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जब वी मेट : ‘किस्सा-ऐ-कसप’

आज फ़िल्मफेयर देखते हुए लगा कि यह पुरानी पोस्ट (13 नवम्बर) जो मैंने अपने ब्लॉग कबाड़ में डाल दी थी पोस्ट कर दी जानी चाहिए. आख़िर ‘गीत’ को एक के बाद एक पुरस्कार मिल रहे हैं! अब तो यह मुझ अकेले की तमन्ना का बयान नहीं. इससे identify करने वाले बहुत हैं. पढ़िये एक नितांत निजी टिप्पणी और उसके बाद इम्तियाज़ अली होने का अर्थ तलाशती ये ‘जब वी मेट’ की कसपिया व्याख्या..!

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“दिल्ली शहर एक परेशान सा ठिकाना है जो सुकून से कोसों दूर है. दोस्त भी पास नहीं, ना सितारेसब एक फासले पर रह गया है. कमरे में अकेलेसारे सुखन हमारेदोहराता मैं तनहा हूँना, अब मैं और सलाह नहीं दे सकता. अब रंग चाहिए. अब दूसरों की प्रेम कहानियाँ सुनना और हल तलाशना काफी हुआ. हाँ.. मुझे संगीत कुछ अधूरा सा लग रहा है. धुन तबतक अधूरी है जबतक उसे बोल मिलें. हाँ.. मेरा तराना अधूरा है. हाँ.. अब मुझे
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मेरी जिन्दगी में एक गीत चाहिए..”

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क्या आपने कभी किसी कहानी से प्रेम किया है? पूरी शिद्दत से किसी कविता को चाहा है? किसी उपन्यास को दिल से लगाकर रातें काटी हैं? एक प्रेम कहानीसाधारण सीएक लड़का, एक लड़की और बहुत सारे संशय वाली. क्या कभी आप पर ऐसी छायी है कि उसका जादू आपके हर काम को अपने आगोश में ले ले? आप जब भी कोई नयी कहानी सुनाने बैठें, वही प्रेम कहानी रूप बदलकर आपकी जुबाँ पर आ जाए?

इम्तियाज़ अली ने एक प्रेम कहानी से ऐसा ही घनघोर प्रेम किया है. पहले एक टेलीफिल्म (स्टार के लिए ‘बेस्टसेलर’ में). फ़िर अभय देओलआयशा टाकिया के साथ पहली फ़िल्म ‘सोचा ना था’. उसके बाद ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ जो उस पुरानी टेलीफिल्म का ही रीमेक थी (इम्तियाज़ ने कहानी/स्क्रीनप्ले किया था). और अब ‘जब वी मेट’ आई है, उनकी दूसरी फ़िल्म. शाहिदकरीना के साथ. एक ही प्रेम कहानी रूप बदल-बदलकर… एक साधारण सी प्रेम कहानी, जिसमें एक लड़का है, एक लड़की है लेकिन “love at first sight” नहीं है. (तीनो फिल्में इसका उदाहरण हैं). शुरुआत में तो लड़के या लड़की को प्रेम भी किसी और से है (आप ‘सोचा ना था’ की कैरेल, ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ के धीरज और ‘जब वी मेट’ के अंशुमान को याद कर सकते हैं.) और फिर एक सफर है साथ… कभी गोवा, कभी दिल्ली और कभी रतलाम से भटिंडा तक! जिन्दगी का सफर.. कभी कंटीले रास्ते, कभी सुहानी पगडंडियाँ. याद आता है गोपीकृष्ण/राधाकृष्ण प्रेम जिसको सूरदास ने साहचर्य का प्रेम बनाकर प्रस्तुत किया. यह पहली नज़र का प्यार नहीं, यह तो रोज की दिनचर्या में पलता-बढ़ता है. रोज की अटखेलियाँ इसे सहलाती है. चुहल बात को आगे बढाती है और पता ही नहीं चलता कि कब प्यार हो जाता है.

और फ़िर हमेशा.. एक भाग जाने का सुर्रा है! संशय मूल थीम है और कहानी हमेशा ‘या की’ टोन बनाए रखती है. यह ‘कसपिया’ संशय है जो ‘ये प्यार है या ये प्यार है’ से उपजता है. अतार्किकता हावी रहती है और कहानी हमेशा “जब आप प्यार में होते हो तो कुछ सही-ग़लत नहीं होता” जैसे ‘वेद-वाक्य’ देती चलती है. मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ कि इम्तियाज़ अपने तकिये के सिरहाने ‘कसप’ रखकर सोते होंगे!

ये तो थी इम्तियाज़ की प्रेम कहानी एक प्रेम-कहानी से उधार! और अब अपनी और फ़िल्म की बात. तो मुझे गीत से प्यार हो गया. ऊपर का कथन टाइम-पास बकवास नहीं एक स्वीकारोक्ति था. और गीत है ही ऐसी की कोई भी उसपर मर मिटे! करने से पहले सोचा नहीं, जो सोचा वो कभी किया नहीं.. that’s geet for U! कुछ कमाल के संवाद नज़र हैं… नायिका नायक को कहती है, “तुम मेरी बहन के साथ भाग जाओ.” या “मैं अपनी फेवरेट हूँ!”. तमाम बातों के बावजूद नायिका का भिड़ जाने का अंदाज.. याद रहेगा. तो प्रेम कहानियो के सुखद अंत तलाशना बंद कर ‘जब वी मेट’ को इस नज़रिये से परखें. खासकर इम्तियाज़ द्वारा बनाये इसी प्रेम कहानी के अन्य रूपों के सामने रखकर जब वी मेट का अर्थ करें. नए अर्थ अपने आप खुलने लगेंगे.

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imitiaz ali mere favorite directors mein se ek hain.. haan unki kahani essentially wahi ek kahani hai.. fir bhi in sabhi kahaniyon mein ek sach hai, ‘namak’ hai jo kahin aur nahi milta.. mere khayal mein in kahaniyon ki khasiyat ye kirdaar hain, jaise ki ‘geet’ jo screen se nikal kar hamari aam bol chaal ka hissa ban jaate hain.. un kirdaron ka kuch hissa hum sab mein hai, shayad isiliye.. love aaj kal, kucch khaas pasand nahi aayi par is film ko agar ajkal ke pyaar pe tippani ki tarah dekhun to imitiaz ki baat ekdum sateek hai.. wo jo dekhte hain apne aas paas, aur jis tarah use dekhte hain – bas isi ke liye khaas hain..! aur haan, ‘socha na tha’ to dubara wo khud bhi nahi bana sakte..