्लैक्सेस में फिल्मों के रंगीन पोस्टर्स दिखाई दे रहे हैं तुम्हें? फैक्टरी में हम एक हाथ से पगार दे रहे हैं, अौर शॉपिंग मॉल्स में दूसरे हाथ से वापस ले रहे हैं। शाम के धुंधलके में फैक्टरी की मीनारी चिमनी से उठता हुअा धुअाँ अासमान में हमारी नस्लों की दास्तान लिख रहा है। मंडोलाज… मंडोलाज़…” तो उनके बोल किस क़दर काव्यात्मक अौर तस्वीर कैसी भव्य सुनहली है। गौर से देखिए, यही तो वह सुनहरी दिखती तस्वीर है जिसको ‘विकास’ के नाम पर इतने सालों से हर अाती-जाती सरकार अापको-मुझे सफलतापूर्वक बेचती अा रही है। याद कीजिए कि दिबाकर की ‘शांघाई’ में भी हत्यारी सत्ताशील पार्टी का नारा ‘जय प्रगति’ था। याद कीजिए कि अाया तो हिटलर भी सत्ता में ‘विकास’ के नारे के साथ ही था। याद कीजिए कि कैसे हमारे देश में यह चमत्कार होता है कि सैंकड़ों की हत्याअों अौर समूचे जनसंहारों के सिपहसालार अगले चुनावों तक अाते-अाते ‘विकास पुरुष’ घोषित हो जाते हैं।
सत्ताशील वर्ग द्वारा प्रायोजित जनहत्याअों अौर देश के कथित विकास का यह कैसा नाभिनालबद्ध गठजोड़ है, इसका इससे बेहतर प्रमाण कोई फिल्म क्या दे पायेगी। पहले दृश्य में मंडोला का विकास का जगमग सपना है, अौर अगले ही दृश्य में विकास की उस सपनीली तस्वीर की मूसलाधार में डूबती, नष्ट होती ज़िन्दगियाँ हैं। उस गीत ‘बादल उड्या री सखी’ के साथ, जिसके बोल किसी मर्मांतक पुकार से कानों में गड़ते हैं, जहाँ उम्मीदों का, हौसलों का लाल रँग इस अनिष्टकारी बरसात में खड़ी फसल सा बह जाता है, सिनेमा फिर वो नहीं रह जाता जो पहले था। याद कीजिए कि जब फिल्म में यह संवाद अाता है, “जब म्हारे खेतों की फसलें सूख रही होती हैं उस बखत हमारे खेतों की बिजली से गुड़गाँव के मॉलों में दिवाली मन रही होती है रात भर।” तब हम जैसे कई शायद उसी मॉल में बैठे इस फिल्म को देख रहे हैं।
ठीक वहाँ, जहाँ हरफूलसिंह मंडोला दूर तक फैले उपजाऊ खेतों अौर उस पर बिछी गेहूँ की खड़ी फसल के बीच खड़े चौधरी देवी को अपने सबसे अजीज़ सपने के बारे में बता रहे हैं, अाखिर वो क्या है वहाँ जो इस फिल्म में हमेशा के लिए बदल जाता है? उनका सपना, क्या वो एक सपना है? इस यथार्थ कहकर प्रस्तुत किए जा रहे मंडोला के सपनीले संसार को समझने की चाबी क्या इसी सपने रूपी यथार्थ में छिपी है? वो जो हम मंडोला के सपने में देखते हैं, वही जिसका उद्गम इन्हीं गेहँू के लहलहाते खेतों की बलि के सहारे होना है बदा है, क्या वो सच में मंडोला का सपना भर है? तो फिर क्यूँ वे चित्र हमें समूची फिल्म में अपने सबसे जाने-पहचाने चित्र लगते हैं? अचानक ऐसा लगता है कि जिस मल्टिप्लैक्स में बैठकर मैं यह फिल्म देख रहा हूँ, उसका अस्तित्व तभी संभव है जब इन जैसे खड़ी फसलों वाले खलिहानों की हत्या हो। अौर उससे भी खतरनाक यह अहसास कि अगर मैं सच में परदे पर चलते इस मंडोला के कल्पनालोक में कहीं बैठा यह फिल्म देख रहा हूँ, तो इसका सीधा मतलब यह भी है कि असल जीवन में इन खलिहानों की अौर उसे जोतकर सोना उगलने वाले उस दुर्दम्य किसान की हत्या तो कब की हो चुकी। यही वो दुर्लभ क्षण है जिसका सामना मुश्किल है।
सप्ताहांत होते हुए दिल्ली के हृदयस्थल में बसे इस मल्टिप्लैक्स सिनेमा हाल में मुश्किल से दस लोग हैं। मैं सोचता हूँ कि शायद यह फिल्म की सफलता है, शायद इसका यह मतलब भी है कि लोग फिल्म को निरी कॉमेडी फिल्म के रूप में नहीं पचा पा रहे। फिल्म उन्हें असहज कर रही है अौर वे असहज हो रहे हैं। अब ये अलग बात है कि अाजकल कौन सिनेमा माध्यम द्वारा अपने ऊपर किए सवाल सुनने में दिलचस्पी रखता है अाखिर।
“मटरू की बिजली का मंडोला” इस चाबी के मिल जाने के बाद एक अंधेरी फिल्म है, जिसके तमाम सरलीकृत समाधान दरअसल इस यात्रा को अौर ज़्यादा असहज करने वाला बनाते जाते हैं। वे जैसे दिखते हैं, यथार्थ ठीक उसके उल्टा कहीं है। वहाँ उद्योगपति द्वारा राजसत्ता के साथ किए जा रहे भ्रष्ट गठजोड़ हैं। वहाँ कार के कारखानों के लिए अौने-पौने दामों पर छीनी जाती किसानों की उपजाऊ ज़मीनें हैं। अौर वहाँ जाति अौर कुल मर्यादा के नाम पर की जा रही ‘अॉनर किलिंग’ हैं।
मटरू में भी यह सब है अौर बड़े स्पष्ट तरीके से है, लेकिन अपने सर के बल खड़ा हुअा।
हमें यथार्थ मुद्दों पर बात करते सिनेमा में अाती अयथार्थवादी अाहटों से परेशानी है। लेकिन क्या करें कि यह भी हमारे समय के ही किस्से हैं कि जब सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने ‘सरदार सरोवर बांध’ पर लगी रोक वापस लेने से पहले संबंधित सरकार से वादा लिया था कि पुनर्वास कॉलोनियों में बच्चों के खेलने के लिए झूले अौर फिसलपट्टी वाले पार्क ज़रूर होने चाहियें। कि जब “मटरू की बिजली का मंडोला” में चौधरी देवी कहती हैं कि यह न प्यार का मसला है न पावर का, न किसान या कि ज़मीन का, ना गाँव का अौर ना शहर का, यह मसला है ‘देश’ का, तो यह वही राजनेता है जिसके लिए ‘राष्ट्रवाद’ जनता के प्रति सभी जवाबदेहियों से मुक्ति का मंत्र है। अौर चाहे यह सच कितना भी कड़वा क्यों न लगे, यह जानना ज़रूरी है कि दुनिया भर में हमारे समय के मानवता के प्रति किए गए सबसे बड़े अपराध ‘देश की प्रगति’ के नाम लेकर किये जाते रहे हैं। “मटरू की बिजली का मंडोला” इसे बाकायदे नाम लेकर बताती है, अौर इस मायने में यह तमाम अन्य यथार्थवादी फिल्मों से कहीं अागे निकल जाती है।
बारिश के बाद के दृश्य मुझे मारवाड़ के किसान भैराराम की याद दिला गए। भैराराम, जिससे मैं स्वयं प्रकाश की कहानी “सूरज कब निकलेगा” में मिला था। अनन्त बारिश में अदृष्य भगवान से बार-बार एक ही प्रार्थना करता भैराराम अौर कहानी में लौट-लौटकर अाती एक ही बेचैन करनेवाली पंक्ति, “सूरज कब निकलेगा”। ‘बादल उठय्या री सखी’ के साथ सूनी अाँखों से अाकाश की अोर तकते वे दृश्य याद दिलाते हैं स्वयं प्रकाश की वो पंक्ति, “भरी पूरी फसल का तबाह हो जाना किसान के लिए बेटे की मौत से छोटा ग़म नहीं होता।” यहाँ भगवान का अासरा भी नहीं है अौर दरअसल यही वह नंगा यथार्थ है जिसका सीधा सामना हमारा सिनेमा भी कम ही करता है। हमारे सिनेमा से तो अब गाँव ही गायब हो रहे हैं। अौर वे अाते भी हैं तो ‘लगानमय़ी’ होकर जिसमें भगवान गरीबों को सदा अपनी चरण-पादुकाएं उठाने का मौका देते हैं। लेकिन यहाँ स्वयं प्रकाश की ‘सूरज कब निकलेगा’ वाला क्रूर यथार्थवादी अन्त बहुत नज़दीक से दिखता है परदे पर। भगवान प्रद्त्त कोई सरलीकृत हल नहीं हैं इन कथाअों में।
मुझे मेरे अध्यापक ने सिखाया था भक्तिकाल पढ़ाते हुए, कबीर की उलटबाँसियाँ समझनी हों तो उन्हें अपने सर के बल खड़ा करना होता है। यही सलाह मेरी अापको है इस फिल्म से गुज़रते हुए। “मटरू की बिजली का मंडोला” को समझना है तो इसे इसके सर पर खड़ा कीजिए पहले। इसके स्वप्नरूपी यथार्थ को पहचानिये अपने अास-पास, अौर देखिए कि सत्ता द्वारा अापके भीतर पाले जा रहे इस मंडोलाई विकास के स्वप्न की जड़ें किस उपजाऊ ज़मीन की हत्या से रस सींच रही हैं। वे कौन हैं जो इस प्रगति के हताहत हैं, वे कौन हैं जिनके हाथों में अब कुदाल की जगह लाल झंडे हैं। ठीक उस पल जब मंडोला के स्वप्न का यथार्थ चेहरा सामने अायेगा, सम्पूर्ण फिल्म का अन्य गैरसमस्यात्मक यथार्थ भरभराकर ढह जाएगा। अचानक लगता है कि मटरू उन लोगों से बात करने की कोशिश कर रही है जिनको, “पता ही नहीं है कि वे बिक गए हैं।” अौर सच कहूँ, हमारे तमाम उत्सवगान ठीक उसी क्षण मृत्यु के गीत लगने लगते हैं।
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साहित्यिक पत्रिका ‘कथादेश’ के फ़रवरी अंक में प्रकाशित
Jab yeh movie hall mein dekhi thi … to sach mein, vahiyaat / absurd keh ke kitne hi drishyon ko dismiss kar diya tha … Chaabi dene ke liye dhanyavaad ! … Jaise duryodhan ko bhagwaan Krishna kabhi bhagwaan ke roop mein dikh hi nahi paaye the, .. waise hi hum log bhi aksar movie ke vastavik roop, ya yun kahen, ek very important “facet” ko nahi dekh paate … aur still picture mein chhupe huye us object ki tareh, ek baar dikhne par sirf wohi hi dikhai padta hai ….
God Bless You Sir !
Mihir, I’d like to quote your writeup
” याद कीजिए कि कैसे हमारे देश में यह चमत्कार होता है कि सैंकड़ों की हत्याअों अौर समूचे जनसंहारों के सिपहसालार अगले चुनावों तक अाते-अाते ‘विकास पुरुष’ घोषित हो जाते हैं।”.
It seems you are supporting a media generated propaganda. or trying to please ruling government to get some favor in term of award or position.
Mihir, it is interesting to note the comeback of the village into our Cinema (albeit piecemeal) as also the small town of the hinterland. Lately cities like Delhi (Khosla et al) and Kolkata (Kahani, Barfi n others) have also successfully staged a comeback as have some other cities too (Tashan, Ishaqzaade etc).
However what i find missing is the potrayal of actual lived experiences of a city. While the Karan Johar school of Cinema continues to depict the city through mellow lights of discos and tequila shots and open roofed cars, others tend to focus on the seedier underclasses. Maybe its just my class affront at been left out of the narrative, but the city i live in (Mumbai btw) almost never makes it to the screen.
I mean ofcourse the half the movies are supposed to be based in Mumbai, but no one ever talks about the soul crushing and relationship damaging nature of the maximum city in a way, say Bergman did. Modernity, embodied by the city, only comes into the story in opposition to the old world of family relations, tradition or some such thing. Maybe we still don’t have a large enough section of the society that relates to this, what with the struggle for safety and security (according to Maslow’s famed hierarchy) still the key concern for the mass of men.
But that i think is fast changing and will soon impact the way our Cities are reflected in Movies as well. Apparently by 2020 we will have a large part of our population in cities and a whole new generation of young people who have been born and brought up in these cities. The existing wave of Cinema in the last 10 or so years, since Tigmanshu Dhulia, Vishal Bharadwaj, Anurag Kashyap and Dibakar (all Delhi boys in a way) comes as a relief to us because it has brought new energy, new landscapes, new stories on to the screen. Coming on the back of the fantasy filled mushy Cinema of the 90’s, that made the meadows of Switzerland familiar to us, it was a huge relief.
Hopefully soon we will start seeing the city itself make a comeback, a real city this time, that does not need to be violent or seedy to justify its existence. Just by been routine and dull and monotonous as well as grinding (as i am sure most city dwellers encounter the city) it will provide a backdrop for exciting plots. Some of Marathi Cinema today does that brilliantly and i hope Hindi Cinema will also soon follow that path.
Sorry for the meandering all over the place, i do curate stuff from the web on Cinema ocassionally at sanimaa.wordpress.com.
Regards
सतीश जी, मैं इसे गाँव को देखने का ‘अहावादी’ नज़रिया कहता हूँ। इन तमाम लोगों को, जिन्हें शहर में रहते ‘ग्राम्य जीवन’ अाकर्षित करता है, उन्हें दरअसल मालूम ही नहीं है कि असल में गाँव का जीवन क्या है। अौर जानते भी हैं तो गाँव का वही हिस्सा जो गैरबराबर समाज में सत्ताशील वर्ग ने अपने लिए रचा है। अौर शायद असल गाँव को वे कभी जान भी नहीं पायेंगे, क्यूँकि हमारे गाँव की असमानताएँ जानने के लिए किसी गाँव में एक दलित परिवार में जन्म लेना होगा।
kamal ka likhate hain aap mihir.
अभी घाटकोपर के R-Mall में देखा बड़ी सी होर्डिंग लगी है जिसमें एक शख्स कड़ाही में से कुछ छानकर निकाल रहा है और उसके बगल में लिखा है – PURANMAL
एक ओर पूरनमल मॉल में जगह बना रहा है, तो वहीं अर्बन तड़का में पंजाब के हंसते खेलते किसानों के बड़े बड़े फोटो पंजाब का माहौल फील करने के लिये लगे हैं ताकि लोग उन्हीं हंसते खेलते चेहरों को देख देख ऑर्डर दें, मुस्करायें, खांये, पीयें। हैंडपंप का मॉडल फर्स्ट फ्लोर के इस रेस्टोरेंट में लगा है, ताकि पूरा देसी फील करें। ऐसा ही एक और जगह है चोक्खी ढाणीं कल्याण में। वहां राजस्थान का पूरा गांव ही जैसे बसा दिया गया है। एंट्री फीस पांच सौ रूपये।
ये तमाम चीजें शहर वालों को गांव फील करवाने के लिये हैं दूसरे शब्दों में कहा जाय तो शहरीयों के “पियक्कड़ मंडोला” वाले पक्ष को संतुष्ट करते लगते हैं।
बहुत बेहतरीन भाई